कहां गए वो वादे?
कृष्ण किशोर पांडेय
हीरालाल की उम्र 75 से ऊपर हो चुकी है। उन्हें ठीक से याद भी नहीं है कि सही उम्र क्या है क्योंकि स्कूल में ही थे तभी से समाजवादी आंदोलन में कूद पड़े यह ध्यान ही नहीं रहा कि स्कूल से अपनी पढ़ाई-लिखाई का प्रमाण पत्र ले सकें। अब तो रिश्तेदारों में भी कोई ऐसा नहीं बचा है जो उनकी उम्र के बारे में सही-सही बता सके। फिर भी उन्हें खुद थोड़ा बहुत जो याद है उसके आधार पर बताते हैं कि 75 से तो ज्यादा के तो जरूर हो गए हैं। उन्हें इतना याद है कि उनके बराबर के कुछ लोग जो बचे हैं उनमें पंडित किशोरी उपाध्याय और सुदिष्ट बाबू भी हैं। कभी-कभार आपस में ये तीनों मिलते भी हैं।
एक दिन ऐसा ही संयोग था कि बाजार में घूमते हुए हीरालाल जी को पहले उपाध्याय जी मिले और कुछ दूर आगे जाने पर सुदिष्ट बाबू भी मिल गए। उस दिन तीनों मित्र एक साथ पार्क में बैठे थे। कुछ पारिवारिक समस्याओं और सुख-दुख की चर्चा करने के बाद अचानक बात वहां पहुंच गई जिसपर तीनों बड़े दुखी हुए। हीरालाल जी ने बड़े विषाद के साथ कहा कि भाई, अगर यही दिन देखना था तो हम लोगों ने अपनी पूरी जिंदगी विचारधारा के नाम पर संघर्ष करते हुए यूं ही गंवा दी। आज तो यही समझ में नहीं आता कि वास्तव में कौन किस विचारधारा का समर्थन करता है। सुदिष्ट बाबू का कहना था कि कॉलेज में जब वह बीए में पढ़ रहे थे तभी कुछ कम्यूनिष्ट नेताओं के भाषण से प्रभावित हुए थे। फिर उन्होंने ढेर सारा कम्यूनिष्ट साहित्य इकट्ठा किया और उनका अध्ययन किया। उनकी राय में आज भी वामपंथी विचारधारा ही किसी देश को सुख और समृद्धि के रास्ते पर ले जा सकती है। उपाध्याय जी गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित थे। सुदिष्ट बाबू की तरह उनपर भी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही गांधीवाद का रंग चढ़ा था। तब से लेकर आज तक वह यही मानते आए हैं कि गांधीवादी विचारधारा सिर्फ भारत के लिए नहीं, दुनिया के किसी भी देश के लिए सुख-समृद्धि की ओर बढ़ने का सही रास्ता है।
ये तीनों जब कभी मिलते तब अक्सर राजनीतिक मुद्दों पर बहस होती। इस बहस में सभी अपनी-अपनी विचारधारा के प्रति निष्ठावान रहने का दावा करते लेकिन आज पहली बार उनकी बहस की दिशा दूसरी ओर मुड़ गई। हीरालाल जी ने सवाल उठाया कि जब वे लोग किशोर थे तब हर समझदार इंसान चाहे वह पढ़ रहा हो, नौकरी में हो या व्यवसाय में, वह किसी न किसी विचारधारा से प्रभावित जरूर होता था। आज का पढ़ा-लिखा समुदाय सिर्फ कह ही नहीं रहा है बल्कि ये मानने भी लगा है कि विचारधारा नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। तो सवाल यह उठता है कि जब समाज की यह हालत हो जाएगी तो राजनीति की दशा और दिशा क्या होगी। आज का किशोर या युवा यदि इन सबको अर्थात विचारधारा के नाम पर सोचने-समझने या कुछ करने आदि को व्यर्थ समझता है तो यह सोच भी अकारण नहीं है। उसे तो ऐसा लगता है कि देश की आजादी पर तो कभी कोई आंच आने वाली है नहीं। उसके बारे में तो सोचने की जरूरत ही नहीं है और अगर थोड़ी बहुत जरूरत है भी तो यह काम नेता लोग कर लेंगे। उसकी प्राथमिकता तो सिर्फ यह है कि वह ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाए, आधुनिकता में अपने को