क्या राजनीति दल पब्लिक अथॉरिटी नहीं है?
सत्ता विमर्श टीम
केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले के बाद सूचना के अधिकार के दायरे में राजनीतिक दलों को होना चाहिए या नहीं होना चाहिए को लेकर जो एक बहस छिड़ी थी वह लगभग दम तोड़ गया है। क्योंकि सरकार ने फैसला किया है कि इससे संबंधित आरटीआई कानून में संशोधन लाया जाएगा और इसे संसद से पारित कराकर कानून बना दिया जाएगा जिसमें राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने का प्रावधान होगा। इसमें सभी राजनीतिक दलों की एक राय है इसलिए संसद में इस संशोधन प्रस्ताव के गिरने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन इसको लेकर जो एक बहस छिड़ी थी उसमें किसने क्या कहा उसे जानना जरूरी होगा--
राजनीतिक दल पब्लिक अथॉरिटी नहीं : सिब्बल
केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि राजनीतिक दल सार्वजनिक अथारिटी नहीं, बल्कि लोगों का एक स्वैच्छिक संघ है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आरटीआई कानून में दो संशोधनों का प्रस्ताव मंजूर किया है, जिससे केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) के उस फैसले की काट निकल सके, जिसमें कहा गया है कि राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई कानून के दायरे में आना चाहिए। सरकार के कदम को सही ठहराते हुए कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि राजनीतिक दल पब्लिक अथारिटी नहीं हैं। राजनीतिक दल लोगों का स्वैच्छिक संघ है जिसमें लोग शामिल हो सकते हैं या फिर उसे छोड़ सकते हैं। सिब्बल ने कहा, ‘हमारा चुनाव होता है। हम अधिकारियों की तरह नियुक्त नहीं होते। कैबिनेट ने आरटीआई कानून की धारा-2 (एच) में संशोधन का प्रस्ताव इस आधार पर मंजूर किया है कि राजनीतिक पार्टियां पब्लिक अथॉरिटी नहीं हैं। लिहाजा यह कानून उन पर लागू नहीं होता।‘ सिब्बल ने कहा कि राजनीतिक पार्टियां जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत ही पंजीकृत और मान्यता प्राप्त होती हैं। अगर राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून के दायरे में लाया गया तो वे काम नहीं कर सकेंगे।
कानून मंत्री ने कहा कि अगर राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून के दायरे में लाया गया तो उनके पास ऐसे आवेदनों की भरमार हो जाएगी, जिनमें उम्मीदवार के चयन के बारे में पूछा जाएगा। पूछा जाएगा कि कोर समूह या राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में क्या हुआ। पूछा जाएगा कि घोषणा पत्र में किए गए वायदे को पूरा क्यों नहीं किया गया। सिब्बल के मुताबिक सूचना आयुक्तों ने कहा है कि हम प्राधिकारी हैं क्योंकि हमें काफी वित्तपोषण मिलता है। सभी राजनीतिक दलों ने इस बात को गलत बताया है। हम आयोग का सम्मान करते हैं लेकिन हमें चिंता भी है। उन्होंने स्वीकार किया कि राजनीतिक दलों के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए और कदम उठाने की जरूरत है। लेकिन साथ ही संकेत भी दिया कि ऐसा आरटीआई (सूचना का अधिकार) के जरिए नहीं किया जा सकता। यह पूछने पर कि उनकी सरकार केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले के खिलाफ अदालत क्यों नहीं गई। उसने कानून में संशोधन का रास्ता क्यों चुना।
