भिखारी मत बनाइए अन्नदाता को
राजकुमार सिंह
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा पहली ही कैबिनेट बैठक में किसान कर्ज माफी का चुनावी वायदा (एक लाख रुपये के कृषि ऋण की सीमा में ही सही) वफा कर दिये जाने के बाद हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र समेत अनेक राज्यों से ऐसी मांग उठना स्वाभाविक है। बेशक प्रकृति और व्यवस्था की मार से बेजार किसानों को हरसंभव राहत मिलनी ही चाहिए। अन्नदाता का आत्महत्या करने को मजबूर होना किसी भी सरकार और समाज के लिए अभिशाप ही है, लेकिन कर्ज माफी समस्या से तात्कालिक राहत भर है, समाधान नहीं। समाधान के लिए जरूरी है कि सरकार समस्या की जड़ को समझे और फिर ठोस ईमानदार नीतिगत कदम उठाये।
अकसर प्राकृतिक आपदाएं ही फसल नष्ट कर किसान को आत्महत्या सरीखा कदम उठाने को मजबूर करती हैं, लेकिन सामान्य परिस्थितियों में भी उसे खेती से इतनी आय नहीं होती कि अपना जीवनयापन करते हुए बच्चों की शिक्षा और शादी आदि दायित्वों का निर्वाह बिना कर्ज लिये कर सके। गांव और किसानों के प्रति हमारे बैंकों का जैसा रवैया रहा है, उसके मद्देनजर कर्ज के लिए उन्हें अकसर साहूकार के ही पास जाना पड़ता है, जो शोषण में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ता। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ महज एक कहानी नहीं है, ग्रामीण भारत का भयावह सच भी है। ऐसे में अगर फसल भी नष्ट हो जाये, तब किसान की हताशा का अंदाजा सुख-सुविधा संपन्न शहरी जीवन जीने वाले राजनेता या नौकरशाह नहीं लगा सकते। तभी तो धन्नासेठ डिफॉल्टरों के मामले में असहाय नजर आने वाले बैंक कर्जदार किसानों के चित्र सार्वजनिक कर उन्हें अपमानित करने में भी संकोच नहीं करते।
अब संसद ने कानून में संशोधन कर आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। निश्चय ही यह मानवीय सोच वाला व्यावहारिक और तर्कसंगत सुधार भी है। समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक अरसे से कहते रहे हैं कि आत्महत्या को प्रेरित होने वालों को दंड नहीं, संबल की जरूरत होती है। किसानों के संदर्भ में तो इसका बेहद स्पष्ट उपाय है: खेती को मुनाफे का काम बना दीजिए ताकि किसान अपने परिवार के साथ सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सके। बदलते वक्त के साथ शहरी सभ्यता ने भले ही कर्ज को एक स्वाभाविक जीवनशैली मान लिया हो, मगर गांव में आज भी कर्जदार होना अच्छा नहीं समझा जाता। इसके बावजूद अगर किसान, साहूकार या बैंक से कर्ज लेता है तो वह उसकी मजबूरी का ही प्रमाण है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बजाय उद्योगोन्मुख शहरी अर्थव्यवस्था को चुनते समय भी देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह कल्पना तो निश्चय ही नहीं की होगी कि कृषि प्रधान भारत में एक दिन कृषि कर्ज का अंतहीन चक्रव्यूह बन जायेगी। फिर भी ऐसा हुआ तो जाहिर है कि नीति नियंताओं की इस देश-समाज और इसकी वास्तविक समस्याओं-प्राथमिकताओं की बाबत समझ-सोच दोषमुक्त नहीं रही।
समय के साथ कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था की चुनौतियां गहराती जायेंगी—इसके प्रति आगाह महात्मा गांधी से लेकर चौधरी चरण सिंह तक ने किया, लेकिन न तो सरकार और न ही समाज ने कोई सबक लिया। सच है कि समय के साथ औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की रफ्तार बढ़ी है। देश की अर्थव्यवस्था में उद्योगों समेत कुछ नये क्षेत्रों की हिस्सेदारी भी बढ़ी है, लेकिन इससे कृषि और उस पर आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मुश्किलें कम होने के बजाय बढ़ी ही हैं। जैसे-जैसे परिवार बढ़ेंगे, कृषि का रकबा कम होता जायेगा और उससे होने वाली आय भी, यह बात अकसर कही जाती रही। फिर भी ग्रामीण समाज अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर दूसरे वैकल्पिक रोजगारों के लिए सुनियोजित ढंग से तैयार नहीं कर पाया तो इसके लिए सिर्फ ग्रामीण समाज को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
नजदीक स्कूल-कॉलेज न होना और पर्याप्त धन की कमी भी बड़ी बाधा रही। परिवार बढ़ते रहे और कृषि आय घटती रही। यही नहीं, आजादी के लगभग सात दशक बाद भी हमारी कृषि भूमि सिंचाई के लिए मुख्यत: वर्षा जल पर ही निर्भर है। यही कारण है कि कभी कम वर्षा भी किसान के लिए मारक साबित हो जाती है। अति वर्षा और ओलावृष्टि तो तबाही लाती ही है। विडंबना ये कि एक फसल नष्ट हो जाने पर किसान बिना कर्ज तो अगली फसल की बुवाई भी नहीं कर सकता। ऐसे में कर्ज जाल से मुक्ति संभव ही नहीं। अगर कर्ज माफी इस समस्या का समाधान होता तो वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले वर्ष 2008 में तत्कालीन संप्रग सरकार द्वारा लायी गयी लगभग 65 हजार करोड़ रुपये की कृषि कर्ज माफी योजना के बाद तो देश में किसानों की आत्महत्याएं रुक ही जानी चाहिए थीं, लेकिन वैसा हुआ नहीं।
इसलिए भी किसान और कृषि को अनगिनत समस्याओं के चक्रव्यूह से निकालने के लिए जरूरी है कि कर्ज माफी की लोकलुभावन राजनीति तक सीमित रहने के बजाय आज भी देश की आधी से ज्यादा आबादी के जीवनयापन से जुड़ी खेती को बचाने के लिए ठोस, ईमानदार और दीर्घकालीन नीतिगत प्रयास किये जायें। किसान को फसल विविधीकरण समेत खाद-बीज पर वैज्ञानिक सलाह से लेकर सिंचाई सुविधा और खुले बाजार तक आसान पहुंच के जरिये लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना ही स्थायी समाधान की दिशा में कारगर पहल साबित हो सकती है। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने का वायदा कर चुनाव जीतने वाली और 2022 तक कृषि आय दोगुना करने का नारा देने वाली नरेंद्र मोदी सरकार की इस दिशा में चुप्पी निश्चय ही नीयत और नीति संबंधी अनुत्तरित सवालों को जन्म देती है। (दैनिक ट्रिब्यून से साभार)