पूरी तरह रंग ले, यथासंभव विलासिता की आधुनिक वस्तुएं इकट्ठा करे और समाज में एक अच्छे धनवान के रूप में उसकी प्रतिष्ठा हो। इस सोच के लिए वह खुद जिम्मेदार भी नहीं है। सुदिष्ट बाबू और उपाध्याय जी भी इस बात से सहमत है थे कि आज के युवकों में जो सोच-समझ बदली है इसके लिए देश की राजनीतिक स्थिति जिम्मेदार है। नेताओं से बात कीजिए तो हर नेता आज की तमाम बुराईयों के लिए दूसरे नेता और दूसरे दल को दोषी ठहराता है। उपाध्याय जी ने कहा कि भाई एक बात बताओ कि जब कोई विचारधारा हो ही नहीं समझेगा तो उसके महत्व को वह कहां तक समझेगा। उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही कि आज भी राजनीतिक दलों के छात्रसंघ बने हुए हैं। लेकिन उनमें सक्रिय नेता यह समझ ही नहीं पाते कि वे जिस पार्टी से जुड़े हुए हैं उसकी विचारधारा क्या है। छात्रसंघ में चुनाव जीतकर या कोई अच्छा पद हासिल करके वे आगे नगर निगम या गांव में पंचायत स्तर के चुनाव, फिर विधानसभा फिर लोकसभा चुनाव आदि का चुनाव लड़कर अपना राजनीतिक करियर बनाना चाहते हैं। इस होड़ में शामिल होना और बाकी लोगों को पछाड़कर आगे निकल जाना यही उनकी सबसे बड़ा इच्छा है और इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं। जब छात्रसंघ का चुनाव होता है तो उनके उम्मीदवार वैसे ही पानी की तरह पैसा बहाते हैं जैसे नगर निगम या विधानसभा का चुनाव लड़ने वाले करते हैं।
हीरालाल जी साफ बोलने वाले आदमी हैं। लाग-लपेट में उनका कोई विश्वास नहीं। उन्होंने कहा कि आज जो स्थिति हो गई है उसके बारे में इतना ही कहना काफी है कि आज राजनीति का पैसा और पैसे की राजनीति एक हकीकत है। तोनों दोस्त अपनी बहस के बाद यह कहते हुए विदा हुए कि राजनीति की दृष्टि से हम जिस युग में जी रहे हैं वह सृजन की ओर नहीं विध्वंश की ओर लेकर जा सकता है। हीरालाल जी उन दिनों की बात याद करते हैं जब छोटी उम्र में ही लाल टोपी पहनकर और लाल झंडा हाथ में लेकर वह अपने साथियों के साथ सड़कों पर निकलते थे। उसी कस्बे में कांग्रेसी विचारधारा वाले लड़कों का जब जुलूस निकलता था तो वे नारे लगाते थे, ‘लाल टोपी काल है रूस का दलाल है।’ हीरालाल जी अक्सर इस बहस में उलझ जाते कि भाई समाजवादियों का रूस से कोई लेना-देना नहीं है। समाजवादी कांग्रेस का भी विरोध करते हैं और कम्यूनिष्ट पार्टी का भी। हीरालाल जी स्कूल की पढ़ाई से ज्यादा आगे नहीं जा सके थे लेकिन समाजवादी पार्टी की विचारधारा का उनपर गहरा प्रभाव पड़ा था। वह अक्सर बड़े-बड़े नेताओं के भाषण सुनने जाते। कई जगह तो साइकिल चलाकर जाते। कभी-कभी बसों और ट्रेन की भी सवारी करते। एक बार तो राम मनोहर लोहिया का भाषण सुनने के लिए वह अपने कस्बे से 45 किमी. दूर दूसरे कस्बे में साइकिल चलाकर गए थे। राजनीति की लंबी-चौड़ी बातें भले ही उनकी समझ में ह आती हों लेकिन इतना तो उन्हें साफ दिखाई देता था कि जो बड़े-बड़े जमींदार पहले अंग्रेजों के जमाने में गरीबों का शोषण कर रहे थे वे अपनी सरकार आने के बाद भी नए सिरे से शोषक बन गए। उनका मानना था कि कांग्रेस समानता की बात करती है लेकिन वह गरीबों का भला नहीं कर सकती है। अपने नेताओं के भाषण से उन्हें यह पता था कि उनके सभी बड़े नेता पहले कांग्रेस में ही थे। लेकिन