नोटबंदी के एक साल पर राहुल गांधी का लेख
राहुल गांधी
एक साल पहले, नरेंद्र मोदी ने भारतीय रिजर्व बैंक को दरकिनार किया, अपने मंत्रिमंडल को कमरे में बंद कर दिया और अपने मनमाने और एकतरफा अंदाज़ में देश को सिर्फ 4 घंटे की मोहलत देते हुए नोटबंदी का ऐलान कर दिया। और चंद घंटों में ही देश की 86 फीसदी करेंसी को अवैध घोषित कर दिया गया। प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि उनके फैसले का मकसद भ्रष्टाचार का खत्म करना है, लेकिन बारह महीनों के बाद अगर कुछ मिटा है तो वह है फलती-फूलती अर्थव्यवस्था का विश्वास।
नोटबंदी से देश की जीडीपी के दो फीसदी का सफाया हो गया, अनौपचारिक मजदूर क्षेत्र को तबाह कर दिया और असंख्य छोटे और मध्यम व्यवसायों और कारोबारों को नष्ट कर दिया। नोटबंदी ने लाखों मेहनती भारतीयों के जीवन को बरबाद कर दिया। सीएमआईई यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुमान के मुताबिक नोटबंदी के चलते 2017 के पहले 4 महीनों में 15 लाख से ज्यादा लोगों की नौकरियां गई या उनका काम छूट गया।
और इस साल, एक जल्दबाजी में लागू और बेहद अव्यवस्थित और खराब अवधारणा के साथ जीएसटी का वार हमारी अर्थव्यवस्था पर कर उसे एक और झटका दे दिया गया। बेहद जटिल और परेशान करने वाले इस टैक्स ने जीवनयापन को मुश्किल बना दिया, आधुनिक दौर में ऐसा "लाइसेंस राज" शुरु कर दिया, जिसके तहत सरकारी अफसरों का असीमित अधिकारों के साथ कामधंधों पर नियंत्रण हो गया।
ये दो कदम ऐसे समय में उठाए गए जब दुनिया भर की नजरें भारत के आर्थिक मॉडल पर लगी हुई थीं। किसी भी देश की प्राथमिक जिम्मेदारी यह भी है कि वह अपने नागरिकों को कामकाज मुहैया कराए। दफ्तरों वाली नौकरियों यानी ब्लू कॉलर जॉब में चीन का एकछत्र वर्चस्व सभी देशों के लिए चिंता का कारण और चुनौती है। इसके चलते दुनिया भर के बेरोजगार और कामकाजी वर्कर्स को निराश किया है और उन्होंने अपना गुस्सा मतदान के दिन निकाला है, भले ही यह वोट मोदी को मिले हों, ब्रेग्जिट की बात हो या फिर डॉनल्ड ट्रंप की जीत।
लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मोदी जैसे अनियंत्रित शासक या तानाशाहों का उत्थान दो आधार पर होता है। एक, जबरदस्त संपर्कशीलता और संस्थाओं और संस्थानों पर उसका प्रभाव और विश्व जॉब मार्केट में चीन का प्रभुत्व। एक जमाना था जब लोकतांत्रिक देशों में भी सिर्फ सांस्थानिक गलियारों में ही सूचनाएं होती थीं और बहुत कम लोगों तक इनकी पहुंच थी। लेकिन इस सिद्धांत को नष्ट कर दिया। इंटरनेट की संपर्कशीलता और पारदर्शिता ने पूरी दुनिया को सकारात्मक रूप से बदला है। लेकिन, ऐसा होने में हमारे संस्थानों की कार्यव्यवस्था भी नष्ट हुई है। इस विखंडन ने ऐसा माहौल पैदा किया है जिमें मजबूत व्यक्ति बेकाबू होकर आगे बढ़ते हैं।
नौकरियों और रोजगार के मोर्चे पर, पश्चिमी देशों ने वैश्वीकरण, मुक्त व्यापार और खुले बाजार को वादा किया और उसे निभाया भी, लेकिन इस सबमें उसने अपनी खुद के उत्पादन क्षेत्र और विनिर्माण समुदायों को खोखला कर दिया। अपने कारखानों में मजदूर संघर्ष से निपटने के बजाय पश्चिमी और भारतीय दोनों पूंजीपतियों ने उत्पादन और विनिर्माण के लिए दूसरे देशों का रुख कर लिया।
