मुल्क में चारों तरफ एक हिंसक हत्यारी भीड़ का शोर बह रहा है। उस शोर का सैलाब लगातार आपकी कल्पनाशीलता को खत्म कर रहा है। आपके भीतर की रचनात्मकता को पीट-पीट कर मार रहा है। वो हत्यारी भीड़ संवैधानिक व्यवस्था के समानांतर खड़ी होकर लोकतंत्र को कुचल रही है। लेकिन ये सनद रहे कि भीड़ ना तो किसी मजहब की होती है और न किसी जाति की। फिर भी ये हत्यारी भीड़ हमेशा किसी धर्म या मज़हब का होने का दावा जरूर करती है। ये भीड़ हमेशा संस्कृति, मजहब, राष्ट्र आदि बचाने के नाम पर हमला करती है।