कांग्रेसी एकता में अनेकता के सुर
राजकुमार सिंह
सत्ताकाल में सरकार की जेबी बन गयी कांग्रेस की गत सप्ताहांत हरियाणा में सक्रियता देखने वाली रही। दस साल तक मुख्यमंत्री रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा जींद की किसान पंचायत में दहाड़े कि लक्ष्य हासिल होने तक न चैन से बैठेंगे और न ही भाजपा सरकार को बैठने देंगे। उनका मुद्दा किसान और कृषि रहे। दस साल तक हुड्डा सरकार में मंत्री रहे और अब कांग्रेस के राष्ट्रीय मीडिया विभाग के प्रमुख रणदीप सिंह सुरेजवाला ने कैथल में व्यापारी सम्मेलन में भाजपा सरकार को कोसा। बेशक उनके निशाने पर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार थी और मुद्दा जीएसटी था। उधर, हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक तंवर हुड्डा के गृह जनपद रोहतक में नजर आये। मौका गौचरान भूमि को मुक्त कराने को लेकर जारी संत गोपालदास के अनशन का था। कहना नहीं होगा कि गत शनिवार हरियाणा कांग्रेस के इन तीन बड़े नेताओं ने इस सक्रियता से यही संदेश देने की कोशिश की कि वे राज्य में कांग्रेस को मजबूत करना चाहते हैं।
बेशक उनके दावों पर संदेह नहीं करना चाहिए। फिर भी यह स्वाभाविक सवाल तो अनुत्तरित ही है कि आखिर कांग्रेस को इतना कमजोर किसने किया कि दस साल तक शासन करने वाली पार्टी राज्य में तीसरे स्थान पर चली गयी? कैसे भुलाया जा सकता है कि वर्ष 2005 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने हरियाणा विधानसभा की 90 में से 67 सीटें जीती थीं। निश्चय ही वह प्रचंड बहुमत था, जिसका श्रेय रिकॉर्ड समय तक मुख्यमंत्री रहे तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष भजनलाल लेना चाह रहे थे। 10 जनपथ से करीबी के चलते चौधरी बीरेंद्र सिंह भी मुख्यमंत्री बनने के लिए जोड़तोड़ में लगे थे,बाजी लोकसभा सदस्य भूपेंद्र सिंह हुड्डा मार ले गये।
बेशक शह-मात के इस खेल का एक नतीजा भजनलाल के कांग्रेस से अलगाव और अलग हरियाणा जनहित कांग्रेस बनाने के रूप में भी सामने आया, लेकिन हरियाणा कांग्रेस में अचानक ही हुड्डा का कद सबसे ऊंचा हो गया। कांग्रेस की परंपरा के अनुरूप मंत्रिमंडल गठन में तो उन्हें फ्री हैंड नहीं मिला। बीरेंद्र सिंह और सुरजेवाला समेत सभी प्रमुख नेताओं को मंत्री बनाना पड़ा, लेकिन सरकार हुड्डा ने मन मुताबिक चलायी। उसके बावजूद वर्ष 2009 में हुए अगले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस हरियाणा में महज 40 सीटों पर सिमट गयी। कह सकते हैं कि तब भजनलाल कांग्रेस का हिस्सा नहीं थे, लेकिन उनकी हजकां को तो केवल 5 सीटें ही मिल पायी थीं। सत्ता विरोधी भावना का तर्क भी स्वाभाविक है, मगर सत्ता विरोधी भावना सरकार की जन आकांक्षाओं की कसौटियों पर खरा न उतर पाने का भी तो संकेत है।
निश्चय ही उसके कई कारण रहे होंगे, लेकिन जरूरी सबक तो सभी को सीखने चाहिए थे : प्रदेश के नेताओं से लेकर आलाकमान तक, लेकिन वैसा हुआ नहीं। हरियाणा जनहित कांग्रेस के दलबदलू और निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बन गयी तो सब कुछ पहले की तरह ही चलने लगा। जब आत्म-विश्लेषण की ही जरूरत किसी ने महसूस नहीं की तो सुधार की अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है। परिणामस्वरूप कांग्रेस सरकार और संगठन में अंतर्कलह मुखर होती गयी, जिसका निर्णायक परिणाम वर्ष 2014 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के कुल जमा 17 सीटों पर सिमट जाने के रूप में सामने आया। 2005 में 19 जिलों में 67 सीटें जीतने के बाद 09 में 21 जिलों में 40 सीटों पर तथा 14 में 8 जिलों में 15 सीटों पर सिमट जाना एक गंभीर चेतावनी थी, जिसे सुना-समझा नहीं गया है।
बेशक 1987 में, चौधरी देवीलाल के न्याय युद्ध के बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हरियाणा में 4 सीटों तक भी सिमट चुकी है, पर यदि इतिहास दोहराने की मंशा नहीं है, तब तो प्रदेश नेताओं से लेकर आलाकमान तक को 2014 के चुनाव परिणामों से सबक सीखना चाहिए था। लगता तो नहीं सही और जरूरी सबक सीखा गया है। वरना तो वे सभी एकजुट होकर पार्टी को मजबूत कर रहे होते। सभी नेता अपनी अलग-अलग सक्रियता से कांग्रेस को ही मजबूत करने के दावे कर सकते हैं, पर सच यह है कि दरअसल वे कांग्रेस में खुद को ही मजबूत करने की कवायद कर रहे हैं। आखिर यह सक्रियता तभी क्यों, जब संगठनात्मक चुनाव नजदीक हैं, और अगले विधानसभा चुनाव भी बहुत दूर नहीं रह गये हैं? सक्रियता के मुद्दों पर भी कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है।
कृषि-किसान की बदहाली का मुद्दा उठाते हुए हुड्डा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग कर रहे हैं। बेशक विदेशों में जमा काला धन वापस लाने के वादे की तरह भाजपा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने के अपने चुनावी वादे से भी मुकर गयी है, लेकिन हकीकत यह है कि किसानों की आत्महत्याओं के सिलसिले ने कांग्रेसनीत संप्रग शासन में ही जोर पकड़ा और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें तब भी ठंडे बस्ते में डाल दी गयी थीं। सुरजेवाला जिस जीएसटी से व्यापार और व्यापारियों को बचाने की चिंता कर रहे हैं, वह भी दरअसल संप्रग सरकार के ही दिमाग की उपज है। एकता के नाम पर अनेकता के ये सुर कांग्रेस का कितना भला कर पायेंगे—यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन उसकी कमजोरी हरियाणा में राजनीतिक संतुलन अवश्य गड़बड़ा रही है, जो लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। सशक्त विकल्प मतदाताओं को ही आश्वस्त नहीं करता, बल्कि सरकार पर बेहतर काम का दबाव भी बनाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक ट्रिब्यून के संपादक हैं। यह आलेख लेखक के फेसबुक वॉल से प्रकाशित की गई है। आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)