कांग्रेस से अलग होकर वह सिर्फ इसलिए अलग पार्टी बनाना चाहते थे क्योंकि कांग्रेस उनकी मांगों से सहमत नहीं थी। हीरालाल जी के कस्बे में ही बाबू गोवर्धन सिंह का घर है। पूरा कस्बा उनके डर से थर-थर कांपता है। कस्बे में उनकी अपनी एक मिल भी है। लंबी-चौड़ी खेती-बारी है। उनकी खेती हल से नहीं ट्रैक्टर से होती है। उनके पिता एक बड़े जमींदार थे। लोग तो यहां तक कहते हैं कि 1937 में अंग्रेजों की देख-रेख में प्रांतीय एसेंबलियों के जो चुनाव हुए थे उसमें गोवर्धन सिंह के पिता भी अंग्रेजों की तरफ से उम्मीदवार थे। उस समय सिर्फ उन्हीं लोगों को वोट देने का अधिकार था जो टैक्स की एक निश्चित रकम जमा करते थे। गोवर्धन सिंह के पिता ने वोट के दिन हलवा-पूरी बनवाने और बांटने का इंतजाम किया था। फिर भी वह चुनाव हार गए थे। लोगों ने खुशी में नारे लगाए थे- ‘हलवा पूरी राज का वोट देना सुराज का’ लेकिन गोवर्धन सिंह को कांग्रेस ने जब अपना साथी बना लिया तो गांव के गरीब लोगों को बहुत दुख हुआ था। आज भी उसी परिवार का वर्चस्व कांग्रेस पार्टी पर कायम है और पूरे कस्बे पर भी कायम है।
एक बात ताज्जुब की है कि हीरालाल जी, सुदिष्ट बाबू और उपाध्याय जी तोनों अपनी पार्टी कि विचारधारा के लिए पूरी तरह समर्पित थे लेकिन उनकी पार्टियों ने उन्हें इस लायक नहीं समझा कि उन्हें चुनाव का टिकट दिया जाए और विधानसभा या लोकसभा भेजा जाए। तीनों नेता तीन अलग-अलग विचारधारा के समर्थक थे और कई बार बहस करते-करते काफी उग्र हो उठते थे। लेकिन इतना तय था कि वह उग्रता सिर्फ बहस तक सीमित थी। जहां तक एक-दूसरे की भलाई अथवा सार्वजनिक हित की बात हो उसमें उनमें आपसी मतभेद नहीं था। हालांकि उन्हें इस बात का भी कोई मलाल नहीं था कि उन्हें टिकट क्यों नहीं दिया गया और विधायक या सांसद बनने का अवसर क्यों नहीं मिला लेकिन वे लोग तब सोचने को मजबूर हो जाते थे जब समाज में ही कोई व्यक्ति उन्हें टोक देता था। एक दिन तो हीरालाल जी अपने कस्बे के आखिरी छोर पर बसी गरीबों की बस्ती में जाकर लोगों को साक्षर बनने की सलाह दे रहे थे। उन्होंने अपने कस्बे से ही तीन-चार नौजवानों और युवतियों को इसके लिए तैयार किया था कि वे लोग दलित बस्ती में जाकर एक-एक घंटा समय दिया करें। वहीं बातचीत के सिलसिले में उस बस्ती के ही कुछ लोगों ने शिकायत के लहजे में हीरालाल जी से कहा कि वह खुद चुनाव क्यों नहीं लड़ते। पिछली बार उनके कहने पर दलितों ने समाजवादी पार्टी के एक प्रत्याशी को वोट देकर जिताया और विधानसभा भेजा। लेकिन आज हाल यह है कि वह न सिर्फ जात-पांत का ओछा तौर तरीका अपना रहा है बल्कि उसके ऊपर दबंगई करने और लोगों से अनाप-शनाप तरीके से पैसे एंठने का भी आरोप है। हीरालाल जी को यह बात बहुत बुरी लगी। उस दिन शाम को फिर से ये तीनों मित्र पार्क में मिले और सब अपना-अपना दुखरा सुनाने लगे। हीरालाल जी की समझ में आया कि ऐसी हालत सिर्फ उन्हीं की पार्टी में नहीं है, बल्कि अन्य पार्टियों में भी हालत वैसी ही है। गांधीजी की विचारधारा से प्रभावित उपाध्याय जी ने तो यहां तक कहा कि भाई, अब राजनीति जनसेवा के लिए नहीं है। आज जो माहौल है उसमें ‘पैसे की राजनीति और राजनीति का पैसा’ राजनीति का मूल मंत्र बन गया है। कम्यूनिष्ट पार्टी का