मोदी सरकार के 3 साल : नाकामी की गठरी में ही बंधा हर साल एक करोड़ नौकरी देने का वादा भी
सत्ता विमर्श ब्यूरो
नई दिल्ली : प्रधानमंत्री और प्रधानसेवक के तौर पर नरेंद्र मोदी ने तीन साल पूरे कर लिए हैं। हालांकि भारतीय जनमानस की याददाश्त कमजोर होती है, लेकिन इतनी भी कमजोर नहीं कि 2014 के चुनावी भाषणों में नरेंद्र मोदी ने नौजवानों से रोजगार दिलाने का जो वादा किया था वो याद न हो। तब मोदी ने कई जनसभाओ में पढ़ाई पूरी करके श्रम बाजार के दरवाजे पर खड़े नए मतदाताओं से उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए भाजपा को सिर्फ एक मौका देने की मांग की थी और कहा था कि मैं 50 साल के लोगों के लिए तो ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, लेकिन मैं नए रोज़गार की तलाश कर रहे 20 साल के युवकों की जिंदगी को बदलना चाहता हूं। नरेंद्र मोदी का यह वादा तीन साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नाकामी को बयां कर रहा है।
मई 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत एनडीए की सरकार बनाने के बाद से देश में बेरोजगारी लगातार बढ़ी है। सरकारी आंकड़े तो कम से कम यही खुलासा कर रहे हैं। भाजपा ने लोकसभा चुनाव-2014 के अपने घोषणा-पत्र में कहा था, कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार बीते 10 वर्षों के दौरान कोई रोजगार पैदा नहीं कर सकी, जिससे देश का विकास बाधित हुआ है। भाजपा यदि सत्ता में आई तो व्यापक स्तर पर आर्थिक सुधार करेगी और बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करेगी।
प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने से पहले नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव 2014 के प्रचार अभियान के दौरान 2013 में आगरा में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर भाजपा सत्ता में आती है तो हम हर साल एक करोड़ रोजगार का सृजन करेंगे। श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर तैयार आर्थिक सर्वेक्षण (2016-17) में कहा गया है कि रोजगार वृद्धि दर घटी है। केंद्रीय श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पिछले आठ सालों में सबसे कम वर्ष 2015 और 2016 में क्रमश: 1.55 लाख और 2.31 लाख नई नौकरियां तैयार हुईं।
श्रम मंत्रालय द्वारा पांचवें वार्षिक रोजगार-बेरोजगार सर्वेक्षण (2015-16) की रिपोर्ट में कहा गया है कि सामान्य प्रिंसिपल स्टेटस के आधार पर बेरोजगारी दर 5 फीसदी रही। सामान्य प्रिंसिपल स्टेटस के मुताबिक सर्वेक्षण से पूर्व के 365 दिनों में 183 या उससे अधिक दिन काम करने वाले लोगों को बेरोजगार नहीं माना जाता। इस सर्वेक्षण में औपचारिक एवं अनौपचारिक अर्थव्यवस्था दोनों को शामिल किया गया है। इसके अलावा सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रमों के तहत काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों को भी शामिल किया गया।
इस आर्थिक सर्वेक्षण में रोजगार की प्रकृति में भी अहम बदलाव को रेखांकित किया है और कहा है कि स्थानीय नौकरियों की अपेक्षा कुल रोजगार में अस्थायी एवं संविदा पर नौकरियों की हिस्सेदारी बढ़ी है। सर्वेक्षण में कहा गया है कि अस्थायी नौकरियों में वृद्धि के चलते पारिश्रमिक, रोजगार स्थायित्व एवं श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, 2004-05 से 2011-12 के बीच अनौपचारिक क्षेत्र ने कुल रोजगार का 90 फीसदी रोजगार सृजित किया। शहरी और ग्रामीण इलाकों में सूक्ष्म एवं छोटी परियोजनाएं शुरू कर रोजगार सृजित करने के उद्देश्य से शुरू की गई प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी) के तहत लाभान्वितों की संख्या 2012-13 में 428,000 से 24.4 फीसदी घटकर 2015-16 में 323,362 रह गई।
