साख बचाने और प्रतिष्ठा पाने की जंग
राजीव थपलियाल
पांच लोकसभा सीटों वाले उत्तराखंड को आमतौर पर कम आंकने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए यह राज्य इस बार काफी महत्वपूर्ण हो चुका है। मोदी के सहारे देश की शीर्ष सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रही भारतीय जनता पार्टी जहां इन पांचों सीटों को अपनी झोली में डालने की इच्छा रखती हैं, वहीं मौजूदा सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस भी किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए हुए अपनी ‘इज्जत’ बचाने की चाह रख रही है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का सूबे की सियासत में कोई खास स्थान नहीं हैं, हां! आम आदमी पार्टी से जुड़े लोग जरूर भाजपा और कांग्रेस के सियासी समीकरण बिगाड़ने का मंसूबा रखते हों, लेकिन इस चुनावी समर में केजरीवाल की पार्टी बड़ा खेल कर पाने की स्थिति में फिलहाल नहीं नजर आती है। सूबे की एकमात्र क्षेत्रीय पार्टी यूकेडी खुद कई भागों में विभाजित हो चुकी है, इसलिए वह भीहार-जीत की दौड़ से बाहर है। सीधी सी बात है कि सूबे से संसद में पहुंचने का माद्दा केवल भाजपा और कांग्रेस उम्मीदवार ही रखते हैं। इसलिए सियासी हालात का विश्लेषण करें तो उत्तराखंड में 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने साख बचाने की चुनौती है तो भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में अपनी खोयी प्रतिष्ठा को वापस हासिल करने के लिए पसीना बहाना होगा।
देश में मोदी लहर है और उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। शायद इसी बात को भांपकर कांग्रेस हाईकमान ने उत्तराखंड में मोदी के असर को कम करने के लिए सत्ता परिवर्तन का रिस्क उठाया। निवर्तमान मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की आलोचनाओं से तंग आकर कांग्रेस ने केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री को उत्तराखंड की सत्ता की डोर सौंप दी। लेकिन, सिर्फ सीएम बदल जाने भर से सूबे में ज्यादा कुछ नहीं बदल जाने वाला है। 2014 की चुनावी बेला में कांग्रेस ही नहीं भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों को आपदा की मार खाए पहाड़ी उत्तराखंड में परीक्षा देनी होगी। खराब सड़क संपर्क, हर चार कदम पर दगा दे जाता मोबाइल नेटवर्क और जब तब बिगड़ जाता मौसम प्रत्याशियों के धैर्य की परीक्षा भी लेगा और मतदाताओं से दूरी बनाए रखने का काम भी करेगा। इसके उलट, मैदानी क्षेत्रों में प्रत्याशी चेतक पर सवार होंगे। एक ही दिन में 10-10 जनसभाएं करने की योजना पर अमल करेंगे और देर रात तक भी चुनावी रणनीति में उलझे रह सकेंगे।
उत्तराखंड के करीब साढ़े नौ जिले पर्वतीय क्षेत्रों में हैं। इस हिसाब से करीब तीन संसदीय सीटें हैं जो पर्वतीय जिलों से मिलकर बनी हैं। नैनीताल संसदीय सीट में नैनीताल का कुछ हिस्सा पहाड़ी है। इसी तरह टिहरी सीट में देहरादून का कुछ हिस्सा मैदानी है। भाजपा शासन के दौरान वर्ष 2010-11 की खासी बरसात के कारण प्रदेश के पर्वतीय जिलों में करीब 14 हजार किलोमीटर सड़कों को नुकसान हुआ था। इसका असर 2012 के विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला था। हाल यह था कि कई क्षेत्र ऐसे थे जहां प्रत्याशी पहुंच ही नहीं पाए। हालांकि मतदाताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी। सबसे दुरूह माने जाते उत्तरकाशी में मत प्रतिशत करीब 70 प्रतिशत रहा था। पर प्रत्याशियों को यह मलाल रह ही गया कि क्षेत्र में पहुंचकर भी मतदाताओं से सीधी बात नहीं कर पाए। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। टिहरी संसदीय सीट का क्षेत्रफल करीब 15 हजार वर्ग किलोमीटर है और यहां मतदाता करीब 13 लाख हैं। जाहिर है कि करीब 13 लाख मतदाताओं की नब्ज टटोलने के लिए खासी मशक्कत प्रत्याशियों को करनी होगी। इसके उलट हरिद्वार से तुलना करें। कुल दो हजार वर्ग किलोमीटर और मतदाता 15.5 लाख। जाहिर है कि कम समय में अधिक से अधिक लोगों से मिलने में कोई परेशानी नहीं होगी। दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों में सड़कों का जाल है और यातायात भी सुलभ। परेशानी का एक बड़ा कारण पर्वतीय जिलों में अलग-थलग बिखरी जनसंख्या भी है। पहाड़ में पांच हजार से ज्यादा आबादी वाले कस्बे और गांव अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। ऊपर से पहाड़ की सड़कों का हाल बुरा है।
बीती 16-17 जून को सिर्फ केदारघाटी में ही नहीं बल्कि अधिकतर पर्वतीय जिलों मेंबरसात ने तबाही मचाई थी। करीब 4000 किलोमीटर सड़कों और 150 पुलों को नुकसान पहुंचा था। ऐसे में सड़क मार्ग से चुनाव प्रचार करना समय के हिसाब से भी बेहद खर्चीला होगा। टिहरी, पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा जैसी संसदीय सीटों की दुरूहता का एक अंदाजा पोलिंग बूथों की स्थिति से भी लगाया जा सकता है। प्रदेश में करीब 1700 बूथ ऐसे हैं जहां पर मतदान पार्टियों को करीब तीन से लेकर 20 किलोमीटर तक की दूरी पैदल नापनी होती है। 20 किमी से अधिक की पैदल दूरी वाले पोलिंग बूथ उत्तरकाशी और चमोली जिले में हैं। मतलब कि टिहरी संसदीय सीट और पौड़ी संसदीय सीट के प्रत्याशियों के सामने यह अलग से एक चुनौती होगी कि दूरदराज क्षेत्रों तक समय रहते पहुंच पाएं।
चुनौती सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती। मौसम की मेहरबानी की भी जरूरत इन प्रत्याशियों को होगी। मार्च और अप्रैल का महीना यूं तो ज्यादा बरसात वाला नहीं है, पर मौसम में गड़बड़ी ने सारे अनुमान ध्वस्त किए हुए हैं। ऐसे में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचना खासा कठिन साबित हो सकता है। 2012 के विस चुनाव में ऊंचाई वाले इलाकों की ओर कई प्रत्याशी इसीलिए रुख नहीं कर पाए कि कहीं वे बर्फ में ही कैद होकर न रह जाएं। इस बार बर्फ का सामना तो इन्हें नहीं करना होगा पर मौसम साफ रहने की दुआ तो रोज करनी ही पड़ सकती है।क्या पता, कहां पर रोड ब्लॉक हो जाए और सारा प्रचार एक ही ब्लॉक तक सीमित होकर रह जाए। गनीमत यह है कि इस बार चुनाव प्रचार के लिए पार्टियों के पास दो माह तक का वक्त है। 2009 में कांग्रेस ने ऐन वक्त पर प्रत्याशी घोषित करने का नुकसान भी उठाया था। इस बार भी प्रमुख पार्टियों का हाल भी कुछ ऐसा ही है।
