और कमजोर होगी AIADMK की सियासी ताकत
अमलेंदु भूषण खां
ऑल इंडिया अन्नाद्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) की हालत कमोबेश आज वही है जो कांग्रेस की इंदिरा गांधी की मौत के बाद थी। हालत इतनी बदतर होती गई कि राष्ट्रीय राजनीति की धुरी रही कांग्रेस लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पिटी और 44 सीटों तक सिमट गई। हालात अभी भी सुधरे नहीं हैं। पार्टी अभी भी किसी करिश्माई नेता के लिए तरस रही है। जयललिता की मौत के बाद एआईएडीएमके भी उसी दौर से गुजर रही है।
कभी एमजीआर के इर्द-गिर्द डोलती पार्टी को अम्मा ने सियासी समझदारी से इतना सजाया और संवारा कि उनके जाने के बाद पार्टी में घमासान मचा हुआ है। हालांकि ई.के.पलानीस्वामी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर और फिर विधानसभा में भारी हंगामे के बीच विश्वासमत जीतकर पार्टी में अपनी पकड़ के संकेत तो जरूर दिये हैं लेकिन ये मान लेना कि तमिलनाडु का राजनीतिक संकट खत्म हो गया, सही नहीं होगा। वीके शशिकला जेल जा चुकी हैं और उनकी राजनीति एक तरह से खत्म ही मानिए क्योंकि करीब साढ़े तीन साल वह जेल में रहेंगी और 6 साल तक वह ना तो चुनाव लड़ सकती हैं और ना ही मुख्यमंत्री बन सकती हैं। ओ. पन्नीरसेलवम और ई.के. पलानीस्वामी को अपने-अपने तरीके से संघर्ष करना होगा। क्योंकि दशकों से क्षेत्रीय दलों के हाथों में राज्य की बागडोर रहने और जयललिता के निधन के बाद अब राष्ट्रीय दलों की निगाह भी तमिलनाडु पर जम गई हैं। एआईएडीएमके के अंदर जहां तीन धड़े संघर्ष कर रहे हैं वहीं राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी से लेकर प्रदेश के छोटे दलों तक एआईएडीएमके के घमासान पर नजर टिकाए हुए हैं।
जयललिता की मौत और शशिकला के जेल जाने के संकेतों को डिकोड करें तो पायेंगे कि एआईडीएम के साथ ही तमिलनाडु की सियासत में भारी बदलाव आने वाला है। अम्मा (स्व. जयललिता) जैसा क्राइसिस मैनेजमेंट या डिजास्टर मैनेजमेंट की खूबियों वाला सियासी गुरु फिलहाल तमिलनाडु की राजनीति में कोई दिख नहीं रहा है। इस प्रदेश की राजनीति एआईडीएमके और डीएमके तक ही सिमटी रही है। लेकिन डीएमके का हाल भी वही है। अब यहां भी एम.करुणानिधि जैसा कोई कद्दावर नेता का संकट है। डीएमके प्रमुख करुणानिधि बीमार चल रहे हैं और सियासत में उनकी सक्रियता ना के बराबर है।
एआईएडीएमके की बात करें तो जेल जाते-जाते शशिकला अपना मोहरा बिठा गईं हैं। चिनम्मा ने अम्मा की विरासत अपने जरिए पलानीस्वामी को सौंप गईं हैं। वहीं अम्मा के करीबी रहे पन्नीरसेलवम भी दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं हैं। इस सबके बीच जयललिता की भतीजी दीपा जयकुमार भी अपनी जमीन तलाशने की जद्दोजहद में जुट गई हैं। अब जरा वर्तमान में अन्नाद्रमुक की राजनीति को तय करने वालों का इतिहास समझ लेते हैं। जयललिता के विश्वासपात्र पनीरसेलवम के पिता एमजी रामचंद्रन के लिए काम करते थे और जयललिता उनके बेहद करीब थी। पनीरसेलवम पिछड़े थेवर समुदाय से आते हैं जिनका दक्षिणी तमिलनाडु में अच्छा प्रभाव माना जाता है। शशिकला भी इसी समुदाय की नुमांइदगी करती हैं। वह 25 साल पहले एक साधारण सा वीडियो पार्लर चलाती थीं और बाद में वह जयललिता की गहरी दोस्त बन गईं। एमजीआर की मृत्यु के बाद जयललिता को मुश्किल दौर में शशिकला ने सहारा दिया था। सबसे गंभीर बात यह है कि एमजी रामचंद्रन की तरह जयललिता ने भी दूसरी पंक्ति में किसी नेता को उभरने नहीं दिया था।