बचपन से झंडा ढोने वाले सुदिष्ट बाबू भी कम दुखी नहीं थे। उनका तो कहना था कि वह अपने जीवन में मार्क्स और लेनिन की विचारधारा से प्रभावित थे। न कभी विमुख हुए और न ही कभी होंगे। परंतु जो विकृतियां साफ दिख रही हैं उनपर पर्दा डालने को वह तैयार नहीं हैं। यह कहते हुए उनका चेहरा तमतमा उठा था जब उन्होंने कहा कि यह कैसे हो रहा है। परस्पर विरोधी विचारधारा वाले लोग सिर्फ सत्ता के लिए आपस में हाथ मिला लेते हैं। उस दिन के बहस में सुदिष्ट बाबू ने कई अहम बातें बताईं। कम्यूनिष्ट पार्टी दो भागों में क्यों विभाजित हो गई। दोनों की विचारधारा में कोई खास अंतर तो नहीं है। बात वहीं तक सीमित नहीं रही। एक पार्टी ने दूसरे पर सुधारवादी होने का आरोप लगाया फिर आगे चलकर कुछ अलग गुट तैयार हो गए जो अपने को ज्यादा खांटी कम्यूनिष्ट मानते थे। सुदिष्ट बाबू का कहना है कि यह कोई विचारधारा में भारी परिवर्तन या नीतिगत बदलाव के कारण नहीं हुआ बल्कि यह सिर्फ नेताओं के अहमवादी रवैये के कारण हुआ। वह साफ कहते हैं कि वह आज भी इस विचारधारा के समर्थक हैं कि जब तक उत्पादन के साधनों पर सार्वजनिक नियंत्रण नहीं होगा तब तक भारत की गरीबी दूर नहीं हो सकती है।
उपाध्याय जी गांधी जी की विचारधारा से न सिर्फ सहमत थे बल्कि उनका यह मानना था कि अगर उनकी कांग्रेस पार्टी ने सही अर्थों में गांधी जी की विचारधारा पर अमल किया होता तो स्थितियां इतनी बदतर नहीं होतीं। गांधी जी अगर चाहते तो उनके निजी जीवन में सुख- सुविधाओं और ऐशो-आराम की कमी नहीं होती। लेकिन वह तो अपने रहन-सहन से कांग्रेसियों को सबक देना चाहते थे। जो खुद त्याग और बलिदान को नहीं समझेगा वह दूसरों के दुख-दर्द को कैसे समझ सकता है। गांधी जी को जिन्ना के रहन-सहन पर ऐतराज था। गांधी जी जानते थे कि आजादी की लड़ाई में जब तक आम जनता आगे भाग नहीं लेगी तब तक उसकी सफलता संदिग्ध रहेगी। आम जनता तक अपनी बातों को पहुंचाने के लिए उन्होंने आम जनता का रहन-सहन और वेशभूषा तक अपनाई। उपाध्याय जी कुछ उदारता बरतते हुए कहते हैं कि यह सही है कि आज गांधी जी जैसा रहन-सहन हर कोई नहीं अपना सकता, परंतु कांग्रेस के मौलिक सिद्धांतों के साथ समझौता करने की आज के माहौल में कोई मजबूरी नहीं है। लोकतांत्रिक समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, व्यापक जनकल्याण और निर्गुट विदेशी नीति- यही बुनियाद है कांग्रेस पार्टी की। ऐसी क्या मजबूरी आ गई कि इन सिद्धांतों पर ईमानदारी से अमल नहीं किया जा सकता। पहले तो कांग्रेस पार्टी का विभाजन ही सिर्फ व्यक्तियों के टकराव के कारण हुआ और धीरे-धीरे पार्टी अपने ही सिद्धांतों पर अमल करने में नाकामयाब रही। उपाध्याय जी की समझ में यह नहीं आता कि ऐसे लोग भी पार्टी में शामिल किए गए जिनको इन सिद्धांतों से कोई मतलब नहीं था। जब उपाध्याय जी यह सुनते हैं कि उनकी पार्टी में टिकट पाने के लिए लाखों-करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं तो उन्हें शर्म आती है। उन्हें याद है कि जब से देश में अपना संविधान लागू हुआ और नए चुनाव हुए तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने क्षेत्र में चुनाव प्रचार करने नहीं जाते थे। आज उनकी पार्टी के नेताओं को चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं।
