काशी का किस्सा : बिगड़े दूध से कितना मक्खन निकाल पाएंगे मोदी?
प्रवीण कुमार
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन दिन से काशी प्रवास पर हैं। 4 मार्च से 6 मार्च के बीच काशी के मतदाताओं से रू-ब-रू होने के लिए प्रधानमंत्री ने शनिवार और रविवार को अलग-अलग इलाकों में रोड शो किया और जनसभाएं कीं। कहते हैं कि पूरी काशी नगरी केसरिया रंग में रंग गया है। चुनाव विशेषज्ञ तो यहां तक कह रहे हैं कि जितनी भीड़ पीएम मोदी के रोड शो में दिखी है अगर वह वोट में परिवर्तित हो जाता है तो कम से कम वाराणसी लोकसभा के सभी विधानसभाओं में तो भाजपा की जीत पक्की समझिए। लेकिन भाजपा के मार्गदर्शक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) का यह कहना कि, कोशिश यह की जा रही है कि बिगड़े दूध से जो भी मक्खन निकल सके, उसे निकाल लिया जाए।
तो क्या पीएम मोदी को अपने ही संसदीय क्षेत्र में भाजपा की हार का खतरा दिख रहा है? हां, इस बात की पुष्टि मोदी सरकार के मंत्री उपेंद्र कुशवाहा और भाजपा के स्टार नेता व सांसद शत्रुघ्न सिन्हा की टिप्पणी से भी होती है। वाराणसी में पीएम मोदी के रोड शो पर गहरी नाराजगी जताते हुए राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के प्रमुख और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने शनिवार को कहा, 'मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूं कि प्रधानमंत्री का पद इतना ऊंचा होता है कि उन्हें रोड शो नहीं करना चाहिए था। पीएम का यह रोड शो उनके पद और व्यक्तित्व की गरिमा के अनुकूल नहीं है।' अगले दिन रविवार को शत्रुघ्न सिन्हा उठ खड़े हुए और कहा, 'यह किसी किस्म की निराशा का भी संकेत देता है। यह कैसी हताशा है?' अगर आप कॉन्फिडेंट हैं, आपके पास स्टार प्रचारक हैं, जलेबी खाने वाले नेता हैं तो इस तामझाम का क्या मतलब है?'
फ्लैशबैक में जाएं तो ढाई साल पहले जब लोकसभा चुनाव लड़ने पीएम मोदी वाराणसी आए थे, तब नामांकन के बाद मुश्किल से एक बार कुछ घंटों के लिए उन्हें यहां आने की जरूरत पड़ी थी और वाराणसी की जनता ने उन्हें भारी बहुमत से जिताकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया था। आज हालत यह है कि विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों को जिताने के लिए उन्हें वह सब कुछ करना पड़ रहा है, जो उन्होंने खुद के लिए भी नहीं किया था। सवा सौ करोड़ देशवासी के प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश और खासतौर पर वाराणसी में भाजपा की जीत के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है। तीन दिन तक वाराणसी में कैम्प करना, शनिवार और रविवार को सात-सात किलोमीटर लंबा रोड शो करना, केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक दर्जन से अधिक मंत्रियों को ड्यूटी लगाने को आखिर किस रूप में देखा जाए?
क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा को वाराणसी के मतदाताओं पर अब वो भरोसा नहीं रहा, जो 2014 में था? तमाम राजनीतिक विश्लेषकों की राय मानें तो वो इसे प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी पर से वाराणसी की जनता का 'भरोसा उठना' बताते हैं। वह कहते हैं, देश के प्रधानमंत्री को नीतियों की बात करनी चाहिए, क्या किया और क्या करने वाले हैं, वह सब कुछ बताना चाहिए। वाराणसी के लिए उन्होंने क्या किया और क्या करने वाले हैं, यह बताना चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री रोड शो कर रहे हैं। आखिर रोड शो की जरूरत क्यों पड़ी? जनता तो हिसाब मांगेगी। आखिर मोदी सरकार के तीन साल होने जा रहे हैं।
दरअसल, नरेंद्र मोदी की यह पुरानी शैली रही है कि माहौल बनाकर, जुमलेबाजी कर, मतदाताओं को उंगली घुमाकर दिग्भ्रमित कर दो और फिर वोट ले लो। रोड शो के पीछे की रणनीति यही होती है। जीत हासिल करने की मोदी की इस पुरानी शैली को अखिलेश और राहुल भी खूब आजमा रहे हैं। दरअसल इस तरह की गलत परंपरा के जनक चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर हैं जिन्होंने पहले मोदी की आदत बिगाड़ी और अब राहुल और अखिलेश को उसी रास्ते पर आगे बढ़ा रहे हैं। जरा सोचकर देखिए, अगर मोदी जी ने देश के लिए कुछ अच्छा किया होता, अपने इलाके में कुछ अच्छा काम किया होता तो आज कम से कम काशी नगरी में उन्हें रोड शो की जरूरत नहीं पड़ती।
भाजपा आलाकमान अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निश्चित रूप से इस बात का भान हो गया है कि जनता उनकी जुमलेबाजी को समझ गई है। तभी तो विधानसभा चुनाव के वो उम्मीदवार जो भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में हैं उन्हें बिल्कुल पीछे धकेल दिया गया है। यूं कहिए कि मतदाताओं ने उनके चेहरे तक नहीं देखे। ये तो अजीब चुनाव है। लोकतंत्र की सेहत के लिए ये ठीक नहीं है। कहते हैं कि बनारस के राजनीतिक इतिहास में भी ऐसा कभी नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही एक प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में हैं।
वाराणसी भाजपा और खासतौर से नरेंद्र मोदी के लिए नाक की लड़ाई है। हर जगह जीत गए और यहां हार गए तो क्या मुंह दिखाएंगे प्रधानसेवक जी। पार्टी के लोग उनसे सवाल पूछने लगेंगे। इसलिए वह किसी भी सूरत में यहां की कम से कम भाजपा की तीन परंपरागत सीटों को बचाकर अपनी साख बचाना चाहते हैं। वाराणसी शहर क्षेत्र की ये तीनों सीटें फिलहाल भाजपा के पास हैं। शहर दक्षिणी से श्यामदेव राय चौधरी, उत्तरी से रविंद्र जायसवाल और कैंटोनमेंट से ज्योत्स्ना श्रीवास्तव भाजपा से मौजूदा विधायक हैं। शहर दक्षिणी में चौधरी की जगह इस बार आरएसएस के युवा कार्यकर्ता नीलकंठ तिवारी को टिकट दिया गया है। उत्तरी क्षेत्र से मौजूदा विधायक रवींद्र जायसवाल पर भाजपा ने एक बार फिर भरोसा किया है और कैंटोनमेंट से मौजूदा विधायक ज्योत्स्ना के बेटे सौरभ श्रीवास्तव को उम्मीदवार बनाया गया है।
भाजपा के पितृ संगठन आरएसएस की मानें तो उसे भरोसा नहीं है कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी की ये कोशिशें रंग लाएंगी। संघ भी इस सच को मानता है कि पांच में से दो सीटें भी निकल जाए तो बहुत है। वाराणसी के बिगड़े हालात से भाजपा और संघ का शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह से वाकिफ है। पीएम मोदी का तीन दिन का काशी प्रवास इसी रणनीति का हिस्सा है। मोदी और शाह को लगता है कि माहौल बनाकर चुनाव जीता जा सकता है। लेकिन इन्हें ये बात समझनी चाहिए कि ये 2014 का साल नहीं है। तब जनता ने नरेंद्र मोदी पर अपना विश्वास लुटाया था। अब ढाई साल बात उसी जनता को ये लगने लगा है कि मोदी जी ने जन-विश्वास से विश्वासघात किया है।
बहरहाल, ढाई साल में बहुत कुछ बदल गया है। प्रधानमंत्री के अपने लोग भी मानने लगे हैं कि काशी में भाजपा का दूध बिगड़ चुका है और रहीम दास की मानें तो बिगड़े दूध से मक्खन नहीं निकलता, चाहे उसे कितना भी मथा जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपने लावलश्कर के साथ काशी नगरी के मतदाताओं को मथ रहे हैं। अब इसमें से कितना मक्खन निकाल पाते हैं यह तो 11 मार्च को ही पता चलेगा।