मिशन-84 के तिकड़म में त्रिशंकु का तीर
प्रवीण कुमार
असम में 126 विधानसभा सीटों के महासंग्राम में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त करने के लिए 'मिशन 84' का तीन तिकड़म अंतिम चरण में है। भाजपा महीनों से इस मिशन पर काम कर रही है और यहां तक कि उसने कई राज्यों से अलग रूख अपनाते हुए कांग्रेस के तरुण गोगोई के मुकाबले केंद्र सरकार के मंत्री सर्बानंद सोनोवाल के रूप में मुख्यमंत्री के नाम तक की घोषणा कर दी।
आगामी चार और 11 अप्रैल को होने जा रहे चुनाव को लेकर एक सर्वे रिपोर्ट में भाजपा गठबंधन को मजबूत दिखाया गया है। एवीसी सर्वे द्वारा जारी एक रिपोर्ट में फरवरी के पहले सप्ताह तक के हालात के अनुसार असम विधानसभा के कुल 126 सीटों में से भाजपा 47, कांग्रेस 26, एआईयूडीएफ 24, बीपीएफ 15, एजीपी एक और निर्दलीय एक सीटों पर जीतती दिख रही है।
भाजपा को लोकसभा चुनाव (2014) में राज्य की 14 में से 7 सीटें मिली थीं। इससे उसका मनोबल काफी ऊंचा है। भाजपा को ये भी भरोसा है कि लगातार तीन विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद अब कांग्रेस पार्टी और मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की सरकार से लोग ऊब चुके हैं। वो बदलाव चाहते हैं और भाजपा उन्हें एक अच्छी सरकार देने का वादा कर रही है, लेकिन दिक्कत ये है कि असम की जो तस्वीर दूर से दिखती है वो नजदीक जाने पर अलग ही नजर आती है। जमीनी हालात कुछ अलग तरह की राजनीतिक हकीकत को बयां करती हैं।
दरअसल असम अपने आप में एक लघु भारत है। यहां सांस्कृतिक और भाषाई विविधता है। बराक घाटी और ब्रह्मपुत्र घाटी की सोच काफी अलग है और भाषा भी। अपर असम और लोवर असम की अलग-अलग तासीर हैं। भाजपा ने हमेशा की तरह इस बार भी अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ नारे को जोरशोर से उठा रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी चुनावी रैलियों में 'राज्य के विकास' का नारा देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
हालांकि असम के लोगों के लिए अवैध बांग्लादेशियों के घुसपैठ का मुद्दा भावुक जरूर है, लेकिन यह मुद्दा 'मिशन 84' की कामयाबी की गारंटी नहीं देता है। इस मुद्दे पर पिछले चुनाव में (2011) भाजपा को सिर्फ पांच सीटें मिली थीं और इसी मुद्दे को फिर से हवा देना सफलता की गारंटी मानना आत्ममुग्धता के सिवा और कुछ नहीं होगा। वह इसलिए क्योंकि यहां मुस्लिम आबादी 30 फीसदी के करीब है जिसमें अधिकतर बंगाली भाषा बोलने वाले हैं। ये वर्ग हमेशा से कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ को वोट देते आए हैं और इनकी जिंदगी में ऐसा कोई बदलाव नहीं आया है जिससे ये समझा जाए कि इस बार वो इन दोनों पार्टियों को वोट न दें।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए दिल्ली और बिहार में मिली हार के बाद असम एक अहम चुनौती है। पार्टी में उनकी साख बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि वह असम विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करें, लेकिन ये उन्हें भी मालूम है और पार्टी के अन्य अहम नेताओं को भी कि कांग्रेस को हराना इतना आसान नहीं होगा। भाजपा की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि राज्य के 126 विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में से आधे में भी पार्टी की उपस्थिति नहीं है। बुनियादी ढांचों की बेहद कमी है। पार्टी के पास मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की तरह ऊंचे कद का कोई नेता नहीं है।