उस दिन की बहस वास्तव में बहुत दिलचस्प थी। हीरालाल जी ने एक सवाल उठाया कि आज की जो भारतीय जनता पार्टी है उसके बारे में क्या समाजवादी पार्टी और यहां तक कि कम्यूनिष्ट पार्टी का भी रवैया ठीक रहा है? आजादी से पहले इस पार्टी का कोई नामो-निशान नहीं था। एक संस्था थी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) जो अपने को सिर्फ हिन्दुओं की भलाई के लिए प्रतिबद्ध संस्था मानती थी। आजादी के बाद तत्कालीन अंतरिम सरकार के एक मंत्री डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सरकार से अलग होकर भारतीय जनसंघ नाम से एक पार्टी बनाई। यह पार्टी 1952 के चुनाव में भी नारा दे रही थी कि वह लोगों के धन, धर्म और धरती की रक्षा करेगी। समाजवादियों को विश्वास था कि जब तक धन और जमीन का बंटवारा नहीं होगा तब तक समतावादी समाज की स्थापना नहीं हो सकती लेकिन अफसोस की बात यह कि 1971 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी उस राजनीतिक गठबंधन में शामिल हुई जिसका जनसंघ भी एक सदस्य था। हीरालाल जी कहते हैं कि वह ज्यादा तो पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन उनका यह पक्का विश्वास है कि पार्टी ने 1971 में जो नीति अपनाई उसकी वजह से वह अपनी विचारधारा से अलग हट गई। अंध कांग्रेस विरोध कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं हो सकती। कांग्रेस भी एक वैसी ही पार्टी है जैसी समाजवादी पार्टी। आखिर इस पार्टी के सभी पुराने नेता तो कांग्रेसी ही थे। कांग्रेस से वे सिर्फ इसलिए अलग हुए क्योंकि विचारधारा अलग थी। जिस भारतीय जनसंघ को समाजवादी सांप्रदायिक और पूंजीवादी रूझान वाली पार्टी मानती थी उसके साथ सहयोग का क्या मतलब निकलता है। 1977 में कांग्रेस की इमरजेंसी की नीति का विरोध करने के लिए समाजवादी पार्टी और जनसंघ दोनों ही पार्टियां पुरानी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने पर सहमत हो गईं। ढाई साल बाद ही जनता पार्टी का परिवार बिखर गया। जो पार्टी पहले भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी वह भारतीय जनता पार्टी बन गई। आरएसएस के साथ उसका अंदरूनी गठजोड़ पहले की तरह बना रहा। 1989 में तो सारी हदें पार हो गईं जब एक पुराने कांग्रेसी नेता ने न सिर्फ अपने को गैर कांग्रेसी विचारधारा का प्रतीक स्तंभ बना दिया बल्कि उसकी सरकार बनवाने के लिए एक तरफ से कम्यूनिष्ट और दूसरी तरफ से भाजपा दोनों सहयोगी बने। हीरालाल जी से हम सहमत हों या न हों लेकिन उनका यह मानना है कि इन कुछ घटनाओं के बाद राजनीतिक दलबदल का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक थमा नहीं और थमेगा भी नहीं।
उपाध्याय जी बहस के बीच में कभी-कभी चुटकी लेते हैं- ‘भाई हम लोग इस मायने में खुशकिस्मत हैं कि हमारी मित्र मंडली में कोई भी भाजपाई नहीं है। इस पार्टी की तो विचारधारा ही समझ में नहीं आती। अगर इसकी विचारधारा वही है जो आरएसएस की है तो दोनों का आपस में विलय क्यों नहीं हो जाता। अगर आरएसएस कोई एनजीओ टाइप संगठन है तो भाजपा जैसे राजनीतिक दल पर दबाव डालने का उसका मकदस क्या है। यहां तक कि पार्टी का अध्यक्ष तक आरएसएस की इच्छा से चुना जाता है। मतलब यह कि यह एक ऐसी राजनीतिक पहेली है जिसका न सुलझना देशहित में नहीं है।’ उनही बातों में दम था। स्थितियां साफ-साफ आईने की तरह झलक रही हैं। कोई भी सरकार यह बताने में सक्षम नहीं है कि आखिर आरएसएस के प्रति उसका रवैया समझौतावादी क्यों रहा है। केंद्र में भी अभी तक गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें कई बार बनी हैं परंतु आरएसएस के प्रति इन सरकारों के रवैये में परिवर्तन देखने को नहीं मिला।
