भारतीय संसद : लोकतंत्र का मंदिर
हमारे देश की राजनीतिक व्यस्था को या सरकार जिस प्रकार बनती और चलती है, उसे संसदीय लोकतंत्र कहा जाता है। भारत के लिए लोकतंत्र कोई नई बात नहीं है। संसार का सबसे पुराना गणतंत्र भारत में ही जन्मा और पनपा। संसद पुराने संस्कृत साहित्य का शब्द है। पुराने समय में राजा को सलाह देने वाली सभा ‘संसद’ कहलाती थी। राजा ‘संसद’ की सलाह को ठुकरा नहीं सकता था। बौद्ध सभाओं में संसदीय प्रक्रिया संबंधी नियम आज की संसद के नियमों से बहुत हद तक मिलते-जुलते थे। खुली बातचीत, बहुमत का फैसला, उच्च पदों के लिए चुनाव, वोट डालना, समितियों द्वारा विचार विमर्श आदि से हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं हजारों साल पहले से परिचित रही है।
संसार के सबसे पुराने ग्रंथ ऋग्वेद में ‘सभा’ और ‘समिति’ के बारे में लिखा हुआ है। ‘समिति’ एक आम सभा या लोक सभा की तरह हुआ करती थी। ‘सभा’ कुछ छोटी और चुने हुए बड़े लोगों की संस्था होती थी। उसकी तुलना आज की राज्यसभा या विधान परिषदों से की जा सकती है। ग्राम-पंचायतें हमारे जन-जीवन का अभिन्न अंग रही है। पुराने समय में गांवों की पंचायत चुनाव से गठित की जाती थी। उसे न्याय और व्यवस्था, दोनों ही क्षेत्रों में काफी अधिकार मिले हुए थे। पंचायतों के सदस्यों का राजदरबार में बड़ा आदर होता था। यही पंचायतें भूमि का बंटवारा करती थीं। कर वसूलती थीं। गांव की ओर से सरकार कर का हिस्सा देती थी। कहीं-कहीं कई ग्राम-पंचायतों के ऊपर एक बड़ी पंचायत भी होती थी। यह उन पर निगरानी और नियंत्रण रखती थी।
कुछ पुराने शिलालेख यह भी बताते हैं कि ग्राम-पंचायतों के सदस्य किस प्रकार चुने जाते थे। सदस्य बनने के लिए जरूरी गुणों और चुनावों में महिलाओं की भागीदारी के नियम भी इस पर लिखे थे। अच्छा आचरण न करने पर अथवा राजकीय धन का ठीक-ठीक हिसाब नहीं रख पाने पर कोई भी सदस्य पद से हटाया जा सकता था। पदों पर किसी भी सदस्य का कोई निकट-संबंधी नियुक्त नहीं किया जा सकता था। मध्य युग में आकर संसद सभा और समिति जैसी संस्थाएं गायब हो गईं। ऊपर के स्तर पर लोकतंत्रात्मक संस्थाओं का विकास रूक गया। सैकड़ों वर्षों तक हम आपसी लड़ाइयों में उलझे रहे। विदेशियों के आक्रमण पर आक्रमण होते रहे। सेनाएं हारती-जीतती रहीं। शासक बदलते रहे। हम विदेशी शासन की गुलामी में भी जकड़े रहे। सिंध से असम तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पंचायत संस्थाएं बराबर चलती रहीं। ये प्रादेशिक जनपद परिषद् नगर परिषद, पौर सभा, ग्राम सभा, ग्राम संघ जैसे अलग नामों से पुकारी जाती रहीं। सच में ये पंचायतें ही गांवों की ‘संसद’ थीं।
सन् 1853 के चार्टर अधिनियम में पहली बार एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़े। 1853 के अंतिम चार्टर अधिनियम के द्वारा विधायी पार्षद शब्दों का प्रयोग किया गया। यह नयी परिषद शिकायतों की जांच करने वाली और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करने वाली सभा जैसा रूप धारण करने लगी। 1857 की क्रांति के लिए पहली लड़ाई के बाद 1861 का भारतीय परिषद अधिनियम बना। इस अधिनियम को ‘भारतीय विधानमंडल का प्रमुख घोषणा पत्र’ कहा गया। जिसके द्वारा ‘भारत में विधायी अधिकारों के अंतरण की प्रणाली’ का उद्घाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय स्तरों पर विधान बनाने की व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अंग्रेजी राज के भारत में जमने के बाद पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी लोगों के रखने की बात को माना गया।
इस बीच 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। कांग्रेस ने शुरू से ही अपने सार्वजनिक जीवन का मुख्य आधार यह बनाया कि देश में धीरे-धीरे प्रतिनिधि संस्थाएं बनें। कांग्रेस का विचार था परिषद में सुधार से ही दूसरी सभी व्यवस्थाओं में सुधार हो सकता है। ब्रिटिश संसद ने ‘विधान परिषदों में भारत की जनता को वास्तव में प्रतिनिधित्व देने’ के लिए इंडियन परिषद अधिनियम 1892 को स्वीकार किया। इसे कांग्रेस की विजय माना गया। कांग्रेस ने जो सतत अभियान चलाया उसके कारण इस अधिनियम में कई सुधार हुए। 1919 में सुधार अधिनियम और उसके अधीन कई नियम बनाए गए। जिनके कारण केंद्र में, भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्सदनीय विधानमंडल बनाया गया जिसमें एक थी राज्य परिषद और दूसरी थी विधान सभा। प्रत्येक सदन में अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता था। पहली विधान सभा वर्ष 1921 में गठित हुई थी। उसके कुल 145 सदस्य थे। 104 निर्वाचित, 26 सरकारी सदस्य और 15 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य।
पहली बार विधान बनाने में और सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में जन-प्रतिनिधियों की आवाज सुनी गई। इसने देश के राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करने में भी महान भूमिका अदा की। 1923 में, देशबंधु चितरंजन दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी बनाई। इसकी नीति थी कि चुनाव लड़ें और व्यवस्था को बदलें। वे सोचते थे कि ‘शत्रु के कैंप’ में घुसकर व्यवस्था को तोड़ने के लिए परिषदों में स्थान बनाया जाए। स्वराज पार्टी को 1923 के चुनावों में बहुत सफलता मिली। स्वराज पार्टी ने 145 स्थानों में से 45 स्थान जीते। पार्टी केंद्रीय विधानमंडल में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। मौलाना आजाद के अनुसार पार्टी की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि वह उन स्थानों पर भी जीत गई जो मुसलमानों के लिए आरक्षित थे। कुछ निर्दलीय सदस्यों तथा पंडित मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व वाली नेशनल पार्टी ने उन्हें समर्थन दिया। इस प्रकार पूर्ण बहुमत मिल गया।
मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में स्वराजवादियों ने राष्ट्रीय महत्व के अनेक प्रस्तावों पर सरकार को पराजित किया। बजट तथा अनेक विधायी उपायों के पास होने में बार-बार रूकावटें डालीं। अनेक बार सदन से बहिर्गमन अथवा वाक आउट किये। स्वराजवादियों की कोशिशों के चलते 1924 और 1925 में राष्ट्रीय मांग संबंधी संकल्प भारी बहुमत से पास हुए। केंद्रीय विधान सभा का पहला अध्यक्ष सर फ्रेडरिक व्हाइट को मनोनीत किया गया था। परंतु अगस्त, 1925 में विटठलभाई पटेल को चुना गया और वे सभा के पहले गैर-सरकारी अध्यक्ष बने। 1935 के भारत सरकार अधिनियम में भारत में एक परिसंघीय ढांचे की व्यवस्था रखी गई।
अधिनियम में कहा गया था कि संघीय विधानमंडल में गवर्नर-जनरल तथा दो सदन होगें। जिन्हें क्रमशः कौंसिल ऑफ स्टेट (ऊपरी सदन) तथा हाउस आफ असेम्बली (निम्न सदन) कहा जाएगा। कौंसिल में ब्रिटिश इंडिया के 156 प्रतिनिधि और भारतीय रियासतों के अधिकतम 104 प्रतिनिधि होंगे। निम्न सदन में ब्रिटिश इंडिया के 250 प्रतिनिधि तथा भारतीय रियासतों के अधिकतम 125 प्रतिनिधि होंगे। ऊपरी सदन एक स्थायी निकाय होगा जिसे भंग नहीं किया जा सकेगा। परंतु उसके एक-तिहाई सदस्य हर तीसरे साल सेवानिवृत हो जाएंगे। प्रत्येक संघीय असेम्बली, पांच वर्षों तक कार्य करेगी। अधिनियम में ऊपरी सदन के लिए प्रत्यक्ष चुनाव का और निम्न सदन के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव का तरीका अपनाया गया था। 1935 के अधिनियम का संघीय भाग कभी लागू नहीं हुआ। क्योंकि रियासतों को संघ में शामिल होने के लिए तैयार नहीं किया जा सका था।
केंद्रीय विधान सभा के नए चुनाव, 1915 के आखिरी तीन महीनों में हुए। कांग्रेस ने वह चुनाव 1942 के अपने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव को लेकर लड़े। चुनावों में कांग्रेस को 102 में से 56 सीटें मिलीं। कांग्रेस विधायक दल के नेता शरत चन्द्र बोस थे। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अधीन कुछ परिवर्तन हुए। 1935 के अधिनियम के वे उपबंध काम के नहीं रह गए जिनके तहत गवर्नर-जनरल या गवर्नर अपने विवेकाधिकार के अनुसार अथवा अपने व्यक्तिगत विचार के अनुसार कार्य कर सकता था। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 में भारत की संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न निकाय घोषित किया गया। 14-15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को उस सभा ने देश का शासन चलाने की पूर्ण शक्तियां ग्रहण कर लीं। अधिनियम की धारा 8 के द्वारा संविधान सभा को पूर्ण विधायी शक्ति प्राप्त हो गई। किंतु साथ ही यह अनुभव किया गया कि संविधान सभा के संविधान-निर्माण के कार्य तथा विधानमंडल के रूप में इसके साधारण कार्य में भेद बनाए रखना जरूरी होगा।
संविधान सभा (विधायी) की एक अलग निकाय के रूप में पहली बैठक 17 नवंबर 1947 को हुई। इसके अध्यक्ष सभा के प्रधान डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे। संविधान अध्यक्ष पद के लिए केवल जी.वी. मावलंकर का एक ही नाम प्राप्त हुआ था। इसलिए उन्हें विधिवत चुना हुआ घोषित किया गया। 14 नवंबर 1948 को संविधान का प्रारूप संविधान सभा में प्रारूप समिति के सभापति बी.आर. आम्बेडकर ने पेश किया। प्रस्ताव के पक्ष में बहुमत था। 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत के गणराज्य का संविधान लागू हो गया। इसके कारण आधुनिक संस्थागत ढांचे और उसकी अन्य सब शाखा-प्रशाखाओं सहित पूर्ण संसदीय प्रणाली स्थापित हो गई। संविधान सभा भारत की अस्थायी संसद बन गई। वयस्क मताधिकार के आधार पर पहले आम चुनावों के बाद नए संविधान के उपबंधों के अनुसार संसद का गठन होने तक इसी प्रकार कार्य करती रही।
नए संविधान के तहत पहले आम चुनाव वर्ष 1951-52 में हुए। पहली चुनी हुई संसद जिसके दो सदन थे, राज्य सभा और लोकसभा मई, 1952 में बनी। दूसरी लोक सभा मई, 1957 में बनी। तीसरी अप्रैल 1962 में; चौथी मार्च 1967 में; पांचवी मार्च 1971 में; छठी मार्च 1977 में; सातवीं जनवरी, 1980 में; आठवीं जनवरी 1985 में; नवीं दिसंबर 1989 में, दसवीं जून 1991 में; ग्यारहवीं 1996 में; बारहवीं तेरहवीं चौदहवीं पंद्रहवीं और सोलहवीं मई 2014 में बनीं। 1952 में पहली बार गठित राज्य सभा एक निरंतर रहने वाला, स्थायी सदन है जिसका कभी विघटन नहीं होता। हर दो वर्ष इसके एक-तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं।
संसद की भूमिका
भारतीय लोकतंत्र में संसद जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। इसी के माध्यम से आम लोगों की संप्रभुता को अभिव्यक्ति मिलती है। संसद ही इस बात का प्रमाण है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में जनता सबसे ऊपर है, जनमत सर्वोपरि है। ‘संसदीय’ शब्द का अर्थ ही ऐसी लोकतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था है जहां सर्वोच्च शक्ति लोगों के प्रतिनिधियों के उस निकाय में निहित है जिसे ‘संसद’ कहते हैं। भारत के संविधान के अधीन संघीय विधानमंडल को ‘संसद’ कहा जाता है। यह वह धुरी है, जो देश के शासन की नींव है। भारतीय संसद राष्ट्रपति और दो सदनों राज्य सभा तथा लोकसभा से मिलकर बनती है।
राष्ट्रपति : वैसे तो भारत का राष्ट्रपति संसद का अंग होता है। फिर भी वह दोनों में से किसी भी सदन में न बैठता है और न ही उसकी चर्चाओं में भाग लेता है। राष्ट्रपति समय-समय पर संसद के दोनों सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करता है। दोनों सदनों द्वारा पास किया गया कोई विधेयक तभी कानून बन सकता है जब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति प्रदान कर दें। इतना ही नहीं, जब संसद के दोनों सदनों का अधिवेशन नहीं चल रहा हो और राष्ट्रपति को महसूस हो कि इन परिस्थितियों में तुरंत कार्यवाही जरूरी है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है। इस अध्यादेश की शक्ति एवं प्रभाव वही होता है जो संसद द्वारा पारित कानून का होता है। लोकसभा के लिए प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात अधिवेशन के शुरू में और हर साल के पहले अधिवेशन के प्रारंभ में राष्ट्रपति एक साथ संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हैं। इसे राष्ट्रपति का अभिभाषण भी कहा जाता है। वह सदनों की बैठक बुलाने के कारणों की संसद को जानकारी देते हैं।