सिब्बल का कहना था कि सीआइसी का आदेश चूंकि कार्यान्वयन में है इसलिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत थी। इसीलिए सीआइसी के आदेश की काट निकालने के लिए सरकार संशोधन विधेयक लाएगी। सरकार ने राहत पाने के लिए हाईकोर्ट में जाने का विकल्प खुला रखा है। सीआइसी के आदेशों पर हाईकोर्ट में अपील की जा सकती है। सिब्बल ने कहा कि जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29 (बी) के तहत राजनीतिक दल दान ले सकते हैं। धारा 29-सी के तहत राजनीतिक दल चुनाव आयोग को अपने दान के बारे में जानकारी देते हैं और 75-ए के तहत आयोग को सभी संपत्तियों और देनदारियों का ब्योरा देते हैं। 20 हजार रुपए से कम के योगदान का ब्योरा आयोग को नहीं देने के प्रावधान के बारे में पूछने पर सिब्बल ने कहा कि नियमों का उल्लंघन करने वाले किसी भी राजनीतिक दल से निपटने के लिए कानून है।
हमें आरटीआई से नहीं डरना चाहिए : रघुवंश
राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने आरटीआई कानून में संशोधन का यह कहते हुए विरोध किया कि राजनीतिक दलों को पारदर्शिता से नहीं डरना चाहिए। सिंह ने कहा, ‘मैं दोनों ही बातों से सहमत नहीं हूं। एक तो राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे से बाहर निकलने के लिए एक साथ हो गये हैं और दूसरा सरकार इस संबंध में कानून में संशोधन कर रही है। हम पारदर्शिता से क्यों डर रहे हैं? हमें खुद ही अपने बारे में सूचना देनी चाहिए लेकिन हो ये रहा है कि हम सूचनाएं मांगने पर भी देने से इंकार कर रहे हैं।
आरटीआई के दायरे में हों राजनीतिक दल: संतोष हेगड़े
राजनीतिक दलों को आरटीआई से बाहर रखने के सरकार के कदम की आलोचना करते हुए उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) एन. संतोष हेगड़े का कहना है कि राजनीतिक पार्टियां सार्वजनिक निकाय हैं और वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं जो उनके धन के स्रोत को जानना चाहती है। टीम अन्ना के आंदोलन के समय उसके सक्रिय सदस्य रहे हेगड़े ने कहा कि लोगों को समग्र रूप से राजनीतिक दलों की गतिविधियों का पता होना चाहिए और यह स्पष्ट है कि पार्टियां सत्ता में हों या नहीं लेकिन उनका सार्वजनिक मुद्दों से लेना-देना होता है। कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त ने राजनीतिक दलों को आरटीआई से छूट प्रदान करने के केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक अगस्त के फैसले पर उक्त प्रतिक्रिया दी।
उन्होंने कहा, ‘मेरी राय है कि राजनीतिक दल सार्वजनिक निकाय हैं। उनकी प्रशासन में बड़ी भूमिका है और इसलिए उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। उनके मामले में पारदर्शिता भी होनी चाहिए। पारदर्शिता लोकतंत्र की आधारशिला है।’ हेगड़े ने राजनीतिक दलों के रूख पर निशाना साधते हुए कहा कि वे ‘सर्वशक्तिमान’ हैं लेकिन जनता के प्रति जवाबदेही नहीं रखते और उनपर पारदर्शिता लागू नहीं होती। चुनावों में भारी-भरकम धन खर्च किये जाने की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘लोग जानना चाहेंगे कि उन्हें धन कहां से मिलता है। भारत से या विदेश से। कौन से उद्योगों ने उन्हें पैसा दिया। उद्योग इनसे क्या फायदे उठाते हैं।’
अरूणा रॉय भी आरटीआई में संशोधन के खिलाफ
सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय ने राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून से बाहर रखे जाने पर नाखुशी जाहिर करते हुए कहा कि राजनीतिक दल कम से कम अपने वित्तीय मामलों को लेकर सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आने ही चाहिए। रॉय ने कहा कि जनता को यह जानने का अधिकार है कि किस राजनीतिक दल ने कितना खर्च किया है। चाहे वे किसी भी विचारधारा से जुड़े हों। उन्होंने कहा कि सूचना का अधिकार कानून बनाते समय इस बात पर सहमति जताई गई थी कि सूचना के अधिकार में यदि संशोधन की जरूरत पड़ी तो आम राय से संशोधन किया जाएगा लेकिन आरटीआई कानून से राजनीतिक दलों को बाहर रखे जाने का फैसला किया गया तो किसी से राय नहीं ली गई । रॉय ने कहा कि सामान्य तौर पर एक ही मुद्दे पर अलग-अलग मत रखने वाले राजनीतिक दल अपनी बात को छिपाने के लिए एकमत हो गए हैं।
