ड्रैगन पर दबाव की रणनीति से ही बनेगी बात
सत्ता विमर्श ब्यूरो
नई दिल्ली: पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए सरकार कई विकल्पों पर चर्चा कर रही है। रणनीतिक और राजनीतिक तौर पर अलग थलग करने के लिए भारत को चीन को उसी अंदाज में समझाना होगा जिसे वो बखूबी समझता है। उस प्रेशर टैक्टिक्स को अपनाना होगा जिसकी भाषा उसे समझ में आती है यानी सटीक आर्थिक रणनीति बनानी होगी। ऐसे अनगिनत मौके आए हैं जब चीन ने भारत के बजाए पाकिस्तान की बात को गंभीरता से लिया है। अक्साई चीन के 37, 240 स्कवैर किलोमीटर के क्षेत्र पर अवैध तरीके से ड्रैगन ने कब्जा किया हुआ है सो इसलिए कश्मीर समस्या का एक अहम हिस्सा चीन भी है। ये दिखता तो नहीं है लेकिन जिस अंदाज में चीन अजहर मसूद जैसे आतंक के आकाओं को बचाता है और पाकिस्तान के साथ घनिष्ठता दिखाता है उससे जाहिर तौर पर भारत की सुरक्षा तंत्र के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है।
साफ नजर आता है कि पाक के साथ चीनी आत्मीयता की कहानी के पीछे CPEC यानी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा ही असल वजह है। ये कॉरीडोर बलोचिस्तान के ग्वादर और चीन के जिंजियांग को समुद्र मार्ग से जोड़ेगा। जग जाहिर है कि चीन खुद को एशिया में इकोनॉमिक किंग के तौर पर पेश करने की ख्वाहिश रखता है और सीपीईसी इसी का परिणाम है। वैसे चीन द्वारा इस अतिसंवेदनशील इलाके में करीब 46 बिलियन डॉलर का निवेश, बताने के लिए काफी है कि आखिर चीन चाहता क्या है। दरअसल, चीन आर्थिक साम्राज्य को बढ़ाने के साथ ही उस देश की राजनीति पर भी हावी होने लगता है। चीन को लग रहा है कि पैसों के जरिए वो बलोचिस्तान के बुग्ती, खैबर-पख्तून इलाके के पठानों और जिंजियांग प्रांत के उरुगई समुदाय को अपना गुलाम बना लेगा और अपने मंसूबों को यानी विस्तारवादी नीति को मूर्त रूप दे पाएगा।
इस प्रोजेक्ट की अनुमानित अवधि 15 वर्ष है और इसके अन्तर्गत बलोचिस्तान के ग्वादर पोर्ट से चीन के शिनजियांग प्रान्त तक एक आर्थिक क्षेत्र विकसित करने की योजना है। सीपीईसी की शुरुआत बलोचिस्तान में ग्वादर पोर्ट से होती है और दुनिया जानती है कि पूरा बलोचिस्तान अशांत क्षेत्र है और वर्षों से बलोच लोग पाकिस्तान से आजादी की मांग कर रहे हैं और इसके लिए आंदोलनरत हैं। सीपीईसी बड़ा हिस्सा पाक-अधिकृत-कश्मीर और गिलगित और बल्तिस्तान से गुजरना प्रायोजित है जो की विवादित क्षेत्र है और भारत उसे अपना हिस्सा मानता है। और तो और, गिलगित-बल्तिस्तान के धार्मिक दल तो पाकिस्तान की सेना से अपनी भूमि खाली करने की मांग कर रहे हैं। पाकिस्तानी पंजाब के आलावा और जितने भी राज्यों से सीपीईसी को गुजरना है उनका मानना है कि सीपीईसी की योजना ऐसे बनाई गई है कि उनकी कीमत पर पंजाब को लाभ पहुंचे और इस लिए इस कॉरिडोर का राजनीतिक विरोध भी हो रहा है।
इतने जोखिम भरे प्रोजेक्ट में अगर चीन हाथ डाल ही चुका है तो उसकी कोशिश होनी चाहिए कि जिस रास्ते से गलियारा बने उसमें आतंक का साया ना हो। ऐसे में आदर्श स्थिति तो ये थी कि वो सीमा-पार आतंकवाद की पाकिस्तानी कार्रवाई का विरोध करे, लेकिन इसके उलट वो पाक की नापाक हरकतों को शय दे रहा है, जिससे दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच तकरार बढ़ गई है। हैरानी है कि पाकिस्तान के आतंक संगठनों को आश्रय देने की नीति को चीन देखना ही नहीं चाहता वो जानबूझ कर पाक द्वारा हिजबुल मुजाहिदिन, अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों को बढ़ावा देने की नीति पर खामोश है। संबंधित भारतीय तकनीकी दल ने अमेरिका, यूके और फ्रांस को इस संबंध में साक्ष्य मुहैया कराये, जिसके आधार पर इन देशों ने इस आतंकी समूह पर पाबंदी की सहमति जतायी, लेकिन ‘यूनाइटेड नेशंस सेंक्शंस कमिटी’ द्वारा मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने की इस मुहिम को चीन ने यह कहते हुए समर्थन नहीं दिया कि यह मसला सुरक्षा परिषद द्वारा ‘तय मानदंडों’ के अनुरूप नहीं है।
