सत्ता की कसौटी पर अटल बड़े या मोदी?
कृष्ण किशोर पांडेय
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के वनवास के बाद भरत ने उनके राज्य को कैसे संभाला उसके बारे में प्रख्यात हिन्दी कवि सियाराम शरण गुप्त की दो पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-
'राम राज्य को भरत संभाला तुमने कैसे
जल से विलग जलज को जल में जैसे'
मतलब यह हुआ कि भरत ने अपने दायित्व का पूरी जिम्मेदारी के साथ निर्वाह किया, लेकिन निर्लिप्त भाव से ठीक वैसे ही जैसे कमल जल में ही पैदा होता है, जल में ही रहता है लेकिन जल को अपने ऊपर टिकने नहीं देता। भारत में रामराज्य की कल्पना में ये तो जरूर है कि वह कोई लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं रही होगी, लेकिन राम की शासन प्रणाली ऐसी रही होगी जो लोगों को लोकतांत्रिक व्यवस्था से भी अधिक आकर्षक दिखी होगी। मतलब साफ है कि भारत में जनता शासक से या शासन से यह अपेक्षा रखती है कि वह कोई भी कदम ऐसा न उठाए जो जनहित में न हो। हालांकि शासन द्वारा लिए गए निर्णय हर व्यक्ति को समान रूप से लाभकारी दिखे ये जरूरी नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सर्वमान्य है कि ऐसे निर्णय जिनसे ज्यादा लोगों का भला हो उन्हें सही निर्णय माना जाएगा।
भारत की वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा कालेधन पर अंकुश लगाने के लिए उठाए गए कदम से जो समस्याएं पैदा हुईं हैं उनपर देशभर में गंभीर चर्चा शुरू हो चुकी है। इसके आर्थिक और राजनीतिक परिणाम क्या होंगे उनपर भी बहस जारी है। उस बहस में शामिल न होते हुए एक दूसरा विचारणीय प्रश्न यह खड़ा हुआ है कि चूंकि वर्तमान सरकार भाजपा की पूर्ण बहुमत से बनी हुई सरकार है इसलिए उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह भाजपा की नीतियों के अनुरूप निर्णय लेगी और काम करेगी। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव के मौके पर प्रचार के दौरान बार-बार यह कहते थे कि इस देश में पिछले 60 साल में कोई काम हुआ ही नहीं। फिर भी ये मानना गलत नहीं होगा कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार के कार्यकाल पर निशाना न साधा होगा। चुनाव प्रचार के दौरान कई बार लोग ऐसी बातें कर जाते हैं जो शायद सिर्फ कहने के लिए होती है। उनमें कोई गंभीरता नहीं होती। फिर भी आज एक सवाल जरूर उठ रहा है कि भाजपा के नेतृत्व में बने अटल सरकार और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही वर्तमान भाजपा सरकार की कार्यप्रणाली में अंतर है या नहीं। और अगर है तो उसकी दिशा क्या है। दूसरी पार्टियों से जो लोग प्रधानमंत्री बने उनकी कार्यप्रणाली से मोदी की कार्यप्रणाली की तुलना इसलिए उचित नहीं है कि कोई भी प्रधानमंत्री अपनी पार्टी की नीतियों के अनुसार ही काम करता है लेकिन वाजपेयी की कार्यप्रणाली और मोदी सरकार की कार्यप्रणाली की तुलना इसलिए जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि भाजपा की नीतियों के अनुरूप कौन सी कार्यप्रणाली अपनी कसौटी पर खरी उतरती है।
अटल बिहारी वाजपेयी की पहली सरकार मात्र 13 दिन में गिर गई थी। दूसरी सरकार 13 महीने तक चली और तीसरी सरकार ने चार साल से अधिक का कार्यकाल पूरा किया लेकिन हर चुनाव में लोगों की सहानुभूति भाजपा के साथ बढ़ती गई और लोग यही कहते रहे कि सरकार को काम करने का पूरा मौका नहीं मिला। 2004 में जब भाजपा पराजित हुई उस समय की वाजपेयी और उनकी पार्टी के खिलाफ लोगों में कोई आक्रोश नहीं था। कार्यप्रणाली में कुछ कमियां दिखाई देने पर लोगों का समर्थन कम मिला। वाजपेयी सरकार के पतन के बाद भी ऐसा नहीं लगता था कि भाजपा विपक्षी दल के रूप में अपना महत्व खो रही हो। वर्तमान स्थिति में सरकार की ओर से और भाजपा की ओर से भी यद्यपि बार-बार यह दावा किया जा रहा है कि नोटबंदी कालेधन पर अंकुश लगाने के लिए बहुत जरूरी कदम है और दावा यहां तक किया जा रहा है कि देश के 90 प्रतिशत लोग इस निर्णय का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन यह दावा जमीनी स्तर पर खोखला दिख रहा है। पहली बात तो यह है कि अगर इस दावे में सचमुच सच्चाई होती तो लोगों में आक्रोश के जो तेवर दिखाई दे रहे हैं वे दिखाई नहीं देते। आम धारणा यह बन रही है कि कालेधन पर अंकुश लगाना तो जरूरी है, लेकिन जिस तरीके से नोटबंदी का यह कदम उठाया गया वह सिर्फ थोड़े समय की परेशानी नहीं है बल्कि उससे अर्थव्यवस्था को तात्कालिक और दीर्घकालिक नुकसान हो रहा है। सवाल यह उठता है कि सरकार और उसका पूरा तंत्र उन परेशानियों का और उनकी वजह से होने वाले नुकसान का पूरा अनुमान क्यों नहीं लगा सका? दूसरा सवाल यह है कि पिछले ढाई साल में सरकार को कालेधन की उतनी चिंता नहीं हुई और अचानक चिंता इतनी ज्यादा क्यों बढ़ गई? कुछ लोगों का आरोप तो यह भी है कि इतना बड़ा कदम बिना तैयारी के उठा लेने के पीछे असली वजह राजनीतिक है। यही वजह है कि सोचने वाले लोग इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहे हैं कि वास्तव में इस कदम को साहसिक कहा जाए या दुस्साहसिक। इस संदर्भ में कुछ लोग वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार और वर्तमान मोदी सरकार की कार्यप्रणाली में तुलना भी करने लगे हैं।