सियासत के जानकार बताते हैं कि भाजपा ने एजीपी और कांग्रेस से जिन नेताओं को तोड़ कर पार्टी में शामिल किया है उनमें से अधिकतर पार्टी के किसी काम के नहीं हैं। जहां तक असम गण परिषद से चुनावी गठजोड़ की बात है तो यहां एजीपी की घटती लोकप्रियता भाजपा के लिए रोड़ा ही साबित होगी। पार्टी ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ 'विरोधी लहर' का लाभ उठाने के लिए कभी कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई है।
जहां तक कांग्रेस की रणनीति का सवाल है तो वह ये है कि कांग्रेस एआईयूडीएफ के साथ जरूरत पड़ी तो चुनाव के बाद हाथ मिला सकती है। अब इसमें भाजपा के लिए जरूरी यह है कि वह चुनाव से पहले या चुनाव के बाद कांग्रेस और एआईयूडीएफ को साथ नहीं आने दे। लेकिन इस मोर्चे पर काम करने के लिए भाजपा ने कोई रणनीति नहीं बनाई है कि ये कैसे किया जाए। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो भाजपा को अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग रणनीति बनानी चाहिए थी। मसलन, अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा बराक घाटी और ब्रह्मपुत्र घाटी में कारगर नहीं हो सकता क्योंकि दोनों इलाकों के मुद्दे भिन्न हैं।
हालांकि असम में सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण करना बहुत मुश्किल काम नहीं है, लेकिन इस रणनीति से 'मिशन 84' का वो लक्ष्य भाजपा को हासिल होगा कि नहीं, इसकी गारंटी नहीं है। कुल मिलाकर कहा जाए तो अभी तक भाजपा की जीत की राह आसान नहीं दिख रही है, लेकिन पार्टी के लिए इस बार का चुनाव एक बड़ा अवसर है। कांग्रेस यहां डेढ़ दशक से राज करती आ रही है। जाहिर है असम की जनता का कांग्रेस से थोड़ा मोह भंग तो जरूर हुआ होगा।
असम की जातीय राजनीति में भी कांग्रेस हमेशा सफल रही है। 58 फीसदी अहोमिया, 30 प्रतिशत मुस्लिम, 12 फीसदी आदिवासी मतदाताओं के बीच असम की राजनीति बुनावट ऐसी है कि गठबंधन के गणित और जातीयता की चिंताओं के चलते राज्य के बाकी सब मुद्दे गौण हो जाते रहे हैं।
अस्सी के दशक में अहोमिया समाज में जनाधार खोने के बाद तब के कांग्रेसी नेता हितेश्वर सैकिया ने तमाम अल्पसंख्यक समुदायों को जोड़ने की खतरनाक जातीय रणनीति बनाई थी। बाद में जब तरुण गोगोई आए तो अपनी नीतियों में फेरबदल कर कुछ हद तक अहोमिया (58 प्रतिशत) समुदाय का विश्वास जीतने में भी सफलता पाई है। कहने का मतलब यह कि गोगोई ने सैकिया की खतरनाक जातीय रणनीति को और आगे बढ़ाया जिससे कांग्रेस के जनाधार में खासी वृद्धि हो गई।
एक दशक तक मुख्यमंत्री रहने के बाद तरुण गोगोई की छवि इतनी खराब नहीं हुई है कि वह सत्ता से बेदखल हो जाएं। गोगोई हितेश्वर सैकिया की तरह जातीय नफरत फैलाने या फिर प्रफुल्ल महंता की तरह खुलेआम भ्रष्टाचार बढ़ाने के लिए बदनाम नहीं है। हां, यह कह सकते हैं कि गोगोई में वाईएसआर जैसी पकड़ नहीं है, नरेन्द्र मोदी जैसी वाकपटुता और नीतिश कुमार जैसी कार्यक्षमता का भी अभाव है।
बहरहाल, असम के मुद्दे गहरे जरूर हैं, लेकिन वो जमीन पर दिखाई नहीं देते। सत्ता पलट की गुंजाइश है, लेकिन परिवर्तन की आंधी बहती नहीं दिख रही। कौन बनेगा मुख्यमंत्री? किसकी होगी जीत? जाहिर है ये सवाल सबके जहन में है। अगर कोई चमत्कार न हो जाए तो नि:संकोच यह कहा जा सकता है कि पिछली बार की तरह ही इस बार भी त्रिशंकु विधानसभा होगी। कोई एक दल बहुमत के करीब नहीं पहुंचेगा। तब बड़ा सवाल यह होगा कि गठबंधन की सरकार का नेतृत्व कांग्रेस करेगी या भाजपा और असम गण परिषद में से कोई एक।