बजट के हेल्थ स्कीम में छेद-ही-छेद
बब्बन सिंह
अब तक वन लाइनर पंच के लिए विख्यात मोदी सरकार के इस साल के आम बजट को यदि वन लाइनर पंच देना हो तो यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि इस बजट में वन लाइनर पंच है ही नहीं. यहां तक कि बहुचर्चित फ्लैगशिप स्वास्थ्य योजना 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना' की गहराई से जांच करने पर उसमें भी बहुतेरे छेद नजर आ रहे हैं। इसलिए फ़िलहाल अपनी बात इसी विषय तक सीमित रखेंगे।
सबको स्वास्थ्य सुविधा देने के उद्देश्य से इस साल के बजट में इस योजना की घोषणा की गई है जिसके तहत 10 करोड़ गरीब परिवारों को 5 लाख रुपए तक की स्वास्थ्य बीमा दी जाएगी। वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि इसके तहत कुल आबादी के 40 फीसदी यानी 50 करोड़ लोगों का भला होगा। ज्ञात हो कि पहले पहल राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 30 हज़ार की बीमा योजना थी जिसे पिछले साल 1 लाख रुपए तक बढ़ा दिया गया था और इसके लिए 1,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। अब इसे 2,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
वित्त मंत्री के पत्रकार वार्ता में मंत्रालय के एक सचिव का कहना था कि अभी इस योजना का ब्लू प्रिंट तैयार नहीं है और प्रायोगिक दौर के बाद तय किया जाएगा कि दो-तीन योजनाओं में से किस एक योजना का चयन इसके लिए हो। पर उन्होंने इस बात को भी सूचित किया कि इस योजना के लिए इस साल के बचे दो माह की राशि आवंटित कर दी गई है। नीति आयोग के कार्यकारी प्रशासक अमिताभ कान्त का कहना था कि इसके तहत केंद्र सरकार और राज्य सरकार की हिस्सेदारी 60:40 की होगी और यह आंध्रप्रदेश या केरल में जारी यूनिवर्सल स्वास्थ्य योजना का ही स्वरूप होगा।
उल्लेखनीय है कि ये दोनों स्वास्थ्य योजनाएं बेहद जनप्रिय हैं। बकौल अमिताभ कान्त इसके लिए हर व्यक्ति को साल में 1100 रुपए की बीमा पालिसी लेनी होगी, अर्थात एक परिवार के 5 सदस्यों के लिए 5500 रुपए के प्रीमियम पर पांच लाख का स्वास्थ्य बीमा कवर होगा। हालांकि पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री का मानना है कि फिलहाल वे इससे बेहतर स्वास्थ्य योजना चला रहे हैं और उसकी जगह केंद्र सरकार एक ऐसी योजना लाना चाह रही है जिसका ब्लू प्रिंट बनने में भी अभी और छह माह लगेंगे।
पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा जैसे विशेषज्ञ पहले से चिंता व्यक्त करते रहे हैं कि यह सरकार पुरानी योजनाओं का ही चोला बदल फ्लैगशिप योजनाओं की घोषणा करती रही है, इस पर नीम हकीमी तुर्रा यह है कि सरकार उसके क्रियान्वयन की भी ठीक से देखभाल नहीं करती। फलतः ऐसी योजनाएं कागज पर ही रह जाती है। सड़क विकास व उज्जला जैसी योजनाओं को छोड़ दिया जाए तो मोदी सरकार की अधिकांश योजनाओं का यही हश्र हुआ है। लेकिन संदेह इस बात को भी लेकर है कि इसका फायदा तो केवल अस्पतालों में भर्ती हुए रोगियों को ही मिल सकता है जबकि गांव के गरीब अपने स्वास्थ्य संबंधी अधिकांश खर्चों का 80 फीसदी तो दवा और डॉक्टरों पर ही गंवा देते हैं। ऐसे में बचे मात्र 20 फीसदी के लिए ही वे बीमा कंपनियों से दावा करने के हकदार होंगे जो कि व्यवहारिक से लाभदायक नहीं प्रतीत होगा।
दूसरी ओर गांव में सरकारी प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं की वर्तमान हालात में हितग्राही कैसे इस योजना का फायदा उठाएंगे यह भी विवाद का मुद्दा है? अधिकांश आलोचक मान रहे हैं कि यह बीमा आधारित निजी अस्पताल उद्योगों को आगे बढ़ाने का प्रयास है। उनके विरोध के पीछे तर्क है कि अधिकांश पश्चिमी देशों में इसी तरह के प्रारूप के कारण चिकित्सा इतना महंगा हो गया है कि वहां के बहुतेरे नागरिक केवल इलाज के लिए भारत जैसे सस्ते स्वास्थ्य मुहैया कराने वाले देशों में यात्रा वीजा लेकर आते हैं। कदाचित इसीलिए अमेरिका जैसे देश में ऐसे लोगों को इससे मुक्ति दिलाने के लिए बराक ओबामा के शासन काल में सार्वजनिक ओबामा केयर आरंभ किया गया था।
आलोचकों का मानना है कि इस योजना से एकमात्र लाभार्थी निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियां व बड़े अस्पताल होंगे और अंततः और धनी देशों की तरह भारत में अपने पैसे से चिकित्सा कराना असंभव हो जाएगा। कुछ आलोचकों का यह भी मानना है कि इसके बदले ग्रेट ब्रिटेन के चिकित्सा मॉडल को अपनाना चाहिए था जहां प्रारंभिक स्तर की चिकित्सा निजी क्षेत्र के अधिकार में है और मध्य और विशेषज्ञ चिकित्सा सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों के हाथ में है। वैसे निजीकरण के इस भारतीय दौर में इस बात की बहुत कम संभावना है कि सरकार ऐसा करेगी क्योंकि ऐसा करना ही होता तो सरकार सार्वजनिक प्राथमिक और विशेषज्ञ अस्पतालों के स्वास्थ्य को ठीक करने के प्रयास पर जोड़ देती।
कुछ अन्य जानकारों की मानें तो मात्र 2000 करोड़ की प्रस्तावित राशि से किस जिन्न की मदद से सरकार 40 फीसदी से ज्यादा आबादी के स्वास्थ्य रक्षा की उम्मीद जगा सकती है? यहां तक कि नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया ने भी इस नगण्य राशि के आवंटन पर सवाल खड़ा किया है। हालांकि वे मानते है कि जल्द संसदीय चुनाव की विवशता में सरकार को आनन-फानन में ऐसे कदम उठाने पड़े हैं।
वर्तमान योजना में एक पेच ये भी है कि गांव के अधिकांश लोगों तक इस तरह की पूर्व की योजनाओं की ही खबर नहीं तो यह योजना कैसे वास्तविक लाभग्राहियों तक पहुंचेगी? निजी मेडिकल विशेषज्ञों ने इस योजना का पुरजोर स्वागत किया है क्योंकि उन्हें उम्मीद है इस योजना का बहुत बड़ा हिस्सा निजी अस्पतालों व चिकित्सकों की ओर ही आने वाला है। स्वाभाविक है ऐसे में इस योजना का भी वही हश्र होना है जिस बारे में यशवंत सिन्हा जैसे आलोचक लगातार चेतावनी दे रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और आर्थिक मामलों के विश्लेषक हैं।)