वाह रे बाजार, बाजार में बैठा बनिया, बनिये की मुट्ठी में बंद अपने देश का नेता और योजनाकार
अमरेन्द्र किशोर
पहाड़िया इलाकों में कहर बरपाते मोबाइल टावर की कहानी सुनिया की जुबानी
पहाड़िया समाज की आबादी लगातार सिमट रही है। यहां के फलदार वृक्षों को जिओ के मोबाइल टावर बांझ बना रहे हैं। परम्परावादी पहाड़िया जिन पहाड़ों पर बसते हैं, उसी पहाड़ी के नीचे संताल लोगों की बस्तियां हैं। सच कहें तो पहाड़िया इलाकों का विकास स्थानीय आबादी के मनोनुकूल नहीं बल्कि वातानुकूलित चैम्बर्स में पनपे विचारों का नतीजा है। ठेकेदारों के घोटालिया रवैये से विकास का अस्थि पंजर ही पहाड़िया समाज की नियति है।
झारखंड के अमड़ापाड़ा में 55 साल की सुनिया से मुलाक़ात हुई। अपनी तीन पीढ़ियों को देख चुकी है। गांव में कई महामारी का कहर झेला है और मलेरिया-डायरिया से लेकर कालाजार तक से लड़कर उम्र के इस पड़ाव तक पहुंच सकीं हैं। अपने इलाके के पुराने दिनों और अपने समाज की परम्परागत जीवन शैली को याद करती हैं। कहती हैं- तब दो जून का भोजन भी नसीब नहीं था। जंगलों से जुटाए कंद-मूल-फल के अलावा खेतों में उपजाया मक्का, मड़ुआ और बाजरा उपजाकर पेट भरते थे। मौसम की मार खेती पर पड़ती थी तो हफ्ते में दो या तीन बार भोजन नसीब होता था। पानी के लिए झरनों और चुओं पर निर्भरता होती थी।
हाल के 20 सालों में इलाके की तस्वीर बदली। राज्य बनने के बाद जनवादी विकास आया। सड़क तो तभी अस्तित्व में आ चुका था जब नेहरू का फेबियनवाद ब्लॉक का कॉन्सेप्ट प्रसारित और प्रचारित हुआ था। सरकार ने जाना कि पहाड़िया लोगों की आबादी सिमट रही है जैसे जंगलों का दायरा सिकुड़ रहा है। लिट्टीपाड़ा जिला मुख्यालय से महज 29 किलोमीटर दूर है तो वहां तक विकास आया। बाबूलाल मरांडी गांव-गांव घूमने वाले एक ज़मीनी नेता रहे हैं। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की पहुंच जिले के सभी छह ब्लॉक्स तक जा पहुंची। लेकिन सत्ता से मरांडी का दूर जाना बदनसीबी लेकर आया। पहाड़िया इलाके की बढ़ती गति जैसे थम सी गई।
आज पहाड़िया सरकारी चावल खा रहे हैं। विकास इनके आगे वायदों का पुलिंदा है, चाहे सरकार किसी की हो। इन्हें देखने न इनका विधायक आता है और न ही इनका सांसद। एनजीओ ने विकास का अजीबोगरीब ताना-बाना बुनकर विकास को कागजों पर रूहानी रुबाइयों का मुशायरा बना दिया-- नाम बड़े और दर्शन छोटे। कागजों पर विकास सज गया। धीरूभाई अम्बानी साहब ने सूचना को सबसे बड़ी ताक़त बताया था और उसी ताक़त के रथवानों के आगे सरकार ने घुटने टेक दिए। लिहाजा इलाकों में मोबाइल टावर खोंसने का सिलसिला चल निकला।
पहाड़िया इलाके में ढंग का भोजन नहीं, मगर अंकल चिप्स के बैलूनी पैकेट बिकते दिखते हैं। जहां चुओं के पानी पीकर आदिवासी जल संक्रमण के शिकार हो रहे हैं, वहां कोक के बोतल बिकते हैं। गांवों तक जाने का रास्ता अभी तय होना बाकी है। विद्यालयों में शिक्षक नहीं, मध्याह्न भोजन नहीं और आशा वर्कर नहीं-- लेकिन लोग जिओ के नेट पैक की बात करते दिख जाते हैं। वाह रे बाजार, बाजार में बैठा बनिया और बनिये की मुट्ठी में अपने नेता और योजनाकार। सुनिया कहती हैं कि 'इस मोबाइल टॉवर से पपीता के पौधे बांझ हो जाते हैं। ऊंचाई खूब होती है, लेकिन फल नहीं आता।' सच में, पौधे तो हैं फल नहीं। आदिवासियों ने फल हासिल करने की अपेक्षा सरकार से कभी की होगी-- आज नहीं। पहाड़िया इस सच को भी जानते हैं और अपने समाज की नियति को भी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जन सरोकार से जुड़े मुद्दों के विशेषज्ञ हैं।)