वाजपेयी सरकार ने जब सत्ता संभाली तो अपने को उन विवादों से दूर रखने की चेष्टा की जिनके कारण देश में शांति और सद्भाव का माहौल बिगड़ने की आशंका थी। इन मुद्दों में खासकर तीन मुद्दे थे- रामजन्मभूमि से संबंधित विवाद, संविधान के अनुच्छेद 370 से जुड़ा विवाद और समान नागरिक संहिता की मांग से जुड़ा सवाल। शायद वाजपेयी सरकार ने सोच-समझ कर यह फैसला लिया था क्योंकि उसे यह लग रहा था कि देश के सामने गरीबी और बेरोजगारी की समस्या ज्यादा जटिल है और इसलिए उसके समाधान के लिए सौहार्दपूर्ण माहौल में विकास के रास्ते पर चलना समय की मांग है। वाजपेयी प्रधानमंत्री के रूप में तो लोकप्रिय थे ही, लेकिन उनकी एक बड़ी विशेषता यह थी कि वह किसी भी मुद्दे पर यथासंभव सभी लोगों की राय लेने की कोशिश करते थे और इसीलिए दूसरी पार्टी के लोगों में भी उनका सम्मान किया जाता था। कांग्रेस की सरकार जब थी तब भी अनेक मौकों पर वापपेयी को महत्वपूर्ण काम सौंपा गया था। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच ऐसा ही संबंध अच्छा होता है जिसमें राजनीतिक दल अपनी नीतियों के अनुरूप कार्य करते हुए भी इस बात का ध्यान रखें कि उनके बीच कोई कटुता और वैमनस्य न हो। सत्ता पक्ष बदले की भावना से काम न करे और विपक्ष सरकार के कामकाज में अनुचित ढंग से रोड़ा न अटकाए। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि वाजपेयी में अपनी छवि चमकाने का कोई विशेष आग्रह नहीं था। उन्होंने भाजपा के हित का ध्यान भी रखा लेकिन साथ-साथ 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' के लक्ष्य से कभी समझौता नहीं किया। उनपर यह आरोप कभी नहीं लगा कि संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए उन्होंने ऐसे कदम उठाए हों जो अपेक्षा के अनुरूप न हों।
दुर्भाग्य से भाजपा के नेतृत्व में चल रही वर्तमान मोदी सरकार के कार्यकाल में बार-बार ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिनको देखते हुए लोग यह सोचने को बाध्य हो जा रहे हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है। वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा को सहयोग देने वाले दलों की संख्या भी ज्यादा थी और उनके साथ सही ढंग से तालमेल भी चल रहा था। आज की स्थिति ये है कि कई भाजपा सांसद ही खुलेआम सरकार की कार्यप्रणाली की आलोचना कर रहे हैं। वाजपेयी जहां विपक्षी दलों के नेताओं से भी राय मशविरा करने से परहेज नहीं करते थे वहीं आज पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को किनारे कर दिया गया है। सरकार की आर्थिक नीतियों के बारे में अरूण शौरी और यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ लोगों ने भी बार-बार सरकार का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की लेकिन उनके सुझावों पर अमल करना तो दूर, ध्यान भी नहीं दिया। नोटबंदी के मुद्दे पर आम लोगों में बढ़ते आक्रोश को देखते हुए भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने सरकार को सुझाव दिया कि वरिष्ठ, अनुभवी और आर्थिक मामलों की समझ रखने वाले नेताओं की एक कमेटी बनाई जाए और सरकार उस कमेटी के सुझावों पर अमल करे। लेकिन मोदी सरकार इस सुझाव पर भी ध्यान देने को तैयार नहीं है।
सवाल यह उठता है कि पार्टी के सांसद और नेता अगर सरकार की कार्यप्रणाली की आलोचना करते हैं तो उसके पीछे उनका मकसद क्या है? क्या वे अपनी ही सरकार को बदनाम करना चाहते हैं या उन्हें ऐसा लग रहा है कि सरकार की कार्यप्रणाली से पार्टी का अहित हो रहा है? शायद वह वक्त आ गया है जब स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सरकार में बैठे अन्य लोग इस बात पर गंभीरता से विचार करें कि व्यक्ति पूजा ज्यादा महत्वपूर्ण है या पार्टी का हित। भाजपा सरकार को यह याद रखना चाहिए कि राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा ने सदा ही व्यक्ति पूजा का विरोध किया है और अगर वह खुद इस बीमारी का शिकार हो जाए तो फिर अपना बचाव कैसे करेगी। मोदी सरकार के सामने वाजपेयी सरकार का उदाहरण भी है, पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे अनुभवी लोग भी हैं और पार्टा का हित चाहने वाले जानकार और विशेषज्ञ लोग भी हैं। सरकार को वर्तमान हालात में गंभीरता से विचार करना चाहिए और आत्मनिरीक्षण करना पड़े तो उससे भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और राजनीतिक चिंतक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)