विवादों के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने इच्छा मृत्यु को दी सशर्त मंजूरी
सत्ता विमर्श ब्यूरो
नई दिल्ली: सम्मान की मौत की खातिर अगर कोई इच्छा मृत्यु चाहता है तो उसे इसकी इजाजत दी जा सकती है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को सशर्त मंजूरी दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक व्यक्ति को 'सम्मान के साथ मरने का अधिकार' है और अगर व्यक्ति डॉक्टरों के अनुसार लाइलाज बीमारी से ग्रस्त है तो वह पहले से जीवन रक्षक प्रणाली हटाने का प्रावधान कर अपनी मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) बना सकता है। हालांकि इस बारे में दिशानिर्देश काफी सख्त हैं। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने इस पर फैसला सुनाया। इस फैसले को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया सामने आ रही है। केरल कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस (KCBC) ने इस पर ऐतराज जताते हुए कहा है कि इस फैसले के बाद लोग इसका गलत इस्तेमाल भी कर सकते हैं।
लिविंग विल में एक व्यक्ति पहले यह बता सकता है कि उसके जीवन को वेंटिलेटर या कृत्रिम रक्षक प्रणाली के सहारे आगे नहीं बढ़ाया जाए। पीठ में शामिल न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी, न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अशोक भूषण ने दिशानिर्देश जारी किए जिसमें यह बताया गया कि कौन इस 'वसीयत' को लागू कर सकता है। किस हाल में और कब मेडिकल टीम पैसिव यूथेनेसिया की इजाजत देगा। 'सम्मान से मरने के अधिकार' को मान्यता देते हुए अदालत ने व्यक्ति को लाइलाज बीमारी की स्थिति में पहुंच जाने की शर्त के साथ पहले से लिविंग विल बनाने की इजाजत दी।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, किसी व्यक्ति को जीवन को सम्मान पूर्वक समाप्त करने के अधिकार से वंचित करना, उसके सार्थक अस्तित्व को नकारना होगा। शीर्ष अदालत ने कहा कि जीवन रक्षक प्रणाली तभी हटाई जा सकेगी जब वैधानिक मेडिकल बोर्ड यह घोषित करेगा कि रोग लाइलाज है। शीर्ष अदालत ने कहा कि इसके लिए दिशानिर्देश तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक इस पर कोई कानून नहीं आ जाता। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, जीवन और मृत्यु अभिन्न हैं। शरीर में हमेशा बदलाव होता है लेकिन दिमाग स्थिर रहता है... मृत्यु, जिंदगी की पराकाष्ठा है...स्वतंत्रता, आजादी सार्थक जीवन का केंद्रबिदु हैं। अदालत ने इस संबंध में चार अलग-अलग लेकिन एक जैसे निर्णय सुनाए।
शीर्ष अदालत ने यह फैसला इस संबंध में वर्ष 2005 में एक एनजीओ कॉमन कॉज की ओर से दाखिल याचिका पर दिया । याचिका में कहा गया था कि लाइलाज बीमारी से पीड़ितों को 'लिविंग विल' बनाने का और लाइलाज बीमारी की स्थिति में जीवन रक्षक सिस्टम हटाने का अधिकार मिलना चाहिए। एनजीओ की तरफ से पेश वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि कोमा में पड़ा व्यक्ति अपनी इच्छा जाहिर नहीं कर सकता, इसलिए कानून को उसे पहले ही यह वसीयत लिखने का अधिकार देना चाहिए कि उसे अंतिम समय आने पर प्रताड़ित न किया जाए।
KCBC का तर्क
केसीबीसी के पादरियों ने इसके मानवीय पहलू को अहम माना है। इनके मुताबिक यह फैसला बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है। जीवन-मृत्यु की डोर ईश्वर के हाथ में है। जो भी मानवता में यकीन रखता है भला वो कैसे किसी बुजुर्ग, बीमार शख्स को मार पाएगा। इस निर्णय के परिणाम बेहद विध्वंसक हो सकते हैं। लोग इसका बेजा इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसे फैसले से बीमारों के प्रति लोगों का नजरिया बेहद उदासीन हो जाएगा। धर्म गुरुओं ने इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ माना है।