राज्य सभा : जैसा कि इसके नाम से पता चलता है, राज्य सभा राज्यों की परिषद है। यह अप्रत्यक्ष रीति से लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। राज्य सभा के सदस्य का चुनाव राज्य विधान सभाओं के चुने हुए विधायक करते हैं। प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादातर उसकी जनसंख्या पर निर्भर करती है। इस प्रकार, उत्तर प्रदेश के राज्य सभा में 34 सदस्य हैं। मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा आदि जैसे छोटे राज्यों का केवल एक-एक सदस्य है। राज्य सभा में 250 तक सदस्य हो सकते हैं। इनमें राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 12 सदस्य तथा 238 राज्यों और संघ-राज्य क्षेत्रों द्वारा चुने सदस्य होते हैं। इस समय राज्य सभा के 245 सदस्य हैं। राज्य सभा के प्रत्येक सदस्य की कार्यावधि छह वर्ष है। उपराष्ट्रपति, संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं। वह राज्य सभा के पदेन सभापति होते हैं। उपसभापति पद के लिए राज्य सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से किसी एक सदस्य को चुना जाता है। राज्य सभा में स्थान भरने के लिए राष्ट्रपति, चुनाव आयोग द्वारा सुझाई गई तारीख को अधिसूचना जारी करते हैं। चुनाव अधिकारी, चुनाव आयोग के अनुमोदन से मतदान का स्थान निर्धारित और अधिसूचित करते हैं।
लोक सभा : लोक सभा के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा सीधे वोट डालकर किया जाता है। 18 साल और उससे अधिक आयु का कोई भी भारतीय नागरिक मतदान करने का हकदार होता है। लोक सभा के अधिकतम 543 सदस्य राज्यों से चुनाव क्षेत्रों की प्रत्यक्ष रीति से चुने जाते हैं। इसमें अधिकतम 20 सदस्य संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए दो से अधिक सदस्य मनोनीत कर सकते हैं। इस प्रकार सदन की अधिकतम सदस्य संख्या 545 हो, ऐसी संविधान में परिकल्पना की गई है। लोक सभा में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए जनसंख्या-अनुपात के आधार पर स्थान आरक्षित है। आरंभ में यह आरक्षण दस वर्ष के लिए था। भारत में सदन की कार्यावधि पांच वर्षों की है। पांच वर्षों की अवधि समाप्त हो जाने पर सदन खुद भंग हो जाता है। कुछ परिस्थतियों में संसद को पूर्ण कार्यावधि समाप्त होने से पहले ही भंग किया जा सकता है। आपातकाल की स्थति में संसद लोक सभा की कार्यावधि बढ़ा सकती है। यह एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं हो सकती।
संसद के दोनों सदनों को, कुछ मामलों को छोड़कर सभी क्षेत्रों में समान शक्तियां एवं दर्जा प्राप्त है। कोई भी गैर-वित्तीय विधेयक अधिनियम बनने से पहले दोनों में से प्रत्येक सदन द्वारा पास किया जाना आवश्यक होता। राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने, उपराष्ट्रपति को हटाने, संविधान में संशोधन करने और उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने जैसे महत्वपूर्ण मामलों में राज्य सभा को लोक सभा के समान शक्तियां प्राप्त हैं। राष्ट्रपति के अध्यादेशों, आपातकाल की उद्घोषणा और किसी राज्य में संवैधानिक व्यवस्था के विफल हो जाने की उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना अनिवार्य है। किसी धन विधेयक और संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर अन्य किसी भी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच असहमति को दोनों सदनों द्वारा संयुक्त बैठक में दूर किया जाता है। इस बैठक में मामले बहुमत द्वारा तय किए जाते हैं। दोनों सदनों की ऐसी बैठक का पीठासीन अधिकारी लोकसभा का अध्यक्ष होता है।
हमारे देश में प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद दोनों सदनों में से किसी भी एक का सदस्य हो सकते हैं। किसी ऐसे व्यक्ति को भी प्रधानमंत्री या मंत्री नियुक्त किया जा सकता है जो संसद के किसी भी सदन का सदस्य न हो, परंतु उसे छह माह के पश्चात् पद छोड़ना पड़ता है, यदि इस बीच वह दोनों में से किसी एक सदन के लिए निर्वाचित न हो जाए। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होता है। इसलिए उसके लिए यह जरूरी है कि वह लोक सभा का विश्वास खोते ही पद-त्याग दे। संसद स्वयं शासन नहीं करती और न ही कर सकती है। मंत्रिपरिषद के बारे में एक तरह से कहा जा सकता है कि यह संसद की महान कार्यपालिका समिति होती है। इसे मूल निकाय की ओर से शासन करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। संसद का कार्य विधान बनाना, मंत्रणा देना, आलोचना करना और लोगों की शिकायतों को व्यक्त करना है। कार्यपालिका का कार्य शासन करना है, यद्यपि वह संसद की ओर से ही शासन करती है। भारत जैसे बड़े और भारी जनसंख्या वाले देश में चुनाव कराना एक बहुत बड़ा काम है। संसद के दोनों सदनो- लोकसभा और राज्य सभा के लिए चुनाव बेरोकटोक और निष्पक्ष हों इसके लिए एक स्वतंत्र चुनाव (निर्वाचन) आयोग बनाया गया है। लोक सभा के लिए सामान्य चुनाव जब उसकी कार्यवधि समाप्त होने वाली हो या उसके भंग किए जाने पर कराए जाते हैं। लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए कम से कम आयु 25 वर्ष है और राज्य सभा के लिए 30 वर्ष।