पिछले दो लोक सभा चुनाव की तस्वीर बता रही है कि प्रदेश में इन दो दलों का वर्चस्व तोड़ना अन्य दलों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। हाल यह है कि कई दलों से बेहतर प्रदर्शन निर्दलियों का रहा है। ऐसे में इस चुनाव में बसपा और आप का प्रदर्शन कई दलों की चुनावी ताल को बेताल कर सकता है। 2004 के लोक सभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस ने 2009 में करीब पांच प्रतिशत अधिक वोट हासिल किए थे। इसका परिणाम यह भी रहा था कि कांग्रेस की झोली में उत्तराखंड की पांचों सीटें आ गिरी थीं। दूसरी तरफ इसका नुकसान भाजपा को उठाना पड़ा था। भाजपा के वोट बैंक में करीब सात प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी।
जाहिर है कि भाजपा को कांग्रेस के अलावा किसी अन्य दल ने भी नुकसान पहुंचाया था। यह दल बहुत हद तक बसपा थी। बसपा का ध्रुवीकरण मैदानी क्षेत्रों में हैं और यही क्षेत्र हैं जहां भाजपा बेहतर प्रदर्शन करती रही है। 2004 की तुलना में बसपा ने 2009 के लोक सभा चुनाव में करीब आठ प्रतिशत वोट अधिक बटोरे थे। सबसे अधिक फर्क नैनीताल सीट पर पड़ा था। यहां बसपा को 2004 में कुल 1.24 वोट मिले थे। जबकि 2009 के लोक सभा चुनाव में बसपा ने इस सीट पर 19 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों ने इस सीट पर नुकसान उठाया था, हालांकि जीत कांग्रेस के खाते में ही दर्ज हुई थी। फिर भी 2004 के मुकाबले कांग्रेस को करीब दो प्रतिशत और भाजपा को करीब छह प्रतिशत का नुकसान हुआ था। जाहिर है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही बसपा की चुनौती का कुछ हद तक सामना करना होगा। मत प्रतिशत में बसपा भले ही आरामदायक स्थिति में न हो पर मार्जिन पर मामला रहा तो बसपा समीकरण को गड़बड़ाने की ताकत का प्रदर्शन तो कर रही है। इस बार दिल्ली मे प्रयोग के आधार पर कुछ करने की तमन्ना आप की ओर से भी है। सपा के लिए अलबत्ता सबसे अधिक परेशानी है। 2004 की तुलना में सपा ने 2009 में खासा नुकसान उठाया है। इस बार भी उसके प्रत्याशी चुनाव शुरू होने से पहले ही विवाद में घिर गए हैं। टिहरी क्षेत्र का प्रत्याशी सचिवालय में अपर सचिव के ब्लैकमेलिंग के आरोप में जेल में है। सपा का हाल यह है कि उसे उत्तराखंड के बाहर के लोगों को यहां मैदान में उतारना पड़ा है। पहाड़ी जनमानस मुज्जफरनगर कांड को भुला नहीं सका है यही सपा और बसपा के सामने सबसे बड़ी मुश्किल है।
अब बात करें भाजपा और कांग्रेस की तो दोनों ही पार्टियां भयंकर गुटबाजी और अंर्तकलह से जूझ रही हैं। मोदी फैक्टर अपनी जगह है और राहुल के उपदेश अपनी जगह। हकीकत तो यह है कि टिकट से वंचित नेता अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों की इज्जत पर बट्टा लगाने से नहीं चूकेंगे। कांग्रेस में हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद कार्यकर्ताओं में जोश जरूर आया है और 23 फरवरी को देहरादून में आयोजितराहुल गांधी की रैली में उमडी भीड़ ने इसका सबूत भी दिया, वहीं भाजपाई मोदी के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की आस लगाए हुए हैं। लेकिन, कटु सत्य यह भी है कि स्थानीय स्वार्थ यदि कार्यकर्ताओं पर हावी हो गए तो मोदी लहर के बावजूद भाजपा उम्मीदवार कहीं चारों खाने चित्त न हो जाएं और सूबे में मौजूदा हालात भी कुछ ऐसा ही बता रहे हैं। यही कारण है कि कांग्रेसीगण राज्य में किन्हीं दो सीटों पर तमाम दुश्चिंताओं के बावजूद अपनी जीत का दावा ठोकने में हिचक नहीं रहे।
(लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं)