कर्नाटक प्रहसन से विपक्षी एकजुटता को मिली संजीवनी
राजीव रंजन तिवारी
कर्नाटक में हुए सियासी प्रहसन के बाद देश भर जो संदेश गया है, उसी के मद्देनजर यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि क्या इसका असर वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक रहेगा? अपने आप में यह बड़ा सवाल है। कर्नाटक विधानसभा में फ्लोर टेस्ट से पहले भले ही बीएस येदियुरप्पाल ने इस्तीफा देकर ज्यादा किरकिरी होने से खुद को बचा लिया, लेकिन इस पूरे प्रकरण में भाजपा ने काफी-कुछ खोया है। इतना ज्यादा खोया जिसकी भरपाई आने वाले तीन विधानसभा चुनावों और 2019 चुनाव तक भी शायद ही हो सके। जानकार मानते हैं कि कर्नाटक में भले ही कांग्रेस के सहारे जेडीएस को लाभ मिला हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की है। सदन में भाजपा को हराने की कांग्रेस की जिद ने राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता को मजबूत किया है। कर्नाटक विधानसभा में बहुमत के आंकड़े से पीछे रह जाने के बावजूद भाजपा ने सरकार बनाने की जिद की। इससे निश्चिुत तौर पर भाजपा की छवि को बड़ा नुकसान पहुंचा। जनता के बीच ये संदेश गया कि अब किसी भी तरह जोड़-तोड़ कर सत्ता हासिल करना ही भाजपा का मकसद रहा गया है। ये एकदम साफ था कि भाजपा भले ही विधानसभा में 104 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी हो, लेकिन बिना अनैतिक जोड़-तोड़ किए, बिना खरीद-फरोख्त़ में हाथ डाले, बहुमत का आंकड़ा हासिल करना मुमकिन नहीं है। इसके बावजूद अगर भाजपा ने बहुमत हासिल करने का दम भरा तो इसके पीछे उसकी मंशा जाहिर हो गई।
कर्नाटक की सत्ता हाथ आते ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी फॉर्म में आ गए। बीएस येदियुरप्पा के इस्तीफे के तुरंत बाद राहुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पीएम मोदी, भाजपा और इसके रहनुमाओं को कायदे से घेरा। द क्विंट में अमरेश सौरभ ने लिखा है कि राहुल अगर आत्मविश्वास से लबरेज नजर आ रहे हैं तो इसके पीछे केवल कर्नाटक की सत्ता से अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वी को दूर धकेलने की खुशी नहीं है। वे अब भाजपा को उसी की शैली में जवाब देने की कला सीख गए हैं। बीएस येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद राहुल गांधी ने सबसे पहले कर्नाटक विधानसभा में भाजपा विधायकों के आचरण पर सवाल उठाए। राहुल ने कहा कि सदन में राष्ट्र्गान पूरा होने से पहले ही भाजपा के विधायक उठकर जाने लगे जो कि परंपराओं और राष्ट्रगान का अपमान है। जाहिर है, राहुल गांधी ने भाजपा को ये साफ-साफ बताने की कोशिश की है कि केवल भगवा पार्टी ही देशभक्ति का कॉपीराइट अपने नाम नहीं करा सकती है। राहुल गांधी ने भाजपा और आरएसएस पर संवैधानिक संस्थाओं को दबाने का आरोप लगाकर बड़ा मुद्दा छेड़ दिया। राहुल ने कहा कि प्रधानमंत्री को समझना होगा कि वे देश से बड़े नहीं हैं। वे देश के लोगों से बड़े नहीं हैं, देश की किसी भी संवैधानिक संस्थाओं से बड़े नहीं है, वे सुप्रीम कोर्ट से बड़े नहीं हैं। आज राज्यपाल के पास भी कोई अधिकार नहीं रह गया है। राहुल गांधी ने भाजपा के खिलाफ ये बातें ऐसे वक्त में कही हैं, जब कुछ संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। जब कांग्रेस सत्ता में थी, तो भाजपा उन्हीं संस्थाओं की स्वायत्तता पर खतरा होने की बात कहकर उसे घेरती थी। अब कांग्रेस भाजपा को उसी की भाषा में जवाब दे रही है। गुजरात चुनाव में प्रचार के वक्त राहुल गांधी की भाषा बेहद सौम्य नजर आ रही थी, जबकि नरेंद्र मोदी राहुल गांधी पर निजी हमले करने से नहीं चूक रहे थे। राहुल अब अपनी उस पॉलिसी को बदलने को तैयार दिख रहे हैं।