स्थान खाली हो जाना : यदि एक सदन का कोई सदस्य दूसरे सदन के लिए भी चुन लिया जाता है तो पहले सदन में उसका स्थान उस तिथि से खाली हो जाता है जब वह अन्य सदन के लिए चुना गया हो। इसी प्रकार, यदि वह किसी राज्य विधानमंडल के सदस्य के रूप में भी चुन लिया जाता है तो यदि वह राज्य विधानमंडल में अपने स्थान से, राज्य के राजपत्र में घोषणा के प्रकाशन से 14 दिनों के भीतर, त्यागपत्र नहीं दे देता तो संसद का सदस्य नहीं रहता। यदि कोई सदस्य, सदन की अनुमति के बिना 60 दिन की अवधि तक सदन की किसी बैठक में उपस्थित नहीं होता तो वह सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकता है। इसके अलावा, किसी सदस्य को सदन में अपना स्थान रिक्त करना पड़ता है यदि (1) वह लाभ का कोई पद धारण करता है, (2) उसे विकृत चित्त वाला व्यक्ति या दिवालिया घोषित कर दिया जाता है (3) वह स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर लेता है (4) उसका निर्वाचन न्यायालय द्वारा शून्य घोषित कर दिया जाता है (5) वह सदन द्वारा निष्कासन का प्रस्ताव स्वीकृत किए जाने पर निष्कासित कर दिया जाता है या (6) वह राष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल चुन लिया जाता है। यदि किसी सदस्य को संविधान की दसवीं अनुसूची के उपबंधो के अंतर्गत दल-बदल के आधार पर अयोग्य सिद्ध कर दिया गया हो, तो उस स्थिति में भी उसकी सदस्यता समाप्त हो सकती है।
संसद के सत्र और बैठकें
लोक सभा प्रत्येक आम चुनाव के बाद चुनाव आयोग द्वारा अधिसूचना जारी किए जाने पर गठित होती है। लोक सभा की पहली बैठक शपथ विधि के साथ शुरू होती है। इसके नव निर्वाचित सदस्य ‘भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखने के लिए,’ भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखने के लिए’ और ‘संसद सदस्य के कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करने के लिए’ शपथ लेते हैं। राष्ट्रपति समय-समय पर संसद के प्रत्येक सदन को बैठक के लिए आमंत्रित करता है। प्रत्येक अधिवेशन की अंतिम तिथि के बाद राष्ट्रपति को छह माह के भीतर आगामी अधिवेशन के लिए सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करना होता है। यद्यपि सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करने की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है तथापि व्यवहार में इस आशय के प्रस्ताव की पहल सरकार द्वारा की जाती है।
सामान्यतया प्रतिवर्ष संसद के तीन सत्र या अधिवेशन होते हैं। बजट अधिवेशन (फरवरी-मई), वर्षाकालीन अधिवेशन (जुलाई-सितंबर) और शीतकालीन अधिवेशन (नवंबर-दिसंबर)। किंतु, राज्य सभा के मामले में बजट के अधिवेशन को दो अधिवेशनों में विभाजित कर दिया जाता है। इन दो अधिवेशनों के बीच तीन से चार सप्ताह का अवकाश होता है। इस प्रकार राज्य सभा के एक वर्ष में चार अधिवेशन होते हैं। नव निर्वाचित सदस्यों की शपथ के बाद अध्यक्ष का चुनाव होता है। इसके बाद, राष्ट्रपति संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में एक साथ संसद के दोनों सदनों के समक्ष अभिभाषण करता है। राष्ट्रपति का अभिभाषण बहुत महत्वपूर्ण अवसर होता है। अभिभाषण में ऐसी नीतियों एवं कार्यक्रमों का विवरण होता है जिन्हें आगामी वर्ष में कार्यरूप देने का विचार हो। साथ ही, पहले वर्ष की उसकी गतिविधियों और सफलताओं की समीक्षा भी दी जाती है। वह अभिभाषण चूंकि सरकार की नीति का विवरण होता है अंत: सरकार द्वारा तैयार किया जाता है। अभिभाषण पर चर्चा बहुत व्यापक रूप से होती है। धन्यवाद प्रस्ताव के संशोधनों के द्वारा उन मामलों पर भी चर्चा हो सकती है जिनका अभिभाषण में विशेष रूप से उल्लेख न हो।
अध्यक्ष/उपाध्यक्ष का चुनाव
लोक सभा सदन के दो सदस्यों को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में चुनती है। कुछ ऐसी परंपरा बनी है कि उपाध्यक्ष विपक्ष के सदस्यों में से चुना जाता है। प्रायः यह कोशिश रहती है कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तथा राज्य सभा में सभापति और उपसभापति का यह काम है कि वे अपने सदन की कार्यवाही को व्यवस्थित ढंग से नियमों के अनुसार चलाएं। संसदीय कार्य दो मुख्य शीर्षों में बांटा जा सकता है। सरकारी कार्य और गैर-सरकारी कार्य। सरकारी कार्य को िफर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है, (क) ऐसे कार्य जिनकी शुरूआत सरकार द्वारा की जाती है और (ख) ऐसे कार्य जिनकी शुरूआत गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा की जाती है परंतु जिन्हें सरकारी कार्य के समय में लिया जाता है जैसे प्रश्न, स्थगन प्रस्ताव, अविलंबनीय लोक महत्व के मामलों की ओर ध्यान दिलाना, विशेषाधिकार के प्रश्न, अविलंबनीय लोक महत्व के मामलों पर चर्चा, मंत्रिपरिषद में अविश्वास का प्रस्ताव, प्रश्नों के उत्तरों से उत्पन्न होने वाले मामलों पर आधे घंटे की चर्चाएं इत्यादि।
गैर-सरकारी सदस्यों के कार्य, अर्थात विधेयकों और संकल्पों पर प्रत्येक शुक्रवार के दिन या किसी ऐसे दिन जो अध्यक्ष निर्धारित करे ढाई घंटे तक चर्चा की जाती है। सदन में किए जाने वाले विभिन्न कार्यों के लिए समय की सिफारिश सामान्यतया कार्य मंत्रणा समिति द्वारा की जाती है। प्राय: हर सप्ताह एक बैठक होती है। संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही की छपी हुई प्रतियां सामान्यतया बैठक के बाद एक मास के अंदर उपलब्ध करा दी जाती हैं। कार्यवाही को टेप रिकार्ड किया जाता है। वाद विवाद के अधिवेशनवार छपे हुए खंड हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध होते हैं। संसद के कार्य का संचालन करने की भाषाएं हिंदी तथा अंग्रेजी हैं। किंतु पीठासीन अधिकारी ऐसे सदस्य को, जो हिंदी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता हो, अपनी मातृ-भाषा में संसद को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। दोनों सदनों में 12 भाषाओं को हिंदी तथा अंग्रेजी में साथ साथ भाषांतर करने की सुविधाएं उपलब्ध हैं।
