एनपीए का बोझ : आम आदमी लुटेगा या बचेगा
प्रवीण कुमार
एनपीए के निपटारे पर संसदीय समिति ने भारतीय रिजर्व बैंक, बैंकर्स, वित्त मंत्रालय के अधिकारी और इंडियन बैंक्स एसोसिएशन के साथ मुलाकात की है। सूत्रों की मानें तो इस मुलाकात में स्ट्रेस्ड असेट्स के निपटारे पर बात हुई है। लेकिन असली सवाल यह है कि इस निपटारे का फार्मूला क्या होगा? जानकारों का मानना है कि आखिरकार इस नुकसान की भरपाई बैंक के खातों में जमा आम आदमी के पैसे से ही होगी। सरकार अपने खजाने से कुछ भी नहीं देने वाली। एक रिपोर्ट के अनुसार सितंबर 2017 में सूचीबद्ध बैंकों का कुल एनपीए 8.36 लाख करोड़ रुपए आंका गया था। इसमें सरकारी बैंकों का एनपीए 7,33,874 करोड़ और निजी बैंकों का 1,02,808 करोड़ रुपए था। आरबीआई ने ऐसे 12 खातों की पहचान की है जिनके पास कुल एनपीए का लगभग 25 प्रतिशत फंसा है। भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलेगा कि एनपीए का मुद्दा कोई नया नहीं है। जब भी कोई व्यक्ति देश में बैंकों के साथ भारी-भरकम राशि का घपला कर विदेश भाग जाता है तो यह मुद्दा चर्चा में आ जाता है।
क्या है एनपीए?
गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियां (Non-Performing Assets) वित्तीय संस्थानों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक ऐसा वर्गीकरण है जिसका सीधा संबंध कर्ज/ऋण/लोन न चुकाने से होता है। जब ऋण लेने वाला व्यक्ति 90 दिनों तक ब्याज अथवा मूलधन का भुगतान करने में विफल रहता है तो उसको दिया गया ऋण एनपीए माना जाता है। एनपीए को ऐसी परिसंपत्ति कहा जा सकता है जो मूल रूप से वसूली की अनुमानित अवधि तक नकद मौद्रिक प्रवाह का हिस्सा नहीं बनती।
पीएनबी घोटाले में कुछ जानकारों का कहना है कि कुछ कर्मचारियों ने 11,500 करोड़ रुपए की निकासी का एलओयू जारी करने के कारनामे को कैसे अंजाम दिया? फिलहाल यही मानकर चला जा रहा है कि स्विफ्ट सिस्टम (जिसके जरिये एलओयू का सत्यापन किया जाता है) और बैंक के अपने आईटी सिस्टम (कोर बैंकिंग सिस्टम) के बीच किसी प्रकार का तालमेल नहीं था। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि इस चूक की वजह से हुआ फ़र्ज़ीवाड़ा ऑडिटर्स की पकड़ में क्यों नहीं आया? बैंकों की भाषा में कहें तो यह एक ऑपरेशनल रिस्क था और इसे जुड़े प्रबंधों की ज़िम्मेवारी बैंक के बोर्ड और देश में बैंकिंग की निगरानी करने वाली संस्था की बनती है, लेकिन ये दोनों ही संस्थाएं अपने दायित्व का निर्वाह करने में नाकाम रहीं। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी कहा है कि पीएनबी घोटाले में नियामकों और निगरानी तंत्र ने आंखें बंद कर ली थीं और ऊपर से ऑडिटरों की अनदेखी और चलताऊ रवैये के कारण यह घोटाला इतना विशाल हो गया। कई चरणों का ऑडिटिंग तंत्र होने की बावजूद ऐसा हो जाना जानबूझकर अनदेखी करने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।
