...क्योंकि ये तो इनका हक है!
किरण राय
वीआईपी नेता होने का मतलब क्या है ये वीरेन्द्र गायकवाड़ ने बखूबी समझा और जता दिया है। एक आम के खासमखास बनने की अजीब दास्तान के वाहक हैं फायर ब्राण्ड पार्टी शिवसेना के सांसद। हमारे देश में ही इन दिनों लालबत्ती और वीआईपी कल्चर को छोड़ने की बात की जा रही है तो वहीं दूसरी ओर इसकी बखिया उधेड़ने वालों की भी कमी नहीं है। वैसे वीआईपी कल्चर को धत्ता बताने की कवायद सही और सुपाच्य होती अगर हमारे वीआईपी नेता सार्वजनिक मंचों से भी अपने त्याग का सबूत देते। ये त्याग उनके व्यवहार, उनके आसमान छूते अहम का और खुद को सबसे अलग मानने वाली सोच का होता तो कितना अच्छा होता।
गायकवाड़ को 60 साल के एयरलाइन्स के कर्मचारी की बात इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने चप्पलों से ही उसे धुन डाला। अपने इस कारनामे पर ना गायकवाड़ जी को अफसोस है और ना उनकी पार्टी इसे कोई बड़ी भूल या उड़ान से प्रतिबंधित करने के योग्य मानती है। उलटा पार्टी कई ऐसे उदाहरण पेश करने में जुट गई है जो उन्हें सही साबित करे। वैसे ये वही गायकवाड़ साहब है जो 2014 में लोकसभा में एक रोजा रखने वाले कर्मचारी के मुंह में रोटी ठूंसने के खेल में भी शामिल थे। उस दौरान करीब 11 मराठी सांसदों ने अरशद जुबैर को सिर्फ इसलिए निशाने पर लिया था क्योंकि उन्हें (सांसदों को) उनकी पसंद का खाना नहीं परोसा गया था।
ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जो हमारी पोलिटिकल बिरादरी की कथनी और करनी के फर्क, उनके अति आक्रामक रवैये को स्पष्ट करते हैं। देश भर से ऐसी कई घटनायें सुनने और देखने में आती रहती हैं जिसमें वीआईपी नेता कभी किसी महिला को थप्पड़ जड़ देते हैं तो कभी खुलेआम किसी कर्मचारी की बेइज्जती कर देते हैं। और अपनी हर कारगुजारी को बड़ी शान से मान भी लेते हैं, मानो जनता ने उन्हें यही सब करने के लिए ही तो चुना है। ऐसे में सवाल वही कि आखिर इसका हल क्या है? ये बहुत मुश्किल है क्योंकि जब राजनीतिक दल ही अपने नेता के सिर पर हाथ रख दें...उनकी गलती को भी अपनाने में कतरायें, तो मान लें कि ऐसी ठसक और हनक उनका हक है और इसके लिए उनका कोई भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता? क्योंकि यहां तो वो मुजरिम भी खुद होते हैं, अपने वकील भी खुद होते हैं और जज बन कर फैसला लेने का अधिकार भी अपने पास ही रखते हैं। सवाल बड़ा और पेचीदा इसलिए भी है क्योंकि हमारे देश के कानून को रचने वालों में भी ऐसे कई शामिल हैं?