ऐसा कहा जाता है कि जयललिता को हमेशा यह भय सताता रहता था राज्य में पुरुषवादी मानसिकता वाली राजनीति में कोई उनकी गद्दी न छीन ले। जब जयललिता जेल में बंद थीं उस समय ओ. पनीरसेलवम को राज्य की बागडोर भी डरते हुए सौंपी थीं। जेल में रहते हुए भी अप्रत्यक्ष रुप से जयललिता ही राज्य का शासन चला रही थीं। जयललिता के अस्पताल में भर्ती होने से लेकर उनके निधन तक के पूरे घटनाक्रम तक भाजपा जिस तरह से सक्रिय थी वह किसी से छिपा नहीं है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नरेंद्र मोदी के जयललिता के संबंध काफी बेहतर थे।
मोदी सरकार सिर्फ उनकी तबीयत को लेकर चिंतित नहीं थी बल्कि राजनीतिक कारण उससे भी बड़े थे। राजनीतिक गलियारों में इस बात को स्वीकार किया जाता है कि केंद्र के दबाव की वजह से जयललिता के निधन से पहले ओ. पनीरसेलवम को अम्मा का उत्तराधिकारी बनाकर आधी रात को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी। इसके पीछे मकसद साफ था कि जयललिता के निधन के बाद एआईएडीएमके के भ्रमित सांसदों को डीएमके की ओर देखने से रोका जा सके।
चेन्नई के राजाजी हॉल के उस दृश्य को याद कीजिए जहां जयललिता का पार्थिव शरीर दर्शनार्थ रखा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां मौजूद थे। पनीरसेलवम अम्मा के पार्थिव शरीर को कम और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर ज्यादा देख रहे थे। प्रधानमंत्री मोदी ने शशिकला को जिस तरह से सांत्वना दी थी, उस पर विचार किए बिना तमिलनाडु की राजनीति को समझना अधूरा रह जाएगा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जयललिता के निधन के बाद भारतीय जनता पार्टी तमिलनाडु में अपनी जगह तलाशने की हर संभव कोशिश कर रही है। माना तो यहां तक जा रहा है कि कुछ समय बाद एआईएडीएमके भाजपा की 'बी टीम' बनकर न रह जाए।
एमजी रामचंद्रन के निधन के बाद जिस तरह की शून्यता तमिलनाडु की राजनीति में आई थी, बहुत कुछ वैसी ही स्थिति आज बनी हुई है। इसलिए तमिलनाडु की राजनीति में नई पारी की शुरुआत करने के लिए भाजपा समेत कई पार्टियों ने अपनी संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी हैं। सत्ता के गलियारे तक एआईएडीएमके को पहुंचाने में गौंदर समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है लेकिन गौंदर समुदाय को न तो पार्टी में और न ही सरकार में कोई अच्छा पद दिया गया। माना जा रहा है कि अच्छा ओहदा नहीं मिलने पर गौंदर समुदाय से इसके ख़िलाफ़ कुछ आवाज़ें उठ सकती हैं। चूंकि थेवर समुदाय के पन्नीरसेल्वम को दो बार मौका मिल चुका है, इसलिए सरकार चलाने का अगला मौक़ा गौंदर समुदाय को देने की मांग भी उठ सकती है। इस सबके बीच भाजपा एआईएडीएमके की अंदरुनी उथल-पुथल पर नजर बनाए रखेगी ताकि उसे अपने पांव पसारने का मौका मिल सके।
पिछले साल मई में हुए विधानसभा चुनाव में एआईएडीएमके ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई है। लेकिन करिश्माई जयललिता की मौत के बाद सत्ता के लिए ऐसी लड़ाई होगी किसी ने सोचा भी नहीं था। पन्नीरसेल्वन, थंबीदुरैय और पोनय्यन जैसे नेता मुख्यमंत्री के दावेदार थे लेकिन शशिकला काफी ताकतवर बनकर उभरी थी। अगर ऐन वक्त सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आता तो शायद शशिकला पलानीस्वामी की जगह मुख्यमंत्री बनकर तमिलनाडु पर राज कर रही होंती।
मुख्य विपक्षी डीएमके इस पूरे घटनाक्रम का फायदा उठाने के लिए इंतजार कर रही थी, लेकिन शशिकला जेल जाने से इतना कुछ कर गईं जिससे ना तो पन्नीरसेलवम की कोई दाल गली और ना ही डीएमके कुछ कर पाई। दरअसल, डीएमके के करिश्माई नेता एम. करुणानिधि बीमार चल रहे हैं और पार्टी पर उनकी पकड़ भी ढीली पड़ गई है। डीएमके के ज्यादातर कैडर एमके स्टालिन को समर्थन दे रहे हैं। यानी डीएमके भी अनिश्चितता के माहौल से गुजर रही है। स्टालिन ने ही साल 2014 में हुए संसदीय चुनाव और साल 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व किया था। डीएमके की साख पर मुरासोली मारन पर भ्रष्टाचार के चल रहे मामले भी बट्टा लगा रहे हैं। अब डीएमके को या तो साढ़े तीन साल तक इंतजार करना होगा या फिर एआईएडीएम के दो-फाड़ होने की तरकीब भिड़ाएगा।