1970 के दशक में भयंकर सामाजिक समस्या से दो चार चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने पश्चिम के श्रमिक संघर्ष का फायदा उठाते हुए उसे अपनाया। शायद देंग जियाओपिंग ने सही कहा था, “इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि बिल्ली किस रंग की है, अगर वह चूहे पकड़ने में सक्षम है।” और आज, इस चीनी बिल्ली ने पूरी दुनिया के उत्पादन और विनिर्माण रूपी चूहे को पकड़ रखा है।
चीन के राजनीतिक संगठनों ने कारखानों और फैक्टरियों का स्वरूप बदलने के लिए संचार तकनीक का अच्छी तरह इस्तेमाल किया। 1990 के दशक में चीन की उत्पादन क्षमता पूरी दुनिया के उत्पादित मूल्य का महज 3 फीसदी होती थी, लेकिन आज पूरी दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई चीन में ही बनता है। उत्पादन पर उनकी लागत, उनके पश्चिमी प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में काफी कम है, वे बड़े पैमाने पर उत्पादन करते हैं, और असहमित, श्रम संघर्ष या श्रमिक अधिकारों या पारदर्शिता जैसी रुकावटों से दो-चार नहीं हैं। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, चीन में आज हर रोज औसतन 50,000 नौकरियां पैदा होती हैं, लेकिन मोदी की अगुवाई वाली सरकार महज 500 लोगों को ही रोजगार दे पाती है।
इस उपलब्धि की भी कठोर कीमत चुकानी पड़ती है। चीन के लोगों को बोलने की आजादी नहीं है, उन्हें असहमति या सवाल पूछने की भी अनुमति नहीं है। और जो ऐसा करते हैं, उन्हें गंभीर दंड मिलता है। भारत को ऐसे मॉडल का अनुकरण नहीं करना चाहिए। संपर्कशीलता यानी कनेक्टिविटी और बिना चीनी उत्पादकता के खतरे के, अब भी पश्चिम और भारत में ब्लू कॉलर जॉब की संभावनाएं हैं। चीन की उत्पादकता के साथ बिना संपर्कशीलता या कनेक्टिविटी से अर्थव्यवस्था को तो नुकसान होगा, लेकिन संस्थाएं बच जाएंगी। यह दो महत्वपूर्ण तत्वों का संयोजन है जो विनाशकारी दिखता है।
चीन से मिल रही जॉब चुनौतियों से निपटने में भारत के लघु, छोटे और मझोले कारोबार और व्यवसाय असली ताकत हैं। इनमें नई क्षमताओं की संभावना के साथ कौशल और समझबूझ है जो चीन की उत्पादन चुनौतियों का मुकाबला कर सकते हैं। हमें ऐसे लोगों को पूंजी और तकनीक के सहारे सशक्त करना होगा। लेकिन, उन्हें मदद देने के बजाय, मोदी सरकार ने उनपर नोटबंदी और एक विकलांग टैक्स का प्रहार किया है। उदार मूल्यों की रक्षा करते हुए संपर्कशीलता की 21वीं सदी में दुनिया भर के उदार लोकतंत्रों के लिए चीन के संगठनों से प्रतिस्पर्धा करना बहुत बड़ी चुनौती है।
मोदी जी ने बेरोजगारी और आर्थिक अवसरों की कमी से पैदा गुस्से को सांप्रदायिक नफरत में बदलकर भारत के जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है। वे अपनी नाकामियों को एक बेहद उथले और नफरत से भरे राजनीतिक आख्यान के पीछे छिपाते हैं। यह गुस्सा भले ही मोदी को सत्ता के शिखर पर ले गया हो, लेकिन इससे न तो नौकरियां पैदा हो सकती हैं और न ही संस्थाएं और संस्थान बचेंगे।
(कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने यह लेख नोटबंदी के एक साल पूरा होने पर फाइनेंशियल टाइम्स के 8 नवंबर के अंक में Modi’s reforms have robbed India of its economic prowess शीर्षक से लिखा। पाठकों की सुविधा के लिए हम इस लेख का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं- संपादक)