पाकिस्तान पर शायद इसलिए भी खामोश है क्योंकि वो उइगर समुदाय में बढ़ते असंतोष को कुचलने में पाक की मदद चाहता है। इस ओर ध्यान दिए बगैर की उइगर को बढ़ावा ना देने की कोशिश में जो लाभ वो पाकिस्तान को पहुंचा रहा है उससे अन्य आतंकी संगठन मजबूत हो रहें हैं। यही वजह है कि चीन ने भारत द्वारा जैश-ए-मोहम्मद सरगना मसूद अजहर और लश्कर-ए-तैयबा प्रमुख हाफिज सईद को आतंकी करार देने वाले प्रस्ताव को हर मंच पर नजरअंदाज किया।
दरअसल, चीन आर्थिक एवं सामरिक सहयोग सहित अलग-अलग तरीकों से पाकिस्तान को उपकृत कर उसे भारत के साथ उलझाये रखना चाहता है, ताकि भारत दक्षिण एशिया में सामरिक या आर्थिक दृष्टि से चीन के समानांतर एक शक्ति बन कर न उभर सके। चीन की रणनीति का बड़ा कारण यह है कि इसके जरिये वह भारतीय सैन्य बलों का फोकस इस क्षेत्र में चीन के बजाय पाकिस्तान की ओर बनाये रखना चाहता है। ऐसे में सवाल उठता है कि भारत ऐसा क्या करे की चीन को पाकिस्तान के आतंकी कैम्पों को लेकर अपनी राय बदलनी पड़े? विशेषज्ञों की राय है कि जिस तरह सुरक्षा व्यवस्था को लेकर भारत चीन के प्रति सजग दिखता है वही सजगता उसे आर्थिक क्षेत्र में भी दिखानी होगी। तेजी से बढ़ते व्यापार में 40 बिलियन डॉलर के घाटे की अहमियत ड्रैगन को समझानी होगी। गौरतलब है कि वर्ष 2015-16 में अप्रैल से जनवरी की अवधि के दौरान भारत-चीन के बीच व्यापार घाटा 44.7 अरब डॉलर पर पहुंच गया। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस अवधि में भारत का चीन को निर्यात 7.56 अरब डॉलर और भारत का चीन से आयात 52.26 अरब डॉलर रहा। वर्ष 2014-15 में दोनों देशों के बीच व्यापार घाटा बढ़ कर 48.48 अरब डॉलर पर पहुंच गया था। चीन को बताना होगा कि इसमें फायदा चीन का ही रहता है। बिजिंग अपनी लागत वसूल कर लेता है। ये दबाव की नीति होगी शायद इसे चीन बखूबी समझ पायेगा।
भारत को उन चीनी कम्पनियों को निशाने पर लेना होगा जो पाक के साथ भी व्यापार करती हैं। उन्हें हमें ना कहना होगा। इसका कहीं ना कहीं असर चीन पर जरूर पड़ेगा। हो सकता है एक अवधि के लिए भारत को व्यावसायिक तौर पर नुकसान झेलना पड़े लेकिन देश की सुरक्षा और पाकिस्तान की गीदड़ भभकी को आईना दिखाने के लिए ये सटीक कदम होगा। हो सकता है चीन का रुख पाकिस्तान को लेकर थोड़ा बदल जाए। एक और विकल्प है चीन के नेतृत्व में बनाए गए एक नए बैंक एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक से भारत को हाथ खींचने के लिए तैयार रहना होगा। इस बैंक का दूसरा सबसे अहम निवेशक भारत ही है। क्योंकि चीन इसके जरिए एशिया में अपनी बादशाहत दिखाना चाहता है। वो चाहता है कि यूरोपिय संस्थानों पर एशियाई निर्भरता खत्म हो। चीन किसी भी कीमत पर AIIB को कमजोर होने नहीं देगा।
भारत को रणनीतिक सूझबूझ दिखानी होगी और चीन को अपनी अहमियत रचनात्मक तरीके से जतानी होगी। यहीं पीएम मोदी की प्रबंधन की काबिलियत की परख होगी, जिसमें वो काफी पारंगत माने जाते हैं। लद्दाख में भारत ने इसी जज्बे के साथ ड्रैगन को टक्कर दी अब इसी जज्बे का परिचय उसे एक बार फिर देना होगा।