इंदिरा के हर फैसले को शिद्दत से जीता था भारत
किरण राय
जीवन को बेहतर बनाने के लिए भरोसे और विश्वास से बढ़ कर कुछ नहीं होता और आजाद भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी इसी भरोसे और विश्वास का नाम थी। यही वजह थी कि पूरा देश अपनी पीएम के हर फैसले को महसूस करता था और उसे पूरी शिद्दत से जीता भी था। इंदिरा ने जो कहा, जैसे कहा, जिस वक्त भी कहा भारत ने उस पर मुहर लगाई। साहस और हिम्मत की मूरत को भारत ने स्वीकारा। राजनीतिज्ञ के तौर पर, एक पीएम के तौर पर और एक महिला के तौर पर इंदिरा ने वो कर दिखाया जिसे करने की हिम्मत बहुतों में नहीं होती, तभी तो उनके विरोधियों ने भी गूंगी गुड़िया के लौह महिला बनने के पल को सेलिब्रेट किया। आज क्या किसी शख्स में हैं इंदिरा जैसा जिगरा और अपने ही फैसलों पर डटे रहने का जज्बा?
गजब का आत्म विश्वास
1974 में भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न देश की श्रेणी में खड़ा करना हो, 1967 में अपनी ही पार्टी तोड़कर कांग्रेस-आर (रिक्विसिशनिस्ट) और कांग्रेस-ओ (आर्गेनाइजेशन) बना कर अपनी सत्ता को मजबूत करना हो, 1971 में पाकिस्तान को धूल चटाकर बांग्लादेश का निर्माण कराना हो या फिर भिंडरावाले के खिलाफ जून 1984 में ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार हो, इंदिरा ने जो कहा और जैसे कहा उस पर अडिग रही। उनके लोग, विपक्ष हाहाकार मचाता रहा लेकिन वो हथिनी की तरह अपनी राह पर चलती रहीं। 1975 से जनवरी 1977 के बीच देश में आपातकाल लगाया गया। 18 महीने की इमरजेंसी के फैसले को भी बहुतों ने नकारा, जेल भी गईं विरोधियों ने कहा कि खत्म हो गई इंदिरा। लेकिन फिनिक्स की तरह अपनी ही राख से उभरीं और पूरे दम खम के साथ सत्ता पर काबिज हुईं।
अमेरिका को नहीं दी तरजीह
ये हैरानी की ही बात है कि जिस अमेरिका से भारत को 1950 और 1980 के दौरान लाखों डॉलर की सहायता मिली, उसी अमेरिका को इंदिरा ने आंख दिखाने में गुरेज नहीं की। इंदिरा मानती थीं और कहती थीं- देश की ताकत इसमें हैं कि वो खुद क्या करता है इसमें नहीं कि वो दूसरे से क्या उधार लेता है। इसलिए उनकी विदेश नीति भारत के हित को ध्यान में रखकर तय की जाती थी। वो गुटनिरपेक्ष देशों के साथ खड़ी दिखती थीं, हालांकि उनके आलोचक मानते हैं कि उनका खास झुकाव रूस की तरफ रहा जिसकी वजह से अफगानिस्तान पर सोवियत संघ की सैन्य कार्रवाई को मूक समर्थन मिला। इससे ये भी हुआ कि सोवियत संघ ने हमारे देश की सेना को बेहतर किया। सेना मजबूत हुई, नए और आधुनिक हथियारों से लैस हुई।
बांग्लादेश के खिलाफ वर्ष 1971 के युद्ध के दौरान उन्होंने दुनिया की दो महाशक्तियों को जिस तरह आमने सामने खड़ा करके सैन्य कार्रवाई करके बांग्लादेश को आजादी दिलाई, वैसा शायद दूसरा कोई प्रधानमंत्री कर पाता। वर्ष 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान में दमन काफी बढ़ गया। असर भारत और यहां के लोगों पर पड़ने लगा, तब कार्रवाई जरूरी हो गई थी। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इंदिरा को युद्ध के लिए रोकने का अथक प्रयास किया अमेरिका ने अपने सातवें बेडे को हिन्द महासागर में पहुंचने का आर्डर मिला। तो सोवियत संघ तुरंत सामने आकर खड़ा हो गया। भारत ने संघर्ष विराम तो किया लेकिन 17 दिसंबर को तब जबकि पाकिस्तान की हार के बाद भारतीय फौजों ने ढाका में फ्लैग मार्च किया।
दिलचस्प है निक्सन और इंदिरा की मुलाकात
बात बांग्लादेश की आजादी से संबंधित है। 1971 में जब ऐसा लगने लगा कि भारत पूर्वी पाकिस्तान में कोई सैन्य कार्रवाई करके पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट देगा, तभी इंदिरा गांधी नवंबर महीने में अमेरिका पहुंची। इंदिरा ने पूरी मुलाकात में कुछ ऐसा ठंडा रुख अख्तियार कर लिया, मानो उन्हें अमेरिका का राष्ट्रपति निक्सन की कोई परवाह ही नहीं हो। निक्सन ने चेतावनी दी, ''अगर भारत ने पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य कार्रवाई की हिम्मत की तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे। भारत को पछताना होगा।'' किसी और देश के लिए ये चेतावनी पसीने पसीने कर देने वाली होती लेकिन इंदिरा फिर इंदिरा थीं। उन्होंने निक्सन के साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा कोई समान पद वाला करता है। इंदिरा न केवल गर्वीली थीं बल्कि सम्मान से कोई समझौता नहीं करने वाली।
