रघुवर के राज में क्रॉस जिहाद का सच
अब तरक़्क़ी के तर्क बदल चुके हैं। खेतों में फसल आयी है यीशु के आशीर्वाद से। अब महाजनों से मतलब नहीं। और शायद, जुमले वाली उस व्यवस्था से भी नहीं। सरकार से जितना मिल जाये, नही मिलने का अफसोस नहीं और मिलने का अभिमान नहीं। खलिहानों से खुशियां आतीं हैं और उन खलिहानों को भरनेवाला बोंगा, वनदेवता या रघुकुल के श्रीरामचन्द्र नहीं-- ऐसा धर्मांतरित आदिवासी मानते हैं। ज़िन्दगी में चमत्कार बाइबिल ने किया है तो इस लोक आस्था को आप भी स्वीकार कीजिये।
फिर से राम मंदिर का मुद्दा
सरसंघचालक मोहन भागवत ने यह मांग कर के कि सरकार अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए शीघ्र कानून बनाए, असल में सरकार की दुखती रग को छेड़ दिया है। राम मंदिर बनाने का मुद्दा बहुत पुराना है और देश के लिए यह एक ऐसा सवाल बन गया है जिस पर हर दृष्टिकोण से विचार करने की जरूरत होती है। यह सिर्फ धार्मिक मामला नहीं है, यह सिर्फ सांप्रदायिक भी नहीं है, लेकिन कुल मिलाकर बातें ऐसे उलझ गई है कि उनको सुलझाने में न्यायपालिका को भी अच्छी खासी कसरत करनी पड़ेगी। यह मुद्दा भावनात्मक बन चुका है।
साजिश? हां, यह साजिश ही तो है
अर्थव्यवस्था के विकास का अर्थशास्त्र बताता है कि इसका फल वर्गों में मिलता है। मसलन विकास का 80 फ़ीसदी धन देश के एक फ़ीसदी लोगों के पास संग्रहित हो जाता है। परिणामस्वरूप हर महीने 30-40 अरबपति उत्पन्न हो जाते हैं। साथ ही जो पहले से अमीर हैं वे और अमीर हो जाते हैं। दूसरी ओर विकास का 20 फीसदी धन देश के 80 फीसदी में बंटता है। इनमें भी किसी को मिलता है किसी को नहीं मिलता है। इससे जो गरीब हैं वह और गरीब हो जाते हैं।
द ग्रेट बनाना रिपब्लिक ऑफ इंडिया
दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश बनाना रिपब्लिक की राह पर है। ये आवाज 2011 से 2014 के बीच जितनी तेज थी, 2014 के बाद उतनी ही मंद है या कहें अब कोई नहीं कहता कि भारत बनाना रिपब्लिक की दिशा में है। तो क्या वाकई मनमोहन सिंह के दौर में भारत बनाना रिपब्लिक हो चला था और सत्ता बदली तो बनाना रिपब्लिक की सोच थम गई, क्योंकि एक न्यायपूर्ण सत्ता चलने लगी।
तरक्की पर अर्थव्यवस्था तो फिर क्यों दम तोड़ रहा रूपया?
रूपए की औकात आज इस हद तक गिर गई है कि एक डॉलर के लिए हमें अब करीब 72 रूपए चुकाने पड़ रहे हैं। किसी भी भारतीय के लिए यह सदमे से कम नहीं है। इसके पीछे जो आर्थिक तर्क दिए जा रहे हैं वह तो अपनी जगह हैं, पर आम जनता के गले यह बात नहीं उतर रही कि जब सरकारी आंकड़े इस बात का दम भर रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर ने चीन को भी पछाड़ दिया है तो फिर अपना रूपया इस कदर कमजोर क्यों होता जा रहा है।
भारत विभाजन का असली गुनहगार कौन?
71 बरस पहले हमारे पूर्वजों ने गुलामी के परचम को मां भारती के माथे से हटाकर औपचारिक तौर पर स्वाधीनता हासिल की थी। लिहाज़ा इस आज़ादी दिवस के अवसर पर स्वाधीनता के उन महावीरों को याद करते हुए आज की नई पीढ़ियों को देश के बंटवारे से जुड़ी कुछ बातों से रू-ब-रू कराना जरूरी है ताकि स्वाधीनता के महावीरों को लेकर उनके मन में कोई भ्रम अथवा वहम की गुंजाइश न हो। क्योंकि मुल्क के बंटवारे की तोहमत अक्सर गांधी जी (बापू) पर लगाई जाती है और कहा जाता है कि गांधी ही भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के असली गुनहगार हैं।
सियासी चक्रव्यूह में फंसे सुशासन बाबू
बिहार स्थित मुजफ्फरपुर बालिका गृह की भयावह स्थिति पहली बार अप्रैल 2018 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस) की एक रिपोर्ट में उजागर हुआ था, लेकिन नीतीश सरकार ने महीनों-महीनों इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस भयानक स्थिति पर सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार की चुप्पी कुछ बड़े सवाल खड़े करती है। आखिर इतने दिनों तक टिस की इस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई क्यों नही हुई?
एनआरसी : समस्या की असली वजह तो जानिए
40 लाख लोग तकनीकी रूप से भारत के नागरिक भले नहीं हों, जिसमें भूलवश हुई गैर पात्रता शामिल नहीं है, पर ये व्यक्ति मानवीय दृष्टि से, मानवशास्त्रीय दृष्टि से, ऐतिहासिक दृष्टि से, भारतीय जनजीवन और संस्कृति की दृष्टि से और अखंड भारतीय इतिहास के डीएनए के हिसाब से उसी भारत के ही तो हिस्से हैं।
भीड़ के हाथों दम तोड़ता भारतीय लोकतंत्र
मुल्क में चारों तरफ एक हिंसक हत्यारी भीड़ का शोर बह रहा है। उस शोर का सैलाब लगातार आपकी कल्पनाशीलता को खत्म कर रहा है। आपके भीतर की रचनात्मकता को पीट-पीट कर मार रहा है। वो हत्यारी भीड़ संवैधानिक व्यवस्था के समानांतर खड़ी होकर लोकतंत्र को कुचल रही है। लेकिन ये सनद रहे कि भीड़ ना तो किसी मजहब की होती है और न किसी जाति की। फिर भी ये हत्यारी भीड़ हमेशा किसी धर्म या मज़हब का होने का दावा जरूर करती है। ये भीड़ हमेशा संस्कृति, मजहब, राष्ट्र आदि बचाने के नाम पर हमला करती है।
कांग्रेस ही भाजपा का एकमात्र विकल्प-3
कांग्रेस को देश के वर्तमान सामाजिक व राजनैतिक यथार्थ और उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर ही एक ऐसी आर्थिक नीति को तैयार करना चाहिए जिसमें युवाओं को रोजगार के सुनिश्चित अवसर उपलब्ध हो सकें। इसके लिए गांवों के विकास की एक ऐसी स्वदेशी रूपरेखा तैयार करनी चाहिए जो हमारी पारिस्थितिक तंत्र के अनुकूल हो। जैसे खेती के छोटे जोतों को जोतने लायक बनाने के साथ ही उनके मालिकाना हक पर भी निर्णायक कदम उठाना चाहिए।