विदेशों में भारतीयों ने कैसे छुपाया काला धन?
के. प्रभाष
1970 की दशक में एक बड़ी घटना हुई। हिन्दी फिल्मों में अमिताभ बच्चन आए एंग्री यंग मैन बनकर। बहुत गुस्सा था उनके अंदर सिस्टम के खिलाफ, सिस्टम चलाने वालों के खिलाफ, कानून के खिलाफ, नियमों के खिलाफ।
सामाजिक मनोविज्ञान को समझने वालों का मानना है कि अमिताभ बच्चन उतने बड़े ऐक्टर नहीं थे उन दिनों जितना वह बन गए। उसके बड़े होने की वजह यह थी कि लोगों में बहुत गुस्सा था। जनता सिस्टम से तंग थी। उन्हीं दिनों बिहार से गुजरात तक कॉलेज के हॉस्टल से लेकर सड़कों तक लोगों में उबाल था। अमिताभ बच्चन तो बस वक्त पर सामने आया एक चेहरा थे, एक ऐक्शन थे। आम जनता जो सोचती थी लेकिन कर नहीं पाती थी, वह अमिताभ बच्चन करते थे। जब शोले रिलीज हुई थी तो देश के सभी शोले बुझाए जा रहे थे 1975 के आपात काल में। काला धन तब भी शोर मचा रहा था, कभी ‘काला-पत्थर’ में तो कभी ‘त्रिशूल’ की नोक पर।
उन दिनों विदेशों में पैसा रखने की सुध कम ही लोगों के पास थी। वक्त बदला, नीतियां बदलीं, काली कमाई करने का लाइसेंस खत्म हुआ। 1991 के बाद ज्यादा लोगों को ऐसा करने का रास्ता सूझने लगा। देश का क्षेत्रफल काले पैसे के लिए कम पड़ने लगा। काली कमाई के धुएं उन दिनों के साफ आसमान में साफ-साफ दिखने का खतरा था। हालांकि, 1993-95 के बीच दिल्ली के हालात इतने बिगड़ गए थे कि सुप्रीम कोर्ट ने यहां की हवा साफ करने के आदेश दिए। लेकिन, काली कमाई पर जनहित याचिका अब भी सालों दूर थी।
खैर, 65 करोड़ रुपये के 1995 का सुखराम टेलिकॉम घोटाले से 2005-08 के बीच 1.76 लाख करोड़ के 2जी और 1.86 लाख करोड़ के कोयला घोटाले के बीच तस्वीर बिल्कुल बदल गई। पिछले कुछ वक्त में कई लीक्स आए। विकीलीक्स से पनामा लीक्स और राडिया लीक्स से सेक्सटेप लीक्स तक। पनामा लीक्स ने 500 से ज्यादा भारतीयों के कई विदेशी बैंकों, कंपनियों में काली कमाई का पैसा ‘पार्क’ (जैसे हम अपनी बाइक, कार पार्क करते हैं) की बात बताई।
वैसे, मौजूदा वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक अनौपचारिक बातचीत में मौजूदा लेखक समेत कई दूसरे तथाकथित पत्रकारों को बताया था कि देश में सिर्फ 72 घराने हैं जो राजनीतिक पार्टियों को सबसे ज्यादा दान करते हैं। हमारी समझ से यही घराने राजनीति चलाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो देश चलाते हैं। हमें, आपको सभी को चलाते हैं। ये बात और है कि आजकल हम चल कम रहे हैं, कतार में ज्यादा हैं।
आखिर कैसे हुआ यह सब?
