शर्मिला कंबा लूप
किरण राय
शर्मिला इरोम होने का मतलब खुद को फ़ना करने का नाम है। कम से कम 'आयरन लेडी ऑफ मणिपुर' के हाल के फैसले से तो यही साबित होता है। एक सामाजिक कार्यकर्ता जो एक साल नहीं दो साल नहीं बल्कि 16 साल तक भूख हड़ताल पर बैठी रही उसने तार्किक आधार पर अपनी राह चुनने का फैसला क्या लिया मानो उसके सगे ही गैर हो गए? किसी ने उस महिला की तपस्या को नहीं देखा, किसी ने यह नहीं सोचा कि बरसों वो अपने लिए नहीं बल्कि मणिपुर के हक और हुकूक के लिए डटी रही। अब जब उसने सक्रिय राजनीति को अपनी राह बनाना चाहा तो ना तो कोई राजनेता साथ दिख रहा है और ना उसके अपने साथी। उसके अपनों को इस बात की खुशी कम है कि इरोम ने अपना अनशन तोड़ दिया है बल्कि उन्हें गम इस बात का है कि वो राजनीति के साथ ही वो मणिपुर से बाहर के किसी शख्स के साथ घर बसाने का सपना क्यों देख रही है?
शर्मिला का ये कहना कि अब वो राजनीतिक तौर पर खुद को स्थापित करेंगी और सूबे की सीएम बनने की ख्वाहिश रखती हैं, किसी के गले नहीं उतर रहा। खास कर उन लोगों के जो परदे के पीछे से राजनीति करते रहें हैं और आज भी शायद उसी राजनीति के तहत उन्हें दर-बदर करवा रहें हैं। जब इरोम ये कहतीं हैं कि 'राजनीति ही गंदी नहीं होती बल्कि समाज में भी गंदगी है'- तो हमें और समाज को आईना दिखाने की हिम्मत पर दाद देने का मन करता है। लेकिन अपनी नाकामयाबियों का ठीकरा राजनीति पर फोड़ने वाले, राजनीति को कीचड़ कहने वाले इरोम के इस आईने को देखना ही नहीं चाहते। वो सहन नहीं कर पा रहे कि आखिर इस 44 साल की महिला की उन पर वार करने की हिम्मत कैसे हो गई? इस बयान से स्पष्ट होता है कि वो अब गांधी के आदर्शों की सीमा में रहकर बड़े स्तर पर स्थिति को बदलना चाहती हैं।
गांधी द्वारा स्थापित मानदण्डों पर इरोम चलती रहीं। गांधी की तरह ही उनका हथियार अहिंसावादी भूख हड़ताल था। गांधी के निशाने पर अंग्रजों के सख्त कानून थे तो इरोम की लड़ाई भी राजनीतिक कारणों से लगाया गया AFSPA कानून था। लेकिन उनका संघर्ष धीरे-धीरे एक व्यक्ति विशेष का संघर्ष बन कर रह गया जबकि वो तो पूरे मणिपुर की बात करतीं थीं। शायद यही वजह रही जो अब उन्होंने समय, परिस्थिति और स्थिति को देखते हुए सक्रिय राजनीति में आने का फैसला ले लिया।
शर्मिला खुले मन से कहती है कि उसे शहीद का दर्जा ना दिया जाए। इन शब्दों में उस औरत के दर्द का भी एहसास होता है जिसे शहीद कहलाने का शौक नहीं है वो खुद को खास नहीं आम महिला के तौर पर स्थापित करना चाहती है। ऐसी महिला की सोच और जज्बे को जब उसके अपने ही संदेह की दृष्टि से देखते होंगे तो इस लौह महिला पर क्या बीतती होगी ? इरोम 16 साल तक संघर्षरत रहीं लेकिन उन्हें राजनीति और समाज की भ्रांतियों का अनुमान है तभी तो वो कहतीं हैं कि 'असल संघर्ष तो अब शुरू हुआ है।'
इरोम की लड़ाई में moral support देने वाले साथी अब नहीं चाहते कि वो उनके साथ रहे। उन्हें दुख है कि इरोम ने अपना (इतिहास का सबसे लम्बा) व्रत क्यों तोड़ दिया? हालात इतने बद्तर हो गए हैं कि जिस इरोम को उन्हें पलकों पर बिठाना चाहिए था वो ही 'अपने मणिपुर' के लिए अजनबी बन गई है। जिस अस्पताल में बरसों वो कैदी के तौर पर रहीं वहीं अब शरणार्थी के तौर पर रह रहीं हैं। इरोम हैरान है उसे विश्वास नहीं हो रहा कि उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है? तभी तो वो कह रहीं हैं कि इससे तो अच्छा होता 'मुझे भीड़ पीट-पीट कर मार डालती।'
संगठन जिसकी इरोम बरसों हीरो रहीं वही अब अपनी इस पोस्टर गर्ल से किनारा कर रहा है। SAKAL यानी शर्मिला कंबा लूप (शर्मिला को बचाओ) संगठन ने AFSPA हटाने की मुहिम से शर्मिला को अलग करने का फैसला ले लिया है। उन्हें कष्ट इस बात का है कि इस शहीद ने उनसे मशविरा किए बिना इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया। मुहिम के कर्णधार इरोम को ठग और खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहें हैं। मणिपुर की तस्वीर बदलने के संकल्प के साथ इरोम चल तो दी हैं अपनी राह पर अकेली। उन्हें उम्मीद है कि जो काम उनके 16 साल का तप नहीं कर पाया हो सकता है AFSPA को अब वो मात दे पाएं।
क्या है अफस्पा?
अफस्पा सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून है। इसके तहत किसी भी व्यक्ति को संदेह होने पर बिना किसी सबूत के सेना मार सकती है और ऐसा करने पर सैन्यकर्मी के खिलाफ कोई केस भी नहीं चलाया जा सकता है। इस कानून का विरोध मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में ही नहीं बल्कि कश्मीर में भी होता रहा है।
इरोम के आयरन लेडी बनने की कहानी
2 नवम्बर 2000 को इम्फाल से 10 किलोमीटर दूर मालोम (मणिपुर) गांव में 10 निहत्थे नागरिकों को उग्रवादी होने के संदेह में असम राइफल्स के सैनिकों ने गोलियों से भून डाला था। इस निमर्म हत्या के विरोध में तीन दिन बाद इरोम अनशन पर बैठ गईं। मणिपुर के एक दैनिक अखबार हुये लानपाऊ की स्तंभकार और गांधीवादी 41 वर्षीय इरोम शर्मिला को 6 नवम्बर, 2000 को आत्महत्या के प्रयास के जुर्म में आई.पी.सी. की धारा 307 के तहत गिरफ्तार किया गया और 20 नवंबर 2000 को जबरन उनकी नाक में तरल पदार्थ डालने वाली नली डाली गई।
तब से ये सिलसिला जारी है। शर्मिला को इंफाल के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में नाक में टयूब डालकर जबरन आहार दिया जाता है। इस अस्पताल का एक विशेष वार्ड उनकी जेल के रूप में काम करता है ।
उन्हें आत्महत्या की कोशिश के आरोप में बाऱ़-बार गिरफ्तार, रिहा और फिर गिरफ्तार किया जाता रहा है।