कौन बदले? जेएनयू या सरकार
प्रवीण सिंह
एक आम नजरिए से देखा जाए तो जेएनयू या किसी भी संस्था में देश विरोधी और सजा पाए आतंकी के समर्थन में नारे लगाना गलत हो सकता है। क्योंकि हर कोई यही दलील पेश करेगा कि जिस देश में रहते हो उस देश के खिलाफ कैसे बोल सकते हो। पर जब हम इसे एक प्रबुद्ध नागरिक और नजरिए का विस्तार करके देखने की कोशिश करते हैं तो यह गलत और अटपटा तो लग सकता है पर देशद्रोह तो कतई नहीं हो सकता।
सबसे पहले कथित तौर पर जेएनयू में अफजल गुरु के लिए लिए लगाए गए नारों को ही लेते हैं। आपको पता होगा कि संसद भवन पर हमले के आरोप में कुल तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था जिनमें से दो को अदालत ने रिहा कर दिया था और अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी। फांसी गलत थी या सही इस पर राय अलग-अलग हो सकती है। सबके अपने-अपने तर्क हैं। खास बात ये है कि कई विधि विशेषज्ञों ने भी इस पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाए थे। उन्होनें इसमें कई न्यायिक खामियां गिनाई थी। काटजू ने तो खुलेआम कहा था कि यहां न्यायिक गलती हुई है।
इस फैसले को सही या गलत ठहराने की अपनी वजहें और तर्क हो सकते हैं। कई ऐसे हैं जो अदालती फैसले से इत्तेफाक नहीं रखते। तो ऐसे में क्या उनसे उनकी इस असहमति का अधिकार छीन लिया जाए? भारतीय न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल उठाना कोई गलती तो नहीं। हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण है जिसमें धर्म विशेष के युवाओं को शक के आधार पर पकड़ा गया, उन पर केस चला और फिर उन्हें अदालत से बरी भी कर दिया गया। अब ऐसे में न्यायिक व्यवस्था को लेकर अगर कुछ भ्रम है तो उसे दूर करने के लिए आवाज बुलंद करना भला कैसे गलत हो सकता है? ऐसे में क्या विरोध करने वालों का गला दबा दिया जाए या उन्हें देशद्रोही करार दिया जाये।
कुछ लोगों ने कथित तौर पर भारत विरोधी और कश्मीर की आजादी के सर्मथन में भी नारे लगाए। इसका अभी सिद्ध होना बाकी है कि किसने लगाए। यह एक बार साबित हो भी जाए तो क्या इसे देशद्रोह मान लेना चाहिए? सबसे पहले तो यही जान लेना चाहिए कि जेएनयू भी इसी समाज का हिस्सा है। यहां देश के कोने-कोने से युवा पढऩे आते हैं। सबकी अलग-अलग पृष्टिभूमि होती है। इसे लघु भारत के तौर पर देखा जाता है। यहां कश्मीरी आतंकवाद के बीच का भी युवा आता है, नार्थ ईस्ट से भी। वह युवा जिसने कश्मीर में सेना की ज्यादतियां देखी हैं, जिसने अफस्पा को करीब से देखा होगा उसके लिए इन सबके क्या मायने हैं। उसके लिए भारत क्या है, क्या उसके नजरिए को सुना जाना गलत है और क्या इसे सुनने के बाद उस पर विमर्श नहीं करना चाहिए?
क्या देशभक्ति के परचम तले हमें सुदूर मणिपुरी महिलाओं की वो आवाज नहीं सुननी चाहिए, जिसमें वो सुरक्षाबलों से आजिज आकर निर्वस्त्र आंदोलन को विवश हुईं और उन्होंने‘इंडियन आर्मी रेप अस’के नारे लगाए। पिछले 15 सालों से भूख हड़ताल कर रही क्या इरोम शर्मिला को भी नजरअंदाज कर देना चाहिए? हम नहीं चाहते कि फिर से किसी के घर अफजल गुरु या परेश बरुआ निकले और भारत को विखंडित करने के बारे में सोचे। पर क्या हम जरा सा ठहर कर उनके दर्द को समझ नहीं सकते, सरकार और मीडिया उनकी बातों को भी नहीं सुन सकती? क्या भारत का मतलब सिर्फ एक ऐसे राजसत्ता का रह गया है जो सिर्फ कुछ ही लोगों के बारे में सोच सकती है, नीतियां बना सकती है?