पनामा पेपर्स के मुताबिक 500 से ज्यादा भारतीयों ने पनामा, न्यू समोआ, ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स, सेशेल्स जैसे देशों में कंपनियां बनाईं जो टैक्स हैवन्स कहे जाते हैं। अब सवाल यह है कि क्या इन भारतीयों को विदेशों में कंपनी बनाने की इजाजत थी? इसे समझने के लिए हमें 'कनवर्टिबिलिटी ऑफ रुपी' को समझना होगा।
2004 से पहले रुपये को डॉलर में बदलकर देश के बाहर नहीं ले जा सकते थे। विदेशी मुद्रा के देश के बाहर जाने से रोकने के लिए ऐसा नियम बनाया गया था। यानी, जब रुपये को डॉलर में बदल नहीं सकते थे तो देश के बाहर रुपये को इनवेस्ट भी नहीं कर सकते थे। यानी, विदेश में कोई कंपनी भी नहीं सेटअप कर सकते थे।
फरवरी, 2004 में भारतीय रिजर्व बैंक ने पहली बार लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम लागू की जिसके तहत भारत में रहने वाला कोई शख्स एक साल में 25 हजार डॉलर बे-रोक-टोक बाहर भेज सकता था। इसका इस्तेमाल वो मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए कर सकता था, गिफ्ट दे सकता था, बच्चों की पढ़ाई के लिए खर्च कर सकता, शेयर भी खरीद सकता था। 25 हजार डॉलर की सीमा बढ़ते-बढ़ते अब 2 लाख 50 हजार डॉलर तक पहुंच गई है।
2004 में विदेशों में कंपनी सेट अप करने को लेकर कोई तय गाइडलाइन नहीं थी। बाजार ने रिजर्व बैंक की इस चुप्पी का मतलब ये निकाला कि शेयर खरीदने या पोर्टफोलियो इनवेस्टमेंट के जरिए भारत में रहने वाले कंपनी भी खड़ी कर सकते हैं। ये तो 2007-08 में रिजर्व बैंक ने कहा कि भारत में रहने वाले ऑफ शोर कंपनी नहीं बना सकते हैं। सितंबर 2010 में रिजर्व बैंक ने आम तौर पर पूछे जाने वाले सवालों (FAQ) के जरिए साफ किया कि पोर्टफोलियो इनवेस्टमेंट के नाम पर विदेशों में कंपनी नहीं बना सकते हैं।
कुछ लोगों ने रिजर्व बैंक की इस सफाई का अर्थ ये निकाला कि विदेशों में नई कंपनी तो नहीं बनाई जा सकती है लेकिन, मौजूदा कंपनियों को खरीदा जा सकता है, उनका टेकओवर किया जा सकता है। ऐसे ही मोड़ पर मोजैक फोंसेका जैसे इंटनेशनल लॉ फर्म की भूमिका सामने आती है जिसके दस्तावेज इस साल अप्रैल में लीक हुए।
2013 में रिजर्व बैंक ने विदेशों में निवेश के लिए ODI यानी ओवरसीज डायरेक्ट इनवेस्टमेंट स्कीम का एलान किया। इसके तहत भारत में रहने वाले, विदेशों में ज्वाइंट वेन्चर में जा सकते हैं। सौ फीसदी तक की सब्सिडियरी सेट अप कर सकते हैं। फिलहाल यही गाइडलाइन लागू है। फेमा (FEMA) के मुताबिक भी अगस्त 2013 से पहले की कंपनियां गैर कानूनी हैं।
कई लोगों ने केंद्रीय बैंक की इजाजत से पहले ही विदेशों में कंपनियां बनाई थी। अमिताभ बच्चन का नाम भी इसी सिलसिले में कुछ महीने पहले उछला था। उनकी चार शिपिंग कंपनियों के दावे किए गए थे। मौजूदा लेखक को कंपनियों की स्वतंत्र जानकारी हासिल नहीं है। टैक्स हैवन देशों में बनाई गई कंपनियों की सबसे खास बात इसकी गोपनीयता रहती रही है। इनको लेकर यह पता करना मुश्किल रहा है कि इनका मालिक कौन है? डायरेक्टर्स कौन हैं? इनके प्रमोटर्स और मालिक इस तरह के इनवेस्टमेंट को टैक्स प्लानिंग के नजरिए से देखते हैं जबकि कानून की नजर में ये काले धन के दायरे में आ सकते हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले काला धन एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आया था। मोदी सरकार ने शीर्ष अदालत के कहने पर एक एसआईटी भी बनाई जिसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट कर रही है। विदेशों में काला धन रखने वालों के नामों की सीलबंद सूची एसआईटी ने अदालत को सौंपी भी है। विपक्ष इसे सार्वजनिक करने की मांग कर रहा है जबकि सरकार इसे ‘निर्माणाधीन’ साइनबोर्ड लगाकर बता रही है कि काले-धनियों के खिलाफ कार्रवाई और कार्यवाही चल रही है।
इसी बीच विमुद्रीकरण (डीमॉनीटाइजेशन) हो गया। सरकार को उम्मीद थी कि 86 फीसदी नोट को रद्द कर वह कम-से-कम पांच लाख करोड़ का बोझ कम कर लेगी। लेकिन, अगर पांच लाख करोड़ रुपये के कालेधन होने का सरकार का आंकलन सही है तो कम-से-कम चार लाख करोड़ रुपये का कालाधन सफेद हो चुका है। 14.5 लाख करोड़ रुपये के नोट वापस लिए गए और अब तक करीब 13.5 लाख करोड़ रुपये बैंकों में जमा किए जा चुके हैं।
सच ही किसी ने कहा था कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। लेकिन, अब यह भी साबित हो गया कि कानून तोड़ने वालों का दिमाग बनाने वालों से ज्यादा सक्षम है। वैसे, अभी यह साफ नहीं है कि देश के बाहर का कोई कालाधन देश में वापस आया है या वहीं पड़ा है और पड़ा रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता अथवा सच्चाई के प्रति सत्ता विमर्श उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)