सरकार के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, इस कार्यक्रम के तहत अतिरिक्त 187,252 नौकरियां सृजित हुईं। इसके अलावा राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत 2016-17 के दौरान 15,768 नवउद्यमियों ने सूक्ष्म उद्यम शुरू किए। श्रम मंत्रालय के त्रैमासिक रोजगार सर्वेक्षण में शामिल मुख्य आठ सेक्टरों से हासिल आंकड़ों और पीएमईजीपी के तहत अक्टूबर, 2016 तक प्राप्त आंकड़ों को मिलाकर भाजपा के तीन वर्षो के कार्यकाल के दौरान देश में कुल 15.1 लाख रोजगार सृजित हुए। यह संख्या इससे पूर्व के तीन वर्षों के दौरान सृजित रोजगारों की संख्या से 39 फीसदी कम है।
ज़ुबानी साक्ष्यों के आधार पर यह भी माना गया कि नोटबंदी से स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में रोज़गार निर्माण को नुकसान नहीं उठाना पड़ा। संगठित क्षेत्र में सेवा क्षेत्र को जोड़ने से सरकार को 2016 के लिए रोजगार निर्माण में वृद्धि के थोड़े बेहतर आंकड़े पेश करने में मदद मिली है। हालांकि प्रथम दृष्टया इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि करीब छह महीने पहले जब नोटबंदी के कारण अर्थव्यवस्था मंद पड़ी थी, उद्योग नई भर्तियां कर रहे थे।
यह मुमकिन है कि सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में नई भर्तियां कर रही हो, जिसके कारण इनमें बढ़ोतरी दिख सकती है मगर संगठित क्षेत्र का बड़ा हिस्सा इस दौरान नोटबंदी के कारण पैदा हुई नई स्थिति से निपटने में ही लगा हुआ था, क्योंकि इस समय लगभग हर क्षेत्र में बिक्री में कमी आई थी।
ये तो रही संगठित क्षेत्र के रोजगार की बात। नोटबंदी के कारण असंगठित क्षेत्र के छोटे निर्माताओं को उत्पादन और नौकरी, दोनों ही मोर्चों पर भारी गिरावट झेलनी पड़ी। आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ की बातों पर भरोसा करें तो नोटबंदी के दौरान 2.5 लाख इकाइयों पर ताला पड़ गया। अगर आप उस तिमाही के दौरान बंद हुई इकाइयों में औसतन 5-10 मजदूर भी मानें, तो रोजगार का काफी ज्यादा नुकसान हुआ होगा।
हालांकि असंगठित क्षेत्र में रोजगार के आंकड़ों का अनुमान लगाना काफी कठिन काम है, मगर अर्थशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र के रुझानों में आपसी रिश्ता है। ये दोनों उलटी दिशा में नहीं चल सकते। सरकार अक्सर यह दावा करती रही है कि आम तौर पर संगठित क्षेत्र की तुलना में असंगठित क्षेत्र में नौकरियां कहीं ज्यादा तेज रफ्तार से बढ़ी हैं लेकिन इस दावे को सबित करने के लिए कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है।
इस सबसे इतर आने वाले दो-तीन सालों में आईटी और बीपीओ जैसे क्षेत्रों में छंटनी को लेकर लगाए जा रहे विनाशकारी कयास रोजगार की चिंताओं को और बढ़ाने वाले हैं। ये दोनों सेक्टर बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन करने वाले सेक्टर रहे हैं। इन दोनों क्षेत्रों में आज करीब 40 लाख लोग कार्यरत हैं। अंदरूनी अनुमानों के मुताबिक इनमें से करीब 60 फीसदी अपने वर्तमान कौशल स्तर पर बेकार हो जाएंगे। सोचिए! तब क्या होगा पीएम मोदी के हर साल एक करोड़ रोजगार देने के वादे का? (इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट व अन्य इनपुट के साथ)