केवल 12 खातों में है 25 प्रतिशत एनपीए
बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की वसूली को तेज करने के लिये आरबीआई सक्रिय हो गया है। देश में 9339 ऐसे कर्ज़दार हैं, जिन्होंने 1,11,738 करोड़ रुपए का कर्ज जानबूझकर नहीं चुकाया है। माना जाता है कि ये सभी ऋण चुकाने में सक्षम हैं, लेकिन इनकी नीयत में खोट है। इनके अलावा, रिजर्व बैंक ने ऐसे 12 खाताधारकों को चिह्नित किया है, जिनके ऊपर बैंकों के कुल एनपीए की एक चौथाई राशि है। रिजर्व बैंक ने इन 12 खातों के खिलाफ दिवालियापन संहिता के तहत तत्काल दिवालिया कार्रवाई करने को कहा है। इन खातों में, प्रत्येक में 5,000 करोड़ रुपए या उससे अधिक का ऋण है। लेकिन रिज़र्व बैंक ने इन बैंक खातों के डिफॉल्टरों को सार्वजनिक नहीं किया है।
बीते चार वर्षों में एनपीए में 311 प्रतिशत की वृद्धि
दिवालियापन संहिता, 2016 के लागू होने से ऋणों की वसूली में अनावश्यक देरी और उससे होने वाले नुकसानों से बचा जा सकेगा। ऋण न चुका पाने की स्थिति में कंपनी को अवसर दिया जाएगा कि वह एक निश्चित समय में अपने ऋण को चुका दे, अन्यथा स्वयं को दिवालिया घोषित करे। यदि कोई ऋणी दोषी पाया जाता है तो उसे 5 साल की सज़ा का भी प्रावधान है। पिछले कुछ वर्षों में बैंक घोटालों में लगातार तेजी आई है। 2013 में रिज़र्व बैंक के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर डॉ. के.सी. चक्रवर्ती ने बताया था कि एक करोड़ रुपए से ज़्यादा के घोटालों का हिस्सा 2004-05 से 2006-07 के बीच 73 प्रतिशत था, जो 2010-11 और 2012-13 में 90 प्रतिशत हो गया। 2013 में सार्वजनिक बैंकों का एनपीए 1,55,890 करोड़ रुपए था जो 2017 में बढ़कर 6,41,057 करोड़ रुपए हो गया यानी इन चार वर्षों में इसमें 311.22 प्रतिशत वृद्धि हुई। इसी अवधि में निजी बैंकों का एनपीए 19,986 करोड़ रुपए से 269.47 प्रतिशत बढ़कर 73,842 करोड़ रुपए पहुंच गया। रिज़र्व बैंक की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट 2017 के अनुसार एक लाख से ऊपर के घोटाले का कुल मूल्य पिछले पांच वर्षों में 9750 करोड़ से बढ़कर 16,770 करोड़ तक पहुंच गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 2016-17 में घोटाले की कुल राशि का 86 प्रतिशत हिस्सा लोन से जुड़ा था। इस रिपोर्ट के अनुसार, देश का एनपीए कुल जीडीपी का 9.6 प्रतिशत है।
एनपीए का निपटारा कैसे होगा?