भारत के युद्धघोष के बाद कुंठित निक्सन ने चीन से संपर्क साधा कि क्या वह भारत के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है, चीन तैयार नहीं हुआ, क्योंकि उसे भी लगता था कि पूर्वी पाकिस्तान की स्वतंत्रता ही एकमात्र हल है। अब सीधे इंदिरा पर संघर्ष विराम का दबाव डाला गया। दो-टूक जवाब मिला-नहीं ऐसा नहीं हो सकता।
जुमलेबाजी पर भी जनता फनां
इंदिरा गांधी के शब्द लोगों के दिल में घर बना लेते थे। वो आम लोगों से उन्हीं के अंदाज में बात करती थीं। जहां जातीं वहां के परिवेश और संस्कृति के हिसाब से ढल जाती थीं लोगों को यही अपील करता था और आज भी हमारे बड़े नेता उनके कदमों पर चलते हैं लेकिन वो इंदिरा थी जिसके हर अंदाज पर जनता फनां होती थी। तुरंत बिफरती नहीं थी, इंतजार करती थी क्योंकि उनके इंदिरा भरोसेमंद थी।
बात, 1971 में खुद को मजबूत करने के लिए अपने कुछ तेजतर्रार सलाहकारों से मंत्रणा के बाद उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा उछाला। बैंको के राष्ट्रीयकरण और प्रीवी पर्स को खत्म करने के फैसले लेकर पहले ही इंदिरा गरीबों की हमदर्द बन गई थीं, इसलिए आम लोगों को ‘गरीबी हटाओ’ के नारे में सच हो सकने वाला एक और सपना सामने दिखने लगा। इंदिरा गांधी ने 1971 के चुनाव में इस नारे को जमकर भुनाया। यही नारा, बड़ा मुद्दा बना गया। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने जनसभाओं में आमजन की हमदर्दी बटोरी, ‘वो कहते हैं इंदिरा हटाओ, हम कहते हैं गरीबी हटाओ’। इंदिरा गांधी के समर्थन में एक और नारा गढ़ा गया— ‘जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर मुहर लगेगी हाथ पर’। विरोधियों ने गरीबी हटाओ के नारे के जवाब में नारा दिया: ‘देखो इंदिरा का ये खेल, खा गई राशन, पी गई तेल’। लेकिन वह काम नहीं आया।
गरीबी हटाओ एक प्रेरणादायी नारा था। इसने कांग्रेस (आर) को सबसे अलग खड़ा कर दिया। इसने अपनी छवि प्रतिक्रियावादी गठबंधन के खिलाफ एक प्रगतिशील पार्टी के रूप में पेश की। विपक्ष के लिए चुनाव को व्यक्ति केन्द्रित बनाना भारी पड़ गया। इंदिरा ने अपनी पार्टी को वोट दिलाने के लिए दिन-रात मेहनत की। दिसम्बर 1970 के आखिरी हफ्ते में संसद भंग होने और दस हफ्ते बाद हुए चुनाव के बीच, इंदिरा गांधी ने लगभग 58 हजार किलोमीटर का दौरा किया। उन्होंने 300 सभाओं को सम्बोधित किया। लगभग दो करोड़ लोगों ने उन्हें देखा और सुना। खास बात ये रही कि इंदिरा
अपने फैसले पर संदेह नहीं किया
इंदिरा जब कहती हैं कि-मेरे पिता राजनेता थे पर मैं एक राजनीतिज्ञ हूं वो संत थे मैं नहीं हूं, तो उनकी साफगोई से साक्षात्कार होता है। चाहें विदेश नीति हो या फिर देश तक अपनी बात पहुंचानी हो इंदिरा अपनी बात पूरी निडरता, धैर्य और स्पष्टता के साथ रखती रहीं। वो अपनी शख्सियत के हर पहलू को लोगों के सामने जाहिर करती थीं। हिचकती नहीं थी बताने में कि वो क्या हैं और कैसी हैं। जरूरत पड़ने पर घाघ राजनीतिज्ञ की तरह मीडिया के सवालों को सरलता से टाल जाती थीं। इन्टरव्यूह के दौरान जब उन्हें किसी सवाल का जवाब नहीं देना होता था तो वो चुप्पी साध लेती थीं या फिर इधर-उधर देखने लगती थीं।
इंदिरा कभी अपना गुस्सा जाहिर करने से बचती नहीं थीं। एक बार जब उनसे एक संवाददाता ने भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर उनकी नीति पर सवाल खड़े किए तो उनका गुस्सा फूट गया और उन्होंने कहा कि दुनिया कि ऐसी अर्थव्यवस्था है जो संकट में तो है लेकिन धराशायी नहीं हो रही है। क्या आपको लगता है कि भारत जैसे विभिन्नता सम्पन्न देश को एकजुट रखना आसान है? आप कहते हैं कि मैंने अपने वायदों को पूरा नहीं किया मैं पूछती हूं की दुनिया में कौन अपने वायदे पूरा कर पाता है? भले इंदिरा के नतीजों पर सवाल उठते रहें हों लेकिन इंदिरा ने कभी अपने निर्णयों पर संदेह नहीं किया। व्यक्तिगत जिन्दगी को लेकर किए गए सवाल से वो बचती रहीं और कहती रहीं कि किसी भी पद पर रहने के नफे और नुकसान के लिए आपको तैयार रहना चाहिए।
कुल मिलाकर इंदिरा अपने नाम को सार्थक कर गईं। ये नाम है उस शख्सियत का जिसने सत्ता को भोगने से ज्यादा, उसका सुख लेने से ज्यादा उसको जीया। देश की राजनीति को खूबसूरती से सजाया और संवारा। यही वजह है कि उनके जाने के इतने साल बाद भी भारत उनके हर एक पहलू को समझने की कोशिश करता है। उनकी आलोचना करता है, उनकी नीतियों को भला-बुरा बताता है और फिर उनकी आयरन लेडी वाली छवि के समक्ष नतमस्तक भी होता है।