एससी/एसटी एक्ट: मौनं स्वीकृति लक्षणम
किरण राय
एस/एसटी एक्ट को लेकर हंगामा बरपना था और वैसा ही हुआ। 2 अप्रैल को विरोध प्रदर्शनों का दौर चला, उग्र हुआ और कई लोगों को लील गया। हमारी सरकार को शायद इस हंगामे और हिंसक प्रदर्शन का आभास नहीं था या था तो शायद वो मौके के इंतजार में थी और हालात बिगड़ने के साथ ही पुनर्विचार याचिका कोर्ट में डाल दी। जिसके बाद वही सियासतगिरी का खेल चालू है। सरकार के मंत्री रविशंकर प्रसाद सामने आए तो रिव्यू पिटिशन के लिए अपनी पीठ थपथपाते और इतिहास में दलितों के साथ हुई नाइंसाफी के लिए पूर्व की कांग्रेस सरकार को कोसते नजर आए। इस सारे मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सभी को परेशान कर गया। सबने कोर्ट के फैसले पर हैरानी जताई, लेकिन परदे के पीछे सरकार की कमजोर पैरवी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। सवाल उठने लगे हैं कि आखिर सरकार ने केस को मजबूत करते आंकड़ें और दलीलें अदालत के सामने क्यों नहीं रखी? क्या इसे सोच समझकर वोट बैंक के लिए रचा गया?
2016 में महाराष्ट्र में बड़े स्तर पर मराठा आंदोलन हुआ। इसके पीछे की एक अहम वजह अहमदनगर जिले में मराठा लड़की के साथ दलित युवकों के गैंगरेप को लेकर थी। सैकड़ों की संख्या में सड़कों पर उतरे मराठा सरकार से नाराज थे। मराठाओं की पांच बड़ी मांगों में से एक अहम मांग दलित उत्पीड़न रोकथाम कानून में बदलाव की थी। मराठा समुदाय का मानना था कि इस कानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है। ऐसे में जब 2019 में लोकसभा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हों तो क्यों ना ऐसा माना जाए कि करीब 17 फीसदी एससी और 9 फीसदी एसटी (2011 की जनगणना) के बनिस्बत अगड़ी और पिछड़ी जाती को मिला कर तकरीबन 65- 68 प्रतिशत को लुभाना वोट के लिहाज से वर्तमान सरकार के लिए ज्यादा सही होगा। कोशिश यकीनन रिवर्स पोलराइजेशन की है। हर मोर्चे पर लगभग पटखनी खा रही सरकार के लिए अपने पाले में वोट डलवाने की एक अहम कोशिश है ये।
स्टैण्ड अप इंडिया के जरिए सरकार ने खूब कोशिश की दलितों को अपने पक्ष में करने की। 2013 में यूपीए सरकार ने 'डॉ. अंबेडकर स्कीम फॉर सोशल इंटीग्रेशन थ्रू इंटरकास्ट मैरिज' योजना की नींव रखी थी, जिसमें 5 लाख से कम आय वर्ग वालों को 2.5 लाख रुपए अंतर्रजातीय विवाह के लिए दिए जाने का प्रवाधान था। मोदी सरकार एक कदम आगे बढ़ी और आय वर्ग की सीमा हटा दी। शर्त ये थी कि जोड़े में से एक दलित होना चाहिए। शुरुआत में सरकार दलितों के मिजाज को शायद परख रही थी। लग रहा था कि माहौल उनके लिए बेहतर बन रहा है लेकिन सत्ता में कुछ समय बिताने के बाद देश भर से ऐसी कई खबरें आईं जो सरकार के माथे पर आज की तारिख में किसी कलंक से कम नहीं है। शुरुआत वेमुला की आत्महत्या से हुई, इसके बाद कभी गाय के नाम पर, कभी मूंछों के नाम पर तो कभी शादी में घोड़ी पर चढ़ने या पूरे गांव से सजी धजी बारात ना लेने जाने के नाम पर इनके साथ ज्यादतियां हुईं और सरकार खामोश रही। इसकी कहानी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों की जुबानी भी समझी जा सकती है। आंकड़ा पिछले साल 2017 में आया। जिसमें दलितों के खिलाफ अधिक क्राइम वाले राज्यों में भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य शामिल रहे। आंकड़ों में जो टॉप 5 क्राइम वाले राज्य हैं उनमें या तो भाजपा सरकार है या फिर उनके सहयोगियों की है। तो फिर इसे मौनं स्वीकृति लक्षणम ना माना जाए तो और क्या माना जाए!