माना जा रहा है कि इन नए नियमों से एनपीए का जल्दी ही कोई समाधान होगा। मालूम हो कि पिछले साल भी सरकार ने एनपीए से निपटने के लिए रिज़र्व बैंक के अधिकार बढ़ाए थे। अभी तक लगभग 40 बड़ी डिफॉल्टर कंपनियों के खिलाफ बैंकों को कार्रवाई के निर्देश दिये जा चुके हैं। इनमें से कई कंपनियों के खिलाफ दिवालिया कानून के तहत कार्रवाई चल भी रही है। जिन कंपनियों के खिलाफ यह कार्रवाई शुरू की जा चुकी है, उन मामलों में नए नियम लागू नहीं होंगे। इससे पहले रिजर्व बैंक ने आंतरिक सलाहकार समिति का गठन किया जिसमें केंद्रीय बैंक के निदेशक मंडल के अधिकांश स्वतंत्र निदेशक रखे गए हैं। दिवाला तथा दिवालियापन संहिता के तहत एनपीए मामलों में क्या कार्रवाई की जानी है, समिति ने इस पर विचार-विमर्श कर अपनी सिफारिशें दी हैं।
रिज़र्व बैंक ने जारी किये नए नियम
फंसे कर्ज़ यानी एनपीए के जल्दी समाधान के लिये रिज़र्व बैंक ने नए नियम जारी किये हैं, जो 1 मार्च 2018 से लागू हो गए हैं। आरबीआई ने निम्नलिखित नए नियमों की अधिसूचना जारी कर दी है-:
हर बैंक के बोर्ड को एनपीए समाधान की नीति बनानी पड़ेगी, जिसमें समय-सीमा भी होगी। यदि तय समय में एनपीए का समाधान नहीं होता है तो बैंक को 15 दिन में कंपनी के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई की शुरुआत करनी होगी। बैंकों के समूह (Joint Lenders Forum-JLF) की व्यवस्था खत्म कर दी गई है। अभी तक किसी प्रोजेक्ट के लिये बड़े कर्ज़ कई बैंक मिलकर देते थे, जिनमें एक लीड बैंक होता था। यदि किसी कंपनी ने कई बैंकों से कर्ज़ ले रखा है और वह किसी एक बैंक का कर्ज़ लौटाने में डिफॉल्टर होती है तो दूसरे बैंक भी इससे बचने के लिये कदम उठाएंगे। एनपीए के समाधान के लिये अब तक जितनी योजनाएं थीं, उन सबको खत्म कर दिया गया है। बैंक एक अप्रैल से हर महीने आरबीआई को बड़े कर्ज़ों की जानकारी देंगे। इसके लिये सेंट्रल रिपोज़िटरी ऑफ इन्फॉर्मेंशन ऑन लार्ज क्रेडिट्स (Central Repository of Information on Large Credits-CRILC) व्यवस्था होगी। 23 फरवरी से 5 करोड़ या इससे ज़्यादा के डिफॉल्ट की जानकारी रिपोज़िटरी को हर सप्ताह देना जरूरी कर दिया गया है। अब रिस्ट्रक्चरिंग वाले अकाउंट को तत्काल एनपीए की श्रेणी में डालना होगा। कोई कंपनी कर्ज लौटाने में किस्त का एक हिस्सा देती है, तो उसे डिफॉल्ट माना जाएगा। डिफॉल्ट होते ही बैंक को वह अकाउंट स्पेशल मेंशन अकाउंट (Special Mention Account-SMA) श्रेणी में रखना होगा और इसकी जानकारी रिज़र्व बैंक की रिपोज़िटरी को देनी पड़ेगी। 100 करोड़ रुपए या ज्यादा का कर्ज़ डिफॉल्ट होने पर बाकी बचे कर्ज़ का रिज़र्व बैंक द्वारा अधिकृत क्रेडिट रेटिंग एजेंसी से मूल्यांकन करवाना पड़ेगा। कर्ज़ 500 करोड़ रुपए या अधिक का है तो दो एजेंसियाँ उसका मूल्यांकन करेंगी। 2,000 करोड़ या अधिक का कर्ज़ डिफॉल्ट होता है तो डिफॉल्ट के 180 दिनों के भीतर समाधान योजना पेश करनी होगी। समाधान नहीं हुआ तो 15 दिनों में कंपनी के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई शुरू करनी पड़ेगी।
चीन की तरह कठोर कार्रवाई जरूरी
पिछले वर्ष जब चीन में एनपीए की समस्या ने सिर उठाया था तो वहां के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर लगभग 67 लाख ऐसे डिफॉल्टरों को काली-सूची में डालकर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई। चीन ने 2015 में कर्ज वसूली का अभियान छेड़ा था। चीन ने उनके सामाजिक बहिष्कार का फैसला भी किया। अब वहां कर्ज नहीं चुकाने वालों को न तो किराये पर मकान मिलेगा, न