जहां तक कांग्रेस पार्टी की बात है तो वर्ष 1967 के बाद तमिलनाडु में कांग्रेस कभी शक्तिशाली बनकर नहीं उभरी। सत्ता में नहीं आई यह अलग बात है, लेकिन कांग्रेस के पास कभी ज्यादा विधायक की संख्या भी नहीं आई। कांग्रेस यहां डीएमके की पिछल्लगू बनकर रह गई। हालात यह है कि कांग्रेस के पास सूबे में कोई करिश्माई नेता भी नहीं है। तमिलनाडु में भाजपा की उपस्थिति है ही नहीं। भाजपा को अभी भी लोग उत्तर भारत की ही पार्टी लोग मानते हैं। पेरियार की भूमि भाजपा को वोट देने से इनकार करती है। साल 2014 में नरेंद्र मोदी की आंधी पूरे देश में चली लेकिन तमिलनाडु में पत्ता तक नहीं हिला सकी। भाजपा को एआईएडीएमके का सहयोगी के रूप में माना जाता रहा है। इस बात को कोई नहीं भूल सकता कि एनडीए की सरकार में रहते हुए भी डीएमके भाजपा का विरोध करती रही थी।
एआईएडीएमके के समक्ष आगे आने वाले समय में जो सबसे बड़ी चुनौती है वह स्टालिन को टक्कर देने वाले नेता की तलाश है। डीएमके एक संगठित पार्टी है और स्टालिन की पार्टी संगठन पर मज़बूत पकड़ है। कई चुनावों में करुणानिधि की हार के बावजूद पार्टी कैडर ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। ये सच है कि एआईएडीएमके के पास 1.5 करोड़ कैडर हैं लेकिन अब जयललिता नहीं है। दरअसल एआईएडीएमके बदलाव के दौर से गुज़र रही है। पार्टी को एक ऐसा नेता तलाशने में समय लगेगा जो उन्हें चुनाव में जीत दिलवा सके। फिलहाल उनके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी चुनाव जीतने की क्षमता को टेस्ट किया जाए।
पिछले तीन दशकों से तमिलनाडु की राजनीति में महत्वपूर्ण सितारा रहकर अपनी शर्तों पर राजनीति करने वाली जयललिता तमाम अड़चनों और भ्रष्टाचार के मामलों से झटके के बावजूद वापसी करने में सफल रहीं थीं। छठे और सातवें दशक में तमिल सिनेमा में अभिनय का जादू बिखेरनी वाली जयललिता अपने पथप्रदर्शक और सुपरस्टार एमजीआर की विरासत को संभालने के बाद पांच बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं। राजनीति में तमाम झंझावतों का सामना करते हुए उन्होंने अपनी बदौलत अपना मुकाम हासिल किया।
कर्नाटक के मैसूर में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मीं जयललिता की राजनीति में एंट्री 1982 में हुईं जब वह अन्नाद्रमुक में शामिल हुईं थी। वर्ष 1987 में एमजी रामचंद्रन के निधन के बाद पार्टी को चलाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई और उन्होंने व्यापक राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया। भ्रष्टाचार के मामलों में 68 वर्षीय जयललिता को दो बार पद छोड़ना पड़ा लेकिन दोनों मौके पर वह नाटकीय तौर पर वापसी करने में सफल रहीं। नायिका के तौर पर जयललिता का सफर ‘वेन्निरा अदाई’(द व्हाइट ड्रेस) से शुरू हुआ। राजनीति में उनकी शुरूआत 1982 में हुई जिसके बाद एमजीआर ने उन्हें अगले साल प्रचार सचिव बना दिया।
एमजी रामचंद्रन ने करिश्माई छवि की अदाकारा-राजनेता जयललिता को 1984 में राज्यसभा सदस्य बनाया जिनके साथ उन्होंने 28 फिल्में की। 1984 के विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रभार का तब नेतृत्व किया जब अस्वस्थता के कारण प्रचार नहीं कर सके थे। वर्ष 1987 में रामचंद्रन के निधन के बाद राजनीति में वह खुलकर सामने आईं लेकिन अन्नाद्रमुक में फूट पड़ गई। ऐतिहासिक राजाजी हॉल में एमजीआर का शव पड़ा हुआ था और द्रमुक के एक नेता ने उन्हें मंच से हटाने की कोशिश की। बाद में अन्नाद्रमुक दल दो धड़े में बंट गया जिसे जयललिता और रामचंद्रन की पत्नी जानकी के नाम पर अन्नाद्रमुक (जे) और अन्नाद्रमुक (जा) कहा गया।
