चुनाव बाद क्या गुल खिलाएंगी तीन देवियां
प्रवीण कुमार
16वीं लोकसभा के गठन में देश की तीन ताकतवर महिलाएं सियासी गेमचेंजर की भूमिका निभा सकती हैं। दीदी (ममता), अम्मा (जयललिता) और बहनजी (मायावती) के नाम से चर्चित इन तीनों हस्तियों ने अपनी राजनीतिक ताकत के बूते शतरंज की बिसात पर भावी सियासत के प्यादे चारों तरफ चलने शुरू कर दिए हैं। केंद्र की सत्ता का संतुलन बनाने या बिगाड़ने की इनकी इसी ताकत को भांपते हुए एनडीए हो या यूपीए दोनों की इन तीनों पर निगाहें हैं। लोकसभा चुनाव परिणाम में ममता, जयललिता और मायावती की भूमिका क्या होगी? यह एक ऐसा सवाल है जो एक अन्य सवाल 'अगली सरकार किसकी बनेगी?' का जवाब खोजने में सबसे अधिक मददगार साबित हो सकती है। इन तीनों नेताओं ने अपनी ताकत को अच्छे से पहचान लिया है और इसीलिए वे अभी न तो यूपीए के साथ हैं और न ही एनडीए के साथ। हम यहां यह समझने की कोशिश करेंगे हैं कि अपने-अपने राज्यों में इन नेताओं की राजनीति बिसात क्या है क्या ये तीनों केंद्र की सरकार के लिए इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं?
लोकसभा की 167 सीटों पर तीनों का संयुक्त रूप से प्रभाव है। पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 48 सीटे, तमिलनाडु में 39 और उत्तर प्रदेश में 80 सीटें हैं। यानी कुल मिलाकर 167 सीट। ममता, जयललिता और मायावती अगर लोकसभा में अपने-अपने राज्य से अधिक सीटें जीतती हैं तो वे अगली सरकार को तय करने में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। मायावती लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक सीटें जीतकर बैलेंस ऑफ पावर की धुरी बनने का प्रयास कर रही हैं। बेशक वे सीटों के मामले में एक क्षेत्रीय दल की नेता हों, लेकिन गठबंधन युग की राजनीति में पीएम के पद पर उनकी भी नजर है। वे कहती भी हैं कि यूपी की तर्ज पर केंद्र में भी चुनाव बाद 'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' की तर्ज पर सरकार बनाने का मौका बसपा को मिल सकता है। यहां एक चीज और गौर करने की है कि ये तीनों देवियां हवा का रूख देखकर पाला बदलने में माहिर हैं और माया-जया तो सीबीआई के मोहताज भी।
तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार...। एक वक्त था जब इसी नारे के दम पर बहुजन समाज पार्टी ने दलित वोटों का ऐसा समीकरण बनाया था कि कई पुराने व दिग्गज राजनेताओं का खेल बिगड़ गया था। फिर बारी आई सोशल इंजीनियरिंग की। ऐसा फॉर्मूला जिसने अगड़ी जाति को भी मायावती के पीछे लाकर खड़ा कर दिया और एक बार फिर कई सूरमाओं के अरमान धरे के धरे रह गए। यह मायावती का जादू है, जो सिर चढ़कर बोलता है। मायावती इस बार के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में बसपा को अकेले दम पर चुनाव लड़ा रही हैं। बसपा का बीएमडी सूत्र- ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित वोट बैंक के सहारे अधिक से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य है। यूपी में 21 ब्राह्मण और 19 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारकर मायावती ने सपा और भाजपा से आगे निकलने का समीकरण बनाने का प्रयास किया है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि मायावती किसके साथ जाएंगी। भाजपा ने अब तक उनके खिलाफ आक्रामक रुख अख्तियार नहीं किया है, लेकिन मायावती, नरेंद्र मोदी के नाम पर अपना गुस्सा पहले ही जाहिर कर चुकी हैं। लेकिन राजनीति का कोई भरोसा नहीं है। चुनावी नतीजे बताएंगे कि हाथी कौन सी राह पकड़ता है।
एआईडीएमके नेता और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता जयराम की राजनीति को समझना भी लोकसभा चुनाव-2014 के लिहाज से काफी दिलचस्प है। वे दामन पकड़ने और छोड़ने में बेहद माहिर खिलाड़ी मानी जाती हैं। उनका मतदाता अम्मा की इस खास राजनीति का कायल है। राज्य की 39 लोकसभा सीटों में से जयललिता अधिक से अधिक सीटें जीतकर अब दिल्ली की राजनीति की तरफ कदम बढ़ाना चाहती हैं। डीएमके, कांग्रेस और भाजपा के साथ बहुकोणीय मुकाबले के चलते जयललिता को इस बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। वे मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए खुद लोकसभा चुनाव लड़ने से बच रही हैं। इसके साथ ही वे पूरे राज्य में अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए चुनाव अभियान सुचारू रूप से चला सकें इसलिए भी वे खुद चुनाव लड़ने से बच रही हैं। मीडिया में अभी तक