संसद में प्रश्न पूछना
सरकार अपनी प्रत्येक भूल चूक के लिए संसद के प्रति और संसद के द्वारा लोगों के प्रति उत्तरदायी होती है। सदन के सदस्य इस अधिकार का प्रयोग, अन्य बातों के साथ साथ, संसदीय प्रश्नों के माध्यम से करते हैं। संसद सदस्यों को लोक महत्व के मामलों पर सरकार के मंत्रियों से जानकारी प्राप्त करने के लिए पूछने का अधिकार होता है। जानकारी प्राप्त करना प्रत्येक गैर-सरकारी सदस्य का संसदीय अधिकार है। संसद सदस्य के लिए लोगों के प्रतिनिधि के रूप में यह आवश्यक होता है कि उसे अपनी जिम्मेदारियों के पालन के लिए सरकार के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी हो। प्रश्न पूछने का मूल उद्देश्य लोक महत्व के किसी मामले पर जानकारी प्राप्त करना और तथ्य जानना है।
दोनों सदनों में प्रत्येक बैठक के प्रारंभ में एक घंटे तक प्रश्न किए जाते हैं। और उनके उत्तर दिए जाते हैं। इसे ‘प्रश्नकाल’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, खोजी और अनुपूरक प्रश्न पूछने से मंत्रियों का भी परीक्षण होता है कि वे अपने विभागों के कार्यकरण को कितना समझते हैं। प्रश्नकाल संसद की कार्यवाहियों का सबसे अधिक दिलचस्प अंग है। लोगों के लिए समाचारपत्रों के लिए और स्वयं सदस्यों के लिए कोई अन्य कार्य इतनी दिलचस्पी पैदा नहीं करता जितनी कि प्रश्नकाल पैदा करता है। इस काल के दौरान सदन का वातावरण अनिश्चित होता है। कभी अचानक तनाव का बवंडर उठ खड़ा होता है तो कभी कहकहे लगने लगते हैं। कभी कभी किसी प्रश्न पर होने वाले कटु तर्क-वितर्क से उत्तेजना पैदा होती है। ऐसी हालत सदस्यों या मंत्रियों की हाजिर-जवाबी और विनोदप्रियता से दूर हो जाती है। यही कारण है कि प्रश्नकाल के दौरान न केवल सदन कक्ष बल्कि दर्शक एवं प्रेस गैलरियां भी सदा लगभग भरी रहती हैं। कुछ प्रश्नों का मौखिक उत्तर दिया जाता है। इन्हें तारांकित प्रश्न कहा जाता है। अतारांकित प्रश्नों का लिखित उत्तर दिया जाता है। यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि सदस्य प्रश्न पूछने के अधिकार का प्रयोग करने में भारी रूचि दिखाते रहे हैं। चूंकि प्रश्नों की प्रक्रिया अपेक्षतया सरल और आसान है। अंत: यह संसदीय प्रक्रिया के अन्य उपायों की तुलना में संसद सदस्यों में अधिकाधिक प्रिय होती जा रही है।
शून्यकाल (जीरो आवर) : संसद के दोनों सदनों में प्रश्नकाल के ठीक बाद का समय आमतौर पर ‘शून्यकाल’ अथवा जीरो आवर के नाम से जाना जाने लगा है। यह एक से अधिक अर्थों में शून्यकाल होता है। 12 बजे दोपहर का समय न तो मध्याह्न पूर्व का समय होता है और न ही मध्याह्न पश्चात का समय। ‘शून्यकाल’ 12 बजे प्रारंभ होने के कारण इस नाम से जाना जाता है इसे ‘आवर’ भी कहा गया क्योंकि पहले ‘शून्यकाल’ पूरे घंटे तक चलता था। अर्थात 1 बजे दिन में सदन का दिन के भोजन के लिए अवकाश होने तक। यह कोई नहीं कह सकता कि इस काल के दौरान कौन-सा मामला उठ खड़ा हो या सरकार पर किस तरह का आक्रमण कर दिया जाए। नियमों में ‘शून्यकाल’ का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। प्रश्नकाल के समाप्त होते ही सदस्यगण ऐसे मामले उठाने के लिए खड़े हो जाते हैं जिनके बारे में वे महसूस करते हैं कि कार्यवाही करने में देरी नहीं की जा सकती। हालांकि इस प्रकार मामले उठाने के लिए नियमों में कोई उपबंध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रथा के पीछे यही विचार रहा है कि ऐसे नियम जो राष्ट्रीय महत्व के मामले या लोगों की गंभीर शिकायतों संबंधी मामले सदन में तुरंत उठाए जाने में सदस्यों के लिए बाधक होते हैं, वे निरर्थक हैं। नियमों की दृष्टि से तथाकथित ‘शून्यकाल’ एक अनियमितता है। मामले चूंकि बिना अनुमति के या बिना पूर्व सूचना के उठाए जाते हैं अंतः इससे सदन का बहुमूल्य समय व्यर्थ जाता है। इससे सदन के विधायी, वित्तीय और अन्य नियमित कार्य का अतिक्रमण होता है। अब तो शून्यकाल में उठाये जाने वाले कुछ मामलों की पहले से दी गई सूचना के आधार पर, अध्यक्ष की अनुमति से, एक सूची भी बनने लगी है।
संसद में जनहित के मामले : संसद के दोनों सदनों के नियमों में लोक महत्व के मामले बिना देरी के और कई प्रकार से उठाने की व्यवस्था है। जो विभिन्न प्रक्रियाएं प्रत्येक सदस्य को उपलब्ध रहती हैं वे इस प्रकार हैं :
स्थगन प्रस्ताव : इसके द्वारा लोक सभा के नियमित काम-काज को रोककर तत्काल महत्वूपर्ण मामले पर चर्चा कराई जा सकती है।
ध्यानाकर्षण : इसके द्वारा कोई भी सदस्य सरकार का ध्यान तत्काल महत्व के मामले की और दिला सकता है। मंत्रि को उस मामले में बयान देना होता है। ध्यानाकर्षण करने वाले प्रत्येक सदस्य को एक प्रश्न पूछने का अधिकार होता है।
आपातकालीन चर्चाएं : इनके द्वारा तत्काल महत्व के प्रश्नों पर एक घंटे की चर्चा की जा सकती है। हालांकि इस पर मतदान नहीं होता।
विशेष उल्लेख : हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि किस तरह ऐसे मामले उठाने का प्रयास करते हैं जिनका नियमों एवं विनियमों की व्याख्या से कोई संबंध नहीं होता। लेकिन ये मामले उस समय उन्हें और उनके निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को उत्तेजित कर रहे होते हैं। जो मामले व्यवस्था के प्रश्न नहीं होते या जो प्रश्नों, अल्प-सूचना प्रश्नों, ध्यानाकर्षण प्रस्तावों आदि से संबंधित नियमों के अधीन नहीं उठाए जा सकते, वे इसके अधीन उठाए जाते हैं।
प्रस्ताव (मोशन) : सदन लोक महत्व के विभिन्न मामलों पर अनेक फैसले करता है और अपनी राय व्यक्त करता है। कोई भी सदस्य एक प्रस्ताव के रूप में कोई सुझाव सदन के समक्ष रख सकता है। जिसमें उसकी राय या इच्छा दी गई हो। यदि सदन उसे स्वीकार कर लेता है तो वह समूचे सदन की राय या इच्छा बन जाती है। अंत: मोटे तौर पर ‘प्रस्ताव’ सदन का फैसला जानने के लिए सदन के सामने लाया जाता है। प्रस्ताव वास्तव में संसदीय कार्यवाही का आधार होते हैं। लोक महत्व का कोई भी मामला किसी प्रस्ताव का विषय हो सकता है। प्रस्ताव भिन्न भिन्न सदस्यों द्वारा भिन्न भिन्न प्रयोजनों से पेश किए जा सकते हैं। प्रस्ताव मंत्रियों द्वारा पेश किए जा सकते हैं और गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा भी। गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा पेश किए जाने वाले प्रस्तावों का उद्देश्य सामान्यतया किसी मामले पर सरकार की राय या विचार जानना होता है।
संकल्प : संकल्प भी एक प्रक्रियागत उपाय है यह आम लोगों के हित के किसी मामले पर सदन में चर्चा उठाने के लिए सदस्यों और मंत्रियों को उपलब्ध है। सामान्य रूप के प्रस्तावों के समान संकल्प राय या सिफारिश की घोषणा के रूप में हो सकता है। या किसी ऐसे अन्य रूप में हो सकता है जैसा कि अध्यक्ष उचित समझे।
अविश्वास प्रस्ताव : मंत्रिपरिषद तब तक पदासीन रहती है जब तक उसे लोक सभा का विश्वास प्राप्त हो। लोक सभा द्वारा मंत्रिपरिषद में अविश्वास व्यक्त करते ही सरकार को संवैधानिक रूप से पद छोड़ना होता है। नियमों में इस आशय का एक प्रस्ताव पेश करने का उपबंध है जिसे ‘अविश्वास प्रस्ताव’ कहा जाता है। राज्य सभा को अविश्वास प्रस्ताव पर विचार करने की शक्ति प्राप्त नहीं है।
निंदा प्रस्ताव : निंदा प्रस्ताव अविश्वास के प्रस्ताव से भिन्न होता है। अविश्वास के प्रस्ताव में उन कारणों का उल्लेख नहीं होता जिन पर वह आधारित हो। परंतु निंदा प्रस्ताव में ऐसे कारणों या आरोपों का उल्लेख करना आवश्यक होता है। यह प्रस्ताव कतिपय नीतियों और कार्यों के लिए सरकार की निंदा करने के इरादे से पेश किया जाता है। निंदा प्रस्ताव मंत्रिपरिषद के विरूद्ध या किसी एक मंत्री के विरूद्ध या कुछ मंत्रियों के विरूद्ध पेश किया जाता है। उसमें किसी मंत्री या मंत्रियों की विफलता पर सदन द्वारा खेद, रोष या आश्चर्य प्रकट किया जाता है।
संसद में बजट
सरकार को शासन, सुरक्षा और जन कल्याण के बहुत से काम करने होते हैं। इन सबके लिए बहुत साधन चाहिए। ये आएं कहां से? सरकार जनता से कर वसूलती है। जरूरत पड़ने पर कर्जे भी लेती है। क्योंकि हम संसदीय व्यवस्था में रहते हैं, सरकार के लिए यह जरूरी है कि कोई भी कर लगाने या कोई भी खर्चा करने से पहले वह संसद की मंजूरी ले। इस मंजूरी को लेने के लिए ही हर वर्ष सरकार एक बजट यानी पूरे साल की आमदनी और खर्चे का लेखा जोखा संसद में पेश करती है।
रेल बजट और सामान्य बजट अलग अलग पेश किए जाते हैं। सामान्य बजट प्रायः फरवरी के अंतिम कार्य दिवस पर लाया जाता है। रेल बजट उससे कुछ दिन पहले आ जाता है। वित्तीय वर्ष इस समय प्रत्येक साल की पहली अप्रैल से आरंभ होता है। बजट में इस आशय का प्रस्ताव होता है कि आने वाले साल के दौरान किस मद पर कितना धन खर्च किया जाना है। उसमें कितना धन किस तरीके से आएगा या कहां से जुटाया जाएगा। बजट के आगामी वर्ष के लिए अनुदान दिए जाते हैं। सरकार को अपनी वित्तीय और आर्थिक नीतियों तथा कार्यक्रमों और उनकी व्याख्या करने का अवसर मिलता है। साथ ही, संसद को उन पर विचार करने और उनकी आलोचना करने का भी अवसर मिलता है।
बजट पास करने की प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों में गंभीर एवं पूर्ण चर्चा होती है। यह बजट पेश किए जाने के कुछ दिन बाद होती है। चर्चा सामान्य वाद विवाद से आरंभ होती है। यह संसद के दोनों सदनों में तीन या चार दिन तक चलती है। प्रथा यह है कि इस अवस्था में सदस्य सरकार की राजकोषीय और आर्थिक नीतियों के सामान्य पहलुओं पर ही विचार करते हैं। कर लगाने तथा खर्च के ब्यौरे में नहीं जाते। इस प्रकार सामान्य वाद विवाद से प्रत्येक सदन को अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिलता है। सरकार को भी आभास हो जाता है कि किसी प्रस्ताव विशेष के प्रति बाद की अवस्थाओं में क्या प्रतिक्रिया होगी। यह ध्यान देने की बात है कि राज्य सभा को सामान्य चर्चा के अलावा बजट से कोई सरोकार नहीं होता। मांगों पर मतदान केवल लोक सभा में होता है।
दूसरी अवस्था अनुदानों की मांगों पर चर्चा और मतदान की है सामान्यतया, प्रत्येक मंत्रालय के लिए प्रस्तावित अनुदानों के लिए अलग मांगे रखी जाती हैं। इन ‘मांगो’ का संबंध बजट के व्यय वाले भाग से होता है। इनका स्वरूप कार्यपालिका द्वारा लोक सभा के लिए किए गए निवेदन का है कि मांगी गई राशि को खर्च करने का अधिकार दिया जाए। मांगो पर चर्चा रूचिपूर्ण होती है। चर्चा के दौरान मंत्रालय की नीतियों और क्रियाकलापों की बारीकी से छानबीन की जाती है। अनुदानों की मांगों के मूल प्रस्ताव के सहायक प्रस्ताव पेश करके सदस्य ऐसा कर सकते हैं। इन सहायक प्रस्तावों को संसदीय भाषा में ‘कटौती प्रस्ताव’ कहा जाता है। कटौती प्रस्ताव सामान्यतया विपक्ष के सदस्यों द्वारा पेश किए जाते हैं। यदि वे स्वीकृत हो जाएं तो इसका अर्थ सरकार की निंदा होता है। ऐसी स्थिति में, सरकार को यह सोचना पड़ता है कि क्या उसका पद पर बने रहना उचित होगा।
लेखानुदान
बजट पास करने की प्रक्रिया बजट पेश किए जाने से इस पर चर्चा करने और अनुदानों की मांगे स्वीकृत करने और विनियोग तथा वित्त विधेयकों के पास होने तक सामान्यतया चालू वित्तीय वर्ष के आरंभ होने के बाद तक चलती रहती है। जब तक संसद मांगे स्वीकृत नहीं कर लेती तब तक के लिए यह आवश्यक है कि देश का प्रशासन चलाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त धन उपलब्ध हो। इसलिए ‘लेखानुदान’ के लिए विशेष उपबंध किया गया है। जिसके द्वारा लोकसभा को शक्ति दी गई है कि वह बजट की प्रक्रिया पूरी होने तक किसी वित्तीय वर्ष के एक भाग के लिए पेशगी अनुदान दे सकती है।
संसद में कानून कैसे बनते हैं?