एमजीआर कैबिनेट में वरिष्ठ मंत्री आरएम वीरप्पन जैसे नेताओं की गुटबाजी की वजह से अन्नाद्रमुक की निर्विवाद प्रमुख बनने की राह में अड़चन आई और उन्हें भीषण संघर्ष का सामना करना पड़ा। जयललिता ने बोदिनायाकन्नूर से 1989 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की और सदन में पहली महिला नेता प्रतिपक्ष बनीं। इस दौरान राजनीतिक और निजी जीवन में कुछ बदलाव आया जब जयललिता ने आरोप लगाया कि सत्तारुढ़ द्रमुक ने उनपर हमला किया और उनको परेशान किया गया। रामचंद्रन की मौत के बाद बंट चुकी अन्नाद्रमुक को उन्होंने 1990 में एकजुट कर 1991 में जबरदस्त बहुमत दिलाई।
अलबत्ता, पांच साल के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपों, अपने दत्तक पुत्र की शादी में जमकर दिखावा करने और उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं करने के चलते उन्हें 1996 में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी द्रमुक के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी। इसके बाद उनके खिलाफ आय के ज्ञात स्रोत से अधिक संपत्ति सहित कई मामले दायर किये गए। अदालती मामलों के बाद उन्हें दो बार पद छोड़ना पड़ा। पहली बार 2001 में और दूसरी बार 2014 में। सुप्रीम कोर्ट द्वारा तांसी मामले में चुनावी अयोग्यता ठहराने से सितंबर 2001 के बाद करीब छह महीने वह पद से दूर रहीं।
तमिलनाडु के राजनीति में एआईडीएमके की सबसे बड़ी विरोधी डीएमके रही है। जयललिता के बाद सियासत में डीएमके की पहुंच अच्छी कही जा सकती है। हालांकि डीएमके के सबसे कद्दावर नेता और पार्टी प्रमुख करुणानिधि अब बीमार रहते हैं और राजनीति में उनकी सक्रियता धीरे-धीरे कम होती जा रही है। लेकिन उनके बेटे एमके स्तालिन ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को अच्छी तरह से संभाल लिया है, लेकिन अब अगर डीएमके फूंक फूंक कर कदम रखती है तो आने वाले वर्षों में एआईडीएमके से आगे आ सकती है। जल्दबाजी डीएमके को भारी पड़ सकती है, क्योंकि जनता का अम्मा और एआईडीएमके से जो भावनात्मक जुड़ाव है, मौजूदा दौर में अगर किसी अन्य पार्टी ने इसपर प्रहार किया तो राजनीति में उस पार्टी के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
जयललिता के दिवंगत होने के बाद अब तमिलनाडु में राजनीति में उथलपुथल देखने को मिल सकता है, जिसका फायदा राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर भाजपा और कांग्रेस दोनों उठाने का प्रयास करेंगी। हालांकि राज्य में एआईडीएमके और डीएमके के इर्दगिर्द ही राजनीति घूमती नजर आती है, लेकिन इनमें से काई भी पार्टी जैसे ही कमजोर पड़ी, राष्ट्रीय पार्टियां वहां पर अपना दांव खेल सकती हैं। भाजपा के लिए अब तमिलनाडु की राजनीति में पैर जमाने का अच्छा समय हो सकता है।
दूसरी तरफ कांग्रेस भी अपनी पहुंच बनाने के प्रयास में है लेकिन उसके लिए यह रास्ता अपेक्षाकृत कठिन है क्योंकि कांग्रेस पहले से डीएमके के साथ रही है, इसलिए इस पार्टी के मुखालिफ मतदाताओं की तलाश होगी। ऐसे में कांग्रेस के लिए हालिया दौर में कुछ बहुत नजर नहीं आता है। लेकिन अगर भाजपा अपने दांव में सफल रही और तमिल में भाजपा को कोई अच्छा चेहरा मिल गया तो भाजपा के लिए वह तुरुप का इक्का साबित हो सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)