ये सवाल कुछ कठिन और चुभते हुए जरूर लग सकते हैं पर इन्हें कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यहां बात-बात पर देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। क्या व्यवस्था पर सवाल उठाना गलत है? अगर नहीं तो क्यों अरुंधिती राय, प्रो. साईं, असीम त्रिवेदी और कुडनकुलम परमाणु परियोजना पर सवाल उठाने वाले लोगों पर देशद्रोह के मुकदमें ठोके गए? अगर आप इन सबको देशद्रोही मानते हैं और व्यवस्था पर सवाल खड़े करना गलत समझने लगे हैं तो यह समझ लेना चाहिए कि आप लोकतंत्र की पगडंडी पर पंडित नेहरू, अम्बेडकर और गांधी द्वारा चलने की सिखाई कब का भूल चुके हैं। वह लोकतंत्र ही कैसा जहां का नागरिक सवाल उठाना भूल जाए।
दुनिया के किसी विकसित और लोकतान्त्रिक देश के विश्वविद्यालयों को देख लीजिए। अमेरिका में तो तीन-तीन बड़े छात्र आंदोलन हो चुके हैं। सबसे पहला 1965 के अमेरिका-वियतनाम युद्ध के समय। इसमें मिशिगन यूनिवर्सिर्टी के छात्रों ने युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन किया। आपको पता होगा कि यह लड़ाई अमेरिका हार भी गया था। कोई देशद्रोह का केस नहीं हुआ। दूसरा 1965-73 में हुआ। लेकिन कोई देशद्रोह नहीं माना गया। तीसरा कोलंबिया यूनिवर्सिटी में साल 1968 में हुआ। दरअसल कुछ हथियार कंपनियों ने वियतनाम में अमेरिका को लडऩे के लिए उकसाया था। यह उनके खिलाफ था। इसमें भी अमेरिका विरोधी नारे लगाए गए। पर कोई केस नहीं दर्ज किया गया। फिर 2003 में पूरे अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इराक युद्ध के विरोध में प्रदर्शन हुए।
ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में तो बकायदे आयोजन होते हैं जिसमे सरकार और उसकी नीतियों की खुलकर आलोचना होती है, विमर्श होता है। कुछ लोग यह भी दलील देने लगे है कि जेएनयू जनता के टैक्स से चलता है। उनके लिए जवाब है कि जैसे जनता के पैसे से नेता लोगों को सुविधाएं भोगने का हक है उसी तरह विश्वविद्यालयों को चलने का भी, बल्कि यह तो शिक्षा पर खर्च हो रहा।
दुनिया में कुछ स्थान ऐसे होने चाहिए जो श्लील-अश्लील, शुद्ध-अशुद्ध, अपने-पराए, देशी-विदेशी, पुरुष-स्त्री, बड़े-छोटे, शिक्षित-अशिक्षित आदि की सीमाओं से ऊपर उठकर विचारों की पड़ताल करे। अगर देश के एक आदमी के दिमाग में भी कोई विचार या कोई सवाल आता है तो उसके लिए स्थान होना चाहिए और उस विचार के तमाम पहलुओं पर खुले मन से बात होनी चाहिए। इसके लिए सबसे उचित स्थान विश्वविद्यालय होता है। शायद यही विश्वविद्यालय का सच्चे अर्थों में मायने भी होता है। यहां अलग-अलग सोच व विचारधाराओं को पुष्पित और पल्लवित होने का मौका मिलता है। यही वह जगह होती है जहां रवींद्र नाथ टैगोर की बात ‘where mind is without fear’ अक्षरश: लागू हो सकती है। देश में जेएनयू इस मामले में पूरी तरह खरा उतरता है। वह सभी को मौके देता है। चाहे किसी विचार को मानने वाला कोई अकेला ही क्यों न हो।
देश के अलग-अलग हिस्सों में अनेक लोग कई बार ऐसी राय व्यक्त करते हैं, जो बहुसंख्यक नजरिये के खिलाफ होता है। लेकिन मजबूत कानूनी आधार के बिना उन्हें आतंकवादी, अलगाववादी या देशद्रोही नहीं माना जा सकता। वर्ष 2013 में जब अफजल गुरु को फांसी दी गई थी, तब इसी लोकतांत्रिक ताकत के बूते बहुतेरे लोगों ने उसकी आलोचना की थी। वे लोग गुरु को फांसी देने के विरोधी नहीं थे, बल्कि गुरु को अफरातफरी में और बिना उसके परिवार को सूचित किए जिस तरह से फांसी दे दी गई थी, उसके खिलाफ थे।
जेएनयू मामले में अगर शुरू से ही पर्याप्त संवेदनशीलता से निपटा गया होता तो संभवतः यह स्थिति नहीं आती। उदाहरण के लिए, जब डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन ने अफजल गुरु पर कार्यक्रम करने का फैसला किया था, तो जेएनयू प्रशासन भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) को भी एक समानांतर कार्यक्रम करने की इजाजत दे सकता था। इससे उस टकराव से बचा जा सकता था, जो आज सामने है। बेशक विश्वविद्यालयों में राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती; अगर कथित राष्ट्र-विरोधी नारेबाजी के पीछे जेएनयू के बाहर के लोगों का भी हाथ था, जैसा कि बताया जा रहा है तो यह वाकई गंभीर है।
(लेखक युवा पत्रकार हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता अथवा सच्चाई के प्रति सत्ता विमर्श उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)