30 साल किए देश के नाम, अब उठाया जा रहा है नागरिकता पर सवाल
सत्ता विमर्श ब्यूरो
नई दिल्ली: जिसने जिस देश की सेना को अपनी जिन्दगी के अनमोल 30 साल दिए हों और उससे अब ये पूछा जाए कि आखिर वो इस देश का नागरिक है भी या नहीं, तो उस शख्स को कैसा लगेगा? क्या उसे गुस्सा आना, उसका दुखी होना या उसका नाराज होना लाजिमी नहीं है। हैरानी होगी कि ऐसा हमारे देश में हुआ है। इस वाकये ने हमारे सिस्टम को एक बार फिर कटघरे में खड़ा कर दिया है। इनका नाम मोहम्मद अजमल हक है और सेना में 30 साल सेवा देने के बाद ये रिटायर हुए हैं।
गुवाहाटी में रह रहे हक को विदेशी मामलों की ट्राइब्यूनल से एक नोटिस मिला है। इसमें उन्हें 'संदिग्ध वोटर' श्रेणी में रखते हुए ट्राइब्यूनल के सामने पेश होने को कहा गया है। इस नोटिस में हक से ट्राइब्यूनल के समक्ष दस्तावेज जमा कर अपनी नागरिकता साबित करने को कहा गया है। हक बताते हैं कि यह नोटिस उन्हें देर से मिला और इस वजह से पेशी की पहली तारीख 11 सितंबर को ट्राइब्यूनल के सामने हाजिर नहीं हो सके। उन्होंने बताया कि अब वह 13 अक्टूबर को पेश होंगे। इन्हें बंग्लादेश का अवैध प्रवासी बताया गया है।
इस नोटिस से नाराज हक कहते हैं, 'छह महीने की सैन्य प्रशिक्षण के बाद मैंने सेना की तकनीकी विभाग में जुड़ा। मैं पंजाब के खेमकरन सेक्टर और कलियागांव में LoC पर, भारत-चीन सीमा पर त्वांग में, लखनऊ में, कोटा में सेवाएं दीं। मैंने कुछ वक्त सिकंदराबाद स्थित रक्षा प्रबंधन कॉलेज में भी काम किया।' 30 सितंबर, 2016 को वो जेसीओ पद से सेवानिवृत हुए हैं। 1986 में बतौर मैकेनिकल इंजिनीयर वो सेना से जुड़े थे।
हक कहते हैं, अगर मैं अवैध प्रवासी हूं तो फिर मैंने भारतीय सेना में कैसे अपनी सेवा दी। मैं बहुत दुखी हूं। 30 साल देश की सेवा करने का मुझे ये इनाम मिला है। मेरी पत्नी को भी इसी तरीके से प्रताड़ित किया गया था। मैं इसी मिट्टी से ताल्लुक रखता हूं, फिर क्यों सरकार हमें सामप्रदायिक स्तर पर प्रताड़ित कर रही है।ट
बता दें कि हक की पत्नी मुमताज बेगम को इसी ट्राइब्यूनल ने 2012 में तलब कर नागरिकता साबित करने को कहा था। हक के मुताबिक, उस वक्त वह चंडीगढ़ में तैनात थे। यहां गौर करने वाली बता यह भी है कि जिस हलफनामे में उन्हें भारतीय नागरिक माना गया है, उसमें हक का नाम उनके पति के रूप लिखा हुआ है।
क्या है विदेशी मामलों की ट्राइब्यूनल?
असम में कई foriengers tribunals यानी विदेशी न्यायाधिकरण स्थापित किए गए हैं। ये ट्राइब्यूनल विदेशी नागरिकों की वैधता को जांचने परखने के लिए बनाए गए हैं। 1964 के आदेश के तहत इनकी स्थापना हुई। जिसका ध्येय संदिग्ध भारतीय नागरिकों की जांच था। 1986 में पहला ट्राइब्यूनल व्यवहार में आया जब केन्द्र की राजीव गांधी सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के मध्य 1985 में एक सहमति बनी। तब 25 मार्च 1971 को पैमाना माना गया। जिसमें इस बात का साफ़ उल्लेख है इसके बाद बांग्लादेश से आए किसी भी व्यक्ति को असम से वापस जाना होगा, चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान। अवैध तरीके से रहने वाले बांग्लादेशी नागरिकों को चिन्हित करने और फिर उन्हें वापिस भेजने यानी डिटेक्शन एंड डीपोर्टेशन" (पहचान और निर्वासन) पर बात बनी।
2015 तक शिकायतों के बढ़ते ही इन ट्राइब्यूनल्स की संख्या 100 तक पहुंच गई। 2015 के असम चुनावों में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा। सर्बानंद सोनोवाल ने चुनाव प्रचार के दौरान अवैध नागरिकों के मसले को सख्ती से निपटाने का वायदा भी किया था।
अजमल का मामला
दरअसल, इस नोटिस में अजमल की भारत में एंट्री 1971 के बाद बताई गई है। वो दौर बांग्लादेश में राजनीतिक और सामाजिक उथल पुथल का था। जबकि अज़मल के मुताबिक उनके पिता भारतीय नागरिक थे। जिनका नाम 1966 की वोटर लिस्ट में भी था और 1961-62 में कराए गए ग्रामीण सर्वेक्षण में भी अंकित था। हक के मुताबिक 1963 का खेराज पट्टा भी उनके नाम है। उनकी मां रहीमन निसां का नाम 1951 के राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (NCR) में भी दर्ज है।