विषमता नहीं मिटी तो मिट जाएगी मानवता
आज बाजारवाद का जादू हमारे सिर पर इस तरह चढ़कर बोल रहा है कि हम अपनी वैचारगी महसूस तो करते हैं लेकिन उससे निकल नहीं पाते। अपने आप पर ध्यान दें तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि हम जिस जाल में फंसे हैं उससे निकलना बहुत आसान नहीं है। हमारी नई सोच क्या है इसे हमें खुद समझना चाहिए।
आजादी के 70 साल : कई कमाल कई सवाल
फ्रीडम एट मिड नाइट आज अपना 70वां जन्मदिन मना रहा है। यह एक ऐसा मौका है जबकि उन वर्षों में देश ने क्या पाया और क्या खोया उसपर विचार किया जाए। 70 साल की उपलब्धियों या असफलताओं का विश्लेषण भविष्य के लिए अपनी योजनाएं निर्धारित करने में बहुत कारगर सिद्ध होंगे। किसी भी देश के लिए कुछ सवाल इतने अहम होते हैं कि उनके बारे में लिए गए निर्णय भविष्य को निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं।
रावण रथि वीरथि रघुवीरा
आज न तो कोई रावण है न ही कोई राम है और न ही विभीषण। लेकिन युद्ध के कारण और युद्ध में शामिल होने वाले लोग आज के हालात में भी प्रासंगिक हैं। युद्ध में शामिल एक वर्ग है जो हर तरह से शक्ति और साधन से संपन्न है। वह सत्तारूपी रथ पर सवार है। दूसरी तरफ एक वर्ग उन लोगों का है जो हर तरह से साधनहीन है। सत्ता और साधन संपन्न वर्ग सिर्फ अपनी ताकत पर गर्व का प्रदर्शन ही नहीं कर रहा है बल्कि साधनहीन वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वालों पर अपमान भरे शब्दों का तीखा प्रहार भी कर रहा है।
लोकतंत्र या कुलीन तंत्र
लोकतंत्र असल में उन सभ्य लोगों का शासन तंत्र है जो आम सहमति से निर्णय लेने और प्रशासन चलाने में भरोसा रखते हैं। लेकिन हाल की कुछ घटनाओं से यह महसूस होने लगा है कि लोकतंत्र को पीछे धकेला जा रहा है और इस बात की पूरी कोशिश है कि देश को हिन्दू राष्ट्र से आगे उसे कुलीन तंत्र में बदल दिया जाए। यह एक खतरनाक संकेत हैं। यह कौन कर रहा है और कैसे कर रहा है इसपर देश के तमाम राजनीतिक दलों और वैचारिक प्रतिबद्धता की लड़ाई लड़ने वाले बुद्धिजीवियों को सोचना होगा। देर की तो शायद बहुत मुश्किल हो जाएगी।
दलीय स्वार्थ से ऊपर उठना जरूरी
पिछले 70 साल में केंद्र में भी और राज्यों में भी विभिन्न दलों की सरकारों को जनता ने मौका दिया है। पहले की तरह आज भी जनता सबकी बात सुनेगी और वह अपने हिसाब से ही फैसला देगी। लेकिन राजनीतिक दलों को यह जरूर सोचना चाहिए कि वे अपनी बात जनता तक सही ढंग से पहुंचा सकें। अगर देश की जनता को गुमराह करने का कोई प्रयास होता है तो उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयास करना भी राजनीतिक दलों की ही जिम्मेदारी है।
सवाल देश बचाने का
बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान इवीएम के साथ किसी साजिश के तहत छेड़छाड़ करने का जो आरोप लगाया है वह वास्तव में गंभीर है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस ने भी इस तरह की आशंका जताई है। अगर देश के सामने इस तरह की चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं तो तमाम राजनीतिक दलों और व्यक्तियों को स्वार्थ से ऊपर उठकर देश बचाओ की एक सूत्री नीति को अपनाना होगा और उसके लिए प्रभावकारी रणनीति भी तैयार करनी होगी।
आडवाणी को गुस्सा क्यों आता है?
देश के पूर्व उप-प्रधानमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ सांसद तथा मार्गदर्शक मंडल के सदस्य लालकृष्ण आडवाणी संसद की कार्यवाही पूरे शीतकालीन सत्र में नहीं चल पाने से यदि आहत हैं और लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने तक की बात कर रहे हैं तो यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि समस्या कितनी गंभीर है।
सत्ता की कसौटी पर अटल बड़े या मोदी?
देश की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में एक सवाल यह उठ रहा है कि भाजपा के नेतृत्व में बने अटल सरकार और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही वर्तमान भाजपा सरकार की कार्यप्रणाली में अंतर है या नहीं। और अगर है तो उसकी दिशा क्या है। वाजपेयी की कार्यप्रणाली और मोदी सरकार की कार्यप्रणाली की तुलना इसलिए जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि भाजपा की नीतियों के अनुरूप कौन सी कार्यप्रणाली अपनी कसौटी पर खरी उतरती है।
कहां गए वो वादे?
हीरालाल की उम्र 75 से ऊपर हो चुकी है। उन्हें ठीक से याद भी नहीं है कि सही उम्र क्या है क्योंकि स्कूल में ही थे तभी से समाजवादी आंदोलन में कूद पड़े यह ध्यान ही नहीं रहा कि स्कूल से अपनी पढ़ाई-लिखाई का प्रमाण पत्र ले सकें। अब तो रिश्तेदारों में भी कोई ऐसा नहीं बचा है जो उनकी उम्र के बारे में सही-सही बता सके। फिर भी उन्हें खुद थोड़ा बहुत जो याद है उसके आधार पर बताते हैं कि 75 से तो ज्यादा के तो जरूर हो गए हैं।