उपाध्याय जी, सुदिष्ट बाबू और हीहालाल जी तीनों इस बात से सहमत हुए कि आज राजनीतिक दलों का गठन हमारे देश में विचारधारा के आधार पर नहीं होता। अखिल भारतीय स्तर के दल भी अपने को विचारधारा से बांटकर नहीं रख पाते। क्षेत्रीय दलों की तो कहानी ही बिल्कुल अलग है। दिलचस्प बात तो यह है कि विचारधारा रहित राजनीतिक दल रोबोट जैसा काम कर सकते हैं। स्वार्थपूर्ति का एकमात्र उद्देश्य प्राप्त करने के लिए ये दल कुछ भी कर सकते हैं। किसी चिंतक ने कहा था कि-- ‘एकांम लज्जाम परित्यज्य सर्वत्र विजयी भवेत’ यह स्थिति राजनीतिक दलों की हो गई है। इनको विचारधारा के नाम पर अगर कोई टोके भी तो इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। संविधान के हिसाब से जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर राजनीतिक दलों का गठन नहीं होना चाहिए। लेकिन वास्तविकता यह है कि इतने राजनीतिक दल हो गए हैं कि उनकी राजनीतिक विचारधाराएं दुनिया में नहीं हैं। एक बड़ा सवाल यह है कि अगर यही स्थिति बनी रही तो हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली कहां जाकर टिकेगी। अभी तो यह है कि अखिल भारतीय स्तर के दल इस स्थिति में हैं कि क्षेत्रीय दलों का गठबंधन बनाकर सत्ता संभाल रहे हैं। फिर भी सोचने की बात है कि अगर लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल ही मजबूत बनकर उभरे और राष्ट्रीय दल कमजोर पड़े तो राजनीतिक परिदृश्य कैसा होगा। आज तो यह फैशन हो गया है कि जो दल सरकार चला रहे हों उन्हें कमजोर बताकर उनकी खिल्ली उड़ाई जाए लेकिन कोई भी दल अपने बारे में सोचने को तैयार नहीं है कि वह कितने पानी में है और आगे उसकी स्थिति क्या होने वाली है।
पूरी बहस के बाद हीरालाल जी बहुत व्यथित हो गए थे। उन्होंने आखिर में अपने दोस्तों से पूछा कि आगे क्या होने वाला है? सुदिष्ट बाबू ने व्यंग्यपूर्ण अंदाज में कहा कि हम लोग अपनी-अपनी पार्टी का झंडा ढोने और दरी बिछाने का काम करते रहेंगे। आपस की बहस से मन की भड़ास भी मिटा लेंगे। आगे आने वाले दिनों में विचारधारा का नाम लेने वाला कोई नहीं होगा। राजनीतिक दलों की पहचान और उनकी हार-जीत सिर्फ इस बात पर निर्भर करेगी कि जनता से कौन कितना बड़ा वादा करता है। समाज को जातियों और उप जातियों में तोड़ने का काम ये दल करते रहेंगे। कुल मिलाकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी मुद्दों पर ऊहापोह की एक ऐसी स्थिति बन गई है जो आगे चलकर कौन सा रूप ग्रहण करेगी यह कहना मुश्किल है। हीरालाल जी जब निराश होते हैं तो इतना ही सोचकर संतोष कर लेते हैं कि समय की जैसी जरूरत होगी उसके अनुरूप नई परंपराएं भी विकसित होंगी।
(कहानीकार वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक चिंतक हैं। )