जनता के लिए वरदान तो पार्टियों के लिए अभिशाप कैसे : संघ
आरटीआई के फंदे और सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णयों से बचने के लिए सरकार और सभी दलों की गलबहियां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को रास नहीं आई हैं। संघ ने इसे कर्तव्यों का खूंटा उखाड़कर स्वतंत्रता की आड़ में बिना किसी रोक-टोक के आजादी हासिल करने जैसा करार दिया है। संघ के मुखपत्र पांचजन्य के संपादकीय में इस मुद्दे पर सभी दलों की दिखाई गई एकजुटता पर करारा प्रहार किया गया है। संपादकीय में कहा गया है कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में जनआकांक्षाओं और चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए सभी दल एक हो गए हैं। पार्टीलाइन टूट गई है और सभी दलों का चेहरा एक हो गया है। आरटीआई के फंदे से निकलने के लिए संविधान संशोधन प्रस्ताव पर कैबिनेट की मुहर और सभी दलों के एकजुट होने की भी संघ ने आलोचना करते हुए कहा कि वर्तमान समय में भारतीय राजनीति सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। संघ ने पूछा है कि क्या आरटीआई के दायरे में लाए जाने या सुप्रीम कोर्ट का अपराधियों की राजनीति में घुसपैठ रोकने के लिए दिया गया फैसला गलत था, या फिर दलों की नीयत में ही खोट आ गई है। इस संपादकीय में इन फैसलों को पलटने के लिए सरकार और दलों की दलील को भी हास्यास्पद करार दिया गया है। जनप्रतिनिधित्व कानून और संसद की सर्वोच्चता का बहाना ओढ़ने वाले दलों को संघ ने याद दिलाया है कि जनप्रतिनिधियों के अधिकार कर्तव्यों के खूंटे से बंधे हुए हैं।
राजनीतिक दलों को कोर्ट जाना चाहिए : कश्यप
कानूनविद सुभाष कश्यप कहते हैं कि अब तक किसी भी सियासी दल ने इस फैसले के कानूनी पहलू को चुनौती नहीं दी है, सिर्फ व्यवहारिक दिक्कतें गिनाई हैं। कश्यप कहते हैं कि हकीकत में फैसले में कानूनी नजरिये से कोई खोट है ही नहीं, इसलिए इसे अब तक कोर्ट में नहीं उठाया गया है। जहां तक व्यावहारिक दिक्कतों की बात है तो इनका समाधान किया जा सकता है। इतना ही नहीं आरटीआई कानून में खुद इस बात का प्रावधान है कि किसी संस्था को महज परेशान करने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। केंद्रीय सूचना आयोग का फैसला आने के बाद दूसरी सबसे बड़ी हकीकत यह भी सामने आई है कि अब तक किसी भी राजनीतिक दल ने इसे किसी उच्च अदालत में चुनौती नहीं दी है। स्पष्ट है कि सभी दल इस हकीकत से वाकिफ हैं कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में आयोग के फैसले को चुनौती देने पर उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी।
सियासी दलों को हुक्का-पानी बंद होने की चिंता : अग्रवाल
आरटीआई कार्यकर्ता और याचिकाकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल कहते हैं कि राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में आने से उनका हुक्का-पानी बंद होने की चिंता सता रही है। सियासी दलों की दो मुख्य दलीलें हैं। पहली दलील है कि यह फैसला स्वीकार करने पर सभी दलों को देश भर में अपने सभी पार्टी कार्यालयों पर सूचना अधिकारी तैनात करने होंगे जो कि सीमित संसाधनों वाले दलों के लिए व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं होगा और दूसरी दलील है कि इसके लागू होते ही आरटीआई आवेदनों की बाढ़ आ जाएगी जिसे राजनीतिक दलों के लिए संभालना मुमकिन नहीं होगा।