दरअसल, कर्नाटक को लेकर देश के लोगों में यह धारणा बैठ गई थी कि भाजपा अगर जीती तो सरकार तो बनाएगी ही, अगर नहीं जीती तो पक्का बनायेगी। पर कांग्रेस की समयोचित सक्रियता से भाजपा का सारा जुगाड़ बिखर गया। कांग्रेस ने साबित कर दिया कि उसने यूं ही छप्पन साल तक देश पर शासन नहीं किया। कुछ तो गुणा-भाग उसे भी आता था। गुजरात में अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव के बाद ये दूसरा मौका है जिसने साबित किया कि राजनीतिक प्रबंधन के खेल में कांग्रेस अगर अपने पर उतर जाए तो फिर उसे हराना आसान नहीं होगा। गुजरात में अमित शाह ने पूरी ताकत लगा दी थी। चुनाव आयोग तक को अपने साथ मिलाने की कोशिश की पर आधी रात के खेल में वो चूक गये। कर्नाटक में कांग्रेस के दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद और अशोक गहलोत और कर्नाटक के डीके शिवकुमार की तिकड़ी ने काउंटिंग के दिन से जो दांव चले उसकी भनक भाजपा को नहीं थी। नतीजे आते इसके पहले जेडीएस को समर्थन का ऐलान कर भाजपा के अगले दांव को भोथरा कर दिया। और जब राज्यपाल ने सरकार बनाने का मौका दिया तो सुप्रीम कोर्ट जाकर भाजपा को चित कर दिया। ये दोनों मास्टरस्ट्रोक थे जिसका जवाब भाजपा के पास नहीं था। भाजपा पुराने हथकंडे पर उतरी तो सारी बातचीत फोन में कैद हो गई। मुख्यमंत्री येदियुरप्पा तक विधायक खरीदने की दौड़ में रंगे हाथ पकड़े गये। सारी नैतिकता उतर गई। लोगों को चेहरा दिख गया कि मोदी जी कहें कुछ भी पर वो पुराने कांग्रेस से कतई बेहतर नहीं हैं। मोदी के लिए उनकी पूरी जमा पूंजी उनकी कभी न हारने वाली छवि थी। अब वो हारते दिखे। वो अजेय नहीं हैं। उन्हे मात दी जा सकती है। जंग में ये मनोवैज्ञानिक बढ़त सेना को कई गुना खतरनाक बना देती है। ऐसे में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस पूरे जोश और मनोबल के साथ उतरेगी। ये मोदी जी के लिये अच्छी खबर नहीं है।
कर्नाटक के पावर गेम में जब येदियुरप्पा की भाजपा सरकार महज ढाई दिनों में ही गिर गई तो कांग्रेस कैंप में बस तीन मस्कीटियर्स की ही चर्चा थी। अभिषेक मनु सिंघवी, गुलाम नबी आजाद और अशोक गहलोत जिन्होंने न केवल कर्नाटक की सत्ता में काबिज होने के लिए आक्रामक रुख अख्तियार कर चुकी भाजपा को रोका बल्कि चुनावी लड़ाई में पिछड़ने के बावजूद पार्टी को आगे कर दिया। अब कर्नाटक के घटनाक्रम ने सभी क्षेत्रीय पार्टियों को संदेश दिया है एक रहे तो राज करोगे, लड़ोगे तो जेल जाओगे। ममता हो या फिर लालू, एआईएडीएमके हो या बीजू जनता दल या आप सब पर सरकारी जांच एजेंसियों का डर भारी है। चिदंबरम तक के जेल जाने की आशंका है। बचा कौन है? नीतीश कुमार का हाल सब देख रहे हैं। नीतीश के लिए मोदी से मिलना कठिन हो गया है। अमित शाह भी नहीं मिलते। रामलाल से मिलना पड़ता है। कहां विपक्ष नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बना रहा था। उनसे बेहतर कौन जानता होगा कि मोदी जी कैसे अपने पाले में लाने के बाद दुलत्ती देते हैं कि आदमी पानी नहीं मांग पाता। कर्नाटक के नतीजों से कांग्रेस को मदद मिलेगी और इससे आने वाले वक्त में विपक्ष भी एकजुट होगा। कर्नाटक में भाजपा को सिर्फ़ 104 सीटें मिलने और अब कांग्रेस और जेडीएस की साझा सरकार बनने से देश में ये संदेश गया है कि कहीं ऐसा ही साल 2019 में भी न हो जाए कि भाजपा बहुमत से पीछे छूट जाए। यदि ये संदेश देश में जाता है तो विपक्ष ये कोशिश करेगा कि हम ऐसा ही करें और भाजपा को बहुमत से कम पर सीमित कर दें। कर्नाटक के सियासी घटनाक्रम के बाद कांग्रेस और विपक्षी खेमे में जश्न का माहौल है। कांग्रेस के पक्ष में सोशल मीडिया पर धुंआधार पोस्ट डाले जा रहे हैं। इन पोस्टों में कहा जा रहा है कि वर्ष 2019 कांग्रेस का है। कांग्रेस ही जीतेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)