जो सर्वे आए हैं उसके अनुसार वे राज्य की 39 सीटों में से कम से कम 20 सीटों पर विजय प्राप्त कर सकती हैं। कहते हैं कि अम्मा भी कभी-कभी मुलायम सिंह यादव की स्टाइल में डेढ़ चाल चलने में माहिर मानी जाती हैं। अम्मा की सियासी चाल का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। राजनीतिक जानकार उम्मीद कर रहे थे कि जयललिता अपने दोस्त और भाजपा के पीएम पद के दावेदार नरेंद्र मोदी का साथ देने के लिए तुरंत तैयार हो जाएंगी। लेकिन फिलहाल ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने साफ कर दिया कि वह खुद प्रधानमंत्री की कुर्सी पसंद करती हैं। कुछ ही दिन पहले जब वह वाम दलों से जा मिलीं तो ऐसा लगा कि भाजपा के साथ मिलने की अम्मा की सारी संभावनाएं खत्म हो गईं। लेकिन उन्होंने एक बार फिर चौंकाया और तमिलनाडु की सारी सीटों पर उम्मीदवारों के नामों का ऐलान कर दिया और इसके साथ ही जयललिता का वाम दलों से रिश्ता टूट गया। इसके बाद ममता ने देवी कार्ड खेलते हुए जयललिता को संदेश दिया कि अगर वह पीएम पद की दावेदारी पेश करें तो उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा। तमिलनाडु में डीएमके की हालत खराब है और जयललिता को लोकसभा चुनावों में बढ़िया सीटें मिलने की उम्मीद है। ऐसे में उन पर डोरे डोलने वालों की कमी नहीं रही। चुनाव बाद उन्हें चुनना है कि वह किसके साथ जाना चाहती हैं। और स्थिति अच्छी रही, तो वह सौदेबाजी करने से भी नहीं चूकेंगी। और जिस तरह का राजनीतिक परिदृश्य बनता दिख रहा है उसमें जयललिता भाजपा से नजदीकियां बढ़ाती हैं तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जब ममता बनर्जी बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी थीं, तो उन्होंने कहा था कि हां! मैं मुख्यमंत्री हूं, लेकिन आम आदमी कहलाना पसंद करूंगी। यही वो बात है जो उनकी सादगी को बताती है। हालांकि उनके राजनीतिक तेवर और भी असरदार हैं। वे जो ठान लेती हैं उसे हर हाल में पूरा करना पसंद करती हैं। जिस राइटर्स बिल्डिंग से उनको निकाला गया था उसमें उन्होंने ठीक 18 साल बाद उस वक्त प्रवेश किया जब उन्होंने वामपंथी शासन को बंगाल से उखाड़ फेंका था। ममता की निगाह भी इस बार दिल्ली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की है। इसलिए वे पूरे देश में टीएमसी को खड़ा करना चाहती हैं और उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाना चाहती हैं। अन्ना के साथ उन्होंने अपने इस विचार पर आगे बढ़ने का प्रयास किया, लेकिन अन्ना के अलग होने से उनकी इस मुहिम को थोड़ा झटका लगा है। मुख्यमंत्री रहते हुए वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ रही हैं। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की 48 सीटों में से अधिक से अधिक सीटें जीतकर लोकसभा चुनाव 2014 के बाद बड़ी भूमिका निभाना चाहती हैं। वे टीएमसी को देश में तीसरी सबसे बड़ी ताकत बनाना चाहती हैं। ममता का सपना है कि देश में अगली सरकार एक संघीय मोर्चे की बने। ममता भी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनने वाली किसी भी सरकार से फिलहाल दूरियां बनाकर चल रही हैं, लेकिन चुनाव बाद ऊंट किस करवट बैठता है ममता की रणनीति उसपर बहुत कुछ निर्भर करेगा।
चलते-चलते यहां इन तीनों देवियों के बारे में कुछ रोचक तथ्य जानना जरूरी होगा। ये रोचक तथ्य इन तोनों को आपस में जुड़ने और बिछुड़ने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण हैं। गौर करेंगे तो इन तीनों देवियों में कुछ अद्भुत समानताएं हैं, मसलन तीनों अपनी-अपनी पार्टी की मुखिया हैं। तीनों की तीनों अविवाहित हैं और ठसक की राजनीति के लिए जानी जाती हैं। इनमें से दो ममता और जयललिता अपने-अपने सूबे की मुख्यमंत्री हैं और तीसरी मायावती तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। अब सबसे अहम बात यह कि अपने-अपने राज्यों की क्षत्रप राजनीति में खासा दखल रखने वाली तीनों ही देवियों की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा चरम पर हैं, लेकिन तीन में से कोई भी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ने जा रही हैं। बहरहाल, चुनाव बाद जो समीकरण बनेगा उसमें इतना तो तय है कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और एनडीए सबसे बड़ा गठबंधन बनेगा। अब इन तीन देवियों की अहमियत एनडीए गठबंधन को मिलने वाली सीटों की संख्या पर निर्भर करेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)