कानून बनाना संसद का प्रमुख काम माना जाता है। इसके लिए पहल अधिकांशतया कार्यपालिका द्वारा की जाती है। सरकार विधायी प्रस्ताव पेश करती है। उस पर चर्चा तथा वाद विवाद के पश्चात संसद उस पर अनुमोदन की अपनी मुहर लगाती है। सभी कानूनी प्रस्ताव विधेयक के रूप में संसद में पेश किए जाते हैं। विधेयक विधायी प्रस्ताव का मसौदा होता है। विधेयक संसद के किसी एक सदन में सरकार द्वारा या किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है। इस प्रकार मोटे तौर पर, विधेयक दो प्रकार के होते हैं : सरकारी विधेयक और गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयक। विधि का रूप लेने वाले अधिकांश विधेयक सरकारी विधेयक होते हैं। वैसे तो गैर सरकारी सदस्यों के बहुत कम विधेयक विधि का रूप लेते हैं। फिर भी उनके द्वारा यह बात सरकार और लोगों के ध्यान में लाई जाती है कि मौजूदा कानून में संशोधन करने या कोई आवश्यक विधान बनाने की आवश्यकता है।
विधेयक का मसौदा उस विषय से संबंधित सरकार के मंत्रालय में विधि मंत्रालय की सहायता से तैयार किया जाता है। मंत्रिमंडल के अनुमोदन के बाद इसे संसद के सामने लाया जाता है। संबंधित मंत्री द्वारा उसे संसद के दोनों सदनों में से किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। केवल धन विधेयक के मामले में यह पाबंदी है कि वह राज्य सभा में पेश नहीं किया जा सकता। अधिनियम का रूप लेने से पूर्व विधेयक को संसद में विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। प्रत्येक विधेयक के प्रत्येक सदन में तीन वचन होते हैं। अर्थात पहला वाचन, दूसरा वाचन और तीसरा वाचन।
विधेयक ‘पेश करना,’ विधेयक का पहला चरण होता है। प्रथा के अनुसार इस अवस्था में चर्चा नहीं की जाती है। विधेयक का दूसरा चरण सबसे अधिक विस्तृत एवं महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि इसी अवस्था में इसकी विस्तृत एवं बारीकी से जांच की जाती है। जब विधेयक के सभी खंडो पर और अनुसूचियों पर, यदि कोई हों, सदन विचार कर उन्हें स्वीकृत कर लेता है। तब मंत्री यह प्रस्ताव कर सकता है कि विधेयक को पास किया जाए। यह तीसरा चरण कहलाता है। जिस सदन में विधेयक पेश किया गया हो उसमें पास किए जाने के बाद उसे सहमति के लिए दूसरे सदन में भेजा जाता है। वहां विधेयक फिर इन तीनों अवस्थाओं में से गुजरता है।
किसी विधेयक पर दोनों के बीच असहमति के कारण गतिरोध होने पर एक असाधारण स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिसका समाधान दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में होता है। जब दोनों सदनों द्वारा कोई विधेयक अलग अलग या संयुक्त बैठक में पास कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। यदि राष्ट्रपति अनुमति प्रदान कर देता है तो अनुमति की तिथि से विधेयक अधिनियम बन जाता है। संशोधन के द्वारा संविधान के किसी भी अनुच्छेद में बदलाव लाया जा सकता है। किंतु उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार संविधान के मूल ढांचे या मूल तत्वों को नष्ट या न्यून करने वाला कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
संसद में सेवा-सुविधाएं
संसद में दोनों सदनों से संबंधित सारे काम के समुचित संचालन के लिए, लोक सभा सचिवालय और राज्य सभा सचिवालय बनाए गए हैं। दोनों सचिवालयों में सबसे शीर्ष पर एक महासचिव होता है। प्रत्येक सचिवालय अपने पीठासीन अधिकारियों और सभी सदस्यों को आवश्यक सलाह, सहायता और सुविधाएं पदान करता है। सचिवालय के अलग अलग भाग-अनुभाग हैं। जैसे विधायी कार्य, प्रश्नकाल, समिति प्रशासन, ग्रंथालय और सूचना सेवा, रिपोर्टिंग, भाषांतर और अनुवाद मुद्रण और प्रकाशन, सुरक्षा और सफाई। भारतीय संसद के पास बहुत ही कुशल सूचना सेवा केंद्र है। साथ ही एक उत्तम संसदीय पुस्तकालय भी है। इसे संसद ग्रंथालय तथा संदर्भ, अनुसंधान, प्रलेखन और सूचना सेवा कहा जाता है। इसका पहला उद्देश्य संसद सदस्यों को देश विदेश के दैनिक घटनाक्रम की पूरी जनकारी उपलब्ध कराना है।
इस समय इस पुस्तकालय में 15 लाख से अधिक पुस्तकें हैं। अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं के लगभग 300 भारतीय तथा विदेशी समाचारपत्र यहां आते हैं। 1100 के करीब पत्र-पत्रिकाओं, कला पुस्तकों आदि का विशाल संग्रह है। सबसे पुरानी छपी हुई पुस्तक 1871 की है। किंतु, पुस्तकालय की सर्वाधिक मूल्यवान धरोहर संविधान सभा द्वारा यथा स्वीकृत तथा इसके सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित भारत के संविधान की हिंदी तथा अंग्रेजी में मूल सुलिखित प्रति है। समय-समय पर संसद ग्रंथालय रूचि के विषयों पर पुस्तक प्रदर्शनियों का आयोजन करता है। अनुसंधान तथा सूचना प्रभाग संसद सदस्यों की सूचना संबंधी अपेक्षाओं का पहले से अनुमान लगा लेता है। फिर उचित समय पर वस्तुनिष्ठ सूचना सामग्री जैसे विवरणिकाएं सूचना बुलेटिन, पृष्ठभूमि टिप्पणी, तथ्य-पत्र आदि जारी करता है। इससे सदस्यों को अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में वर्तमान घटनाक्रम की जानकारी मिलती रहती है।
प्रेस तथा लोक संपर्क प्रभाग लोक सभा सचिवालय के प्रेस तथा लोक संपर्क से संबंधित सारे कार्य की देखभाल करता है। जिसमें, मुख्य रूप से, प्रेस, सरकारी प्रचार संगठनों और जन प्रचार माध्यमों (मीडिया) के साथ निरंतर संपर्क बनाए रखना सम्मिलित होता है। 1987 में कंप्यूटर केंद्र की स्थापना की गई। संसदीय ग्रंथालय सूचना प्रणाली नेशनल इन्फार्मेशन सेंटर नेटवर्क से जुड़ी हुई है। इस प्रणाली द्वारा समूचे देश में जिला सूचना केंद्रों के साथ सूचनाओं का आदान प्रदान किया जा सकता है। प्रलेखन सेवा का मुख्य कार्य पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकों, रिपोर्टों, पत्र-पत्रिकाओं, समाचारपत्रों की कतरनों और प्रलेखों को ठीक स्थान पर रखना, उनका संग्रह करना है। इनका विषयगत वर्गीकरण अथवा सूचीकरण किया जाता है। फिर संसद सदस्यों को उनके दिन प्रतिदिन के संसदीय कार्य में प्रयोग के लिए संबंधित सामग्री का सारांश उपलब्ध कराया जाता है।
संसदीय विशेषाधिकार
संसदीय विशेषाधिकार वे विशिष्ट अधिकार हैं जो संसद के दोनों सदनों को, उसके सदस्यों को और समितियों को प्राप्त है। विशेषाधिकार इस दृष्टि से दिए जाते हैं कि संसद के दोनों सदन, उसकी समितियां और सदस्य स्वतंत्र रूप से काम कर सकें। उनकी गरिमा बनी रहे परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि कानून की नजरों में साधारण नागरिकों के मुकाबले में विशेषाधिकार प्राप्त सदस्यों की स्थिति भिन्न है। जहां तक विधियों के लागू होने का संबंध है, सदस्य लोगों के प्रतिनिधि होने के साथ साथ साधारण नागरिक भी होते हैं। मूल विधि यह है कि संसद सदस्यों सहित सभी नागरिक कानून की नजरों में बराबर माने जाने चाहिए। जो दायित्व अन्य नागरिकों के हों वही उनके भी होते हैं और शायद सदस्य होने के नाते कुछ अधिक होते हैं।
संसद का सबसे महत्वपूर्ण विशेषाधिकार है सदन और उसकी समितियों में पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने विचार रखने की छूट। संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरूद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। संसदीय विशेषाधिकारों की सूचियां तैयार की जा सकती हैं। वास्तव में ये तैयार भी की गईं हैं परंतु ऐसी कोई भी सूची पूरी नहीं है। थोड़े में कह सकते हैं कि कोई भी वह काम जो सदन के, उसकी समितियों के या उसके सदस्यों के काम में किसी प्रकार की बाधा डाले वह संसदीय विशेषाधिकार का हनन करता है। उदाहरण के लिए, कोई सदस्य न केवल उस समय गिरफ्तार नहीं किया जा सकता जबकि उस सदन का, जिसका कि वह सदस्य हो, अधिवेशन चल रहा हो या जबकि उस संसदीय समिति की, जिसका वह सदस्य हो, बैठक चल रही हो, या जबकि दोनों सदनों की संयुक्त बैठक चल रही हो, या जबकि दोनों सदनों की संयुक्त बैठक चल रही हो। संसद के अधिवेशन के प्रारंभ से 40 दिन पहले और उसकी समाप्ति से 40 दिन बाद या जबकि वह सदन को आ रहा हो या सदन के बाहर जा रहा हो, तब भी उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
संसद के परिसरों के भीतर, अध्यक्ष/सभापति की अनुमति के बिना, दीवानी या आपराधिक कोई कानूनी ‘समन’ नहीं दिए जा सकते हैं। अध्यक्ष/सभापति की अनुमति के बिना संसद भवन के अंदर किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि संसद के परिसरों में केवल संसद के सदन के या अध्यक्ष/सभापति के आदेशों का पालन होता है। यहां अन्य किसी सरकारी प्राधिकारी के या स्थानीय प्रशासन के आदेश का पालन नहीं होता। संसद का प्रत्येक सदन अपने विशेषाधिकार का स्वयं ही रक्षक होता है। विशेषाधिकार भंग करने या सदन की अवमानना करने वाले को भर्त्सना करके या ताड़ना करके या निर्धारित अवधि के लिए कारावास द्वारा दंडित कर सकता है। स्वयं अपने सदस्यों के मामले में सदन अन्य दो प्रकार के दंड दे सकता है, अर्थात सदन की सेवा से निलंबित करना और निकाल देना, किसी सदस्य को एक निर्धारित अवधि के लिए सदन की सेवा से निलंबित किया जा सकता है। किसी अति गंभीर मामले में सदन से निकाला जा सकता है।
सदन अपराधियों को ऐसी अवधि के लिए कारावास का दंड दे सकता है जो साधारणतया सदन के अधिवेशन की अवधि से अधिक नहीं होती। जैसे ही सदन का सत्रावसान होता है, बंदी को मुक्त कर दिया जाता है। दर्शकों द्वारा गैलरी में नारे लगाकर और/अथवा इश्तिहार फेंककर सदन की अवमानना करने के कारण, दोनों सदनों ने, समय समय पर, अपराधियों को सदन के उस दिन स्थगित होने तक कारावास का दंड दिया है। सदन का दांडिक क्षेत्र अपने सदनों तक और उनके सामने किए गए अपराधों तक ही सीमित न होकर सदन की सभी अवमाननाओं पर लागू होता है। चाहे अवमानना सदस्यों द्वारा की गई हो या ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो सदस्य न हों। इससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता कि अपराध सदन के भीतर किया गया है या उसके परिसर से बाहर। सदन का विशेषाधिकार भंग करने या उसकी अवमानना करने के कारण व्यक्तियों को दंड देने की सदन की यह शक्ति संसदीय विशेषाधिकार की नींव है। सदन की ऐसी पंरपरा भी रही है कि सदन का विशेषाधिकार भंग करने या सदन की अवमानना करने के दोषी व्यक्तियों द्वारा स्पष्ट रूप से और बिना किसी शर्त के दिल से व्यक्त किया गया खेद सदन द्वारा स्वीकार करर लिया जाता है। ऐसे में साधारणतया सदन अपनी गरिमा को देखते हुए ऐसे मामलो पर आगे कार्यवाही न करने का फैसला करता है।
संसद सदस्यों के वेतन-भत्ते
दोनों सदनों के सदस्य ऐसे वेतन और भत्ते, जिन्हें संसद समय समय पर, विधि द्वारा तय करे, पाने के हकदार है। संसद ने संसद सदस्य (वेतन, भत्ते और पेंशन) अधिनियम के अधीन सदस्यों को पेंशन दिए जाने की स्वीकृति दी है। यात्रा संबंधी सुविधाएं : प्रत्येक सदस्य निम्नलिखित यात्रा भत्ते पाने का हकदार है :
रेल द्वारा यात्रा के लिए : एक प्रथम श्रेणी के तथा एक द्वितीय श्रेणी के किराए के बराबर रकम
विमान द्वारा यात्रा के लिए : प्रत्येक ऐसी यात्रा के लिए विमान किराए के सवा गुना के बराबर रकम
सड़क द्वारा यात्रा के लिए : पांच रूपये प्रति किलोमीटर तथा स्टीमर द्वारा यात्रा के लिए उच्चतम श्रेणी के किराए के अतिरिक्त उसका 3/5 भाग।
इसके अलावा, प्रत्येक सदस्य को प्रतिवर्ष देश के अंदर कहीं भी अपनी पत्नी/अपने पति या सहचर के साथ 28 एकतरफा विमान यात्राएं करने की छूट होती है। प्रत्येक सदस्य को देश के अंदर कहीं भी, कितनी भी बार, वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा के लिए स्वयं तथा सहचर के लिए एक रेलवे पास भी मिलता है। पत्नी/पति के लिए एक अलग से पास भी मिलता है।
टेलीफोन : प्रत्येक सदस्य निशुल्क टेलीफोन-एक दिल्ली में तथा दूसरा अपने निवास स्थान पर लगवानें का हकदार है। इसके अलावा, उसे प्रतिवर्ष निशुल्क 50,000 स्थानीय काल करने की छूट होती है।
निवास सुविधा तथा वाहन : प्रत्येक सदस्य को दिल्ली में मकान दिया जाता है। फ्लैटों के लिए कोई शुल्क नहीं है। जबकि बंगलों के लिए नाममात्र लाइसेंस शुल्क लगाया जाता है। कतिपय सीमाओं में बिजली तथा पानी निशुल्क होते हैं। प्रत्येक सदस्य को उसके कार्यकाल के दौरान वाहन खरीदने के लिए अग्रिम-राशि दी जाती है।
अन्य परिलब्धियां : सदस्यों को जो अन्य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं उनमें आशुलिपिक तथा टंकण पूल, आयकर में राहत, कैंटीन, जलपान और खानपान, क्लब, कामन रूम, बैंक, डाकघर, रेलवे तथा हवाई बुकिंग तथा आरक्षण, बस परिवहन, एलपीजी सेवा, विदेशी मुद्रा का कोटा, लॉकर, सुपर बाजार आदि शामिल हैं। संसद परिसर में सदस्यों के लिए एक सुसज्जित प्राथमिक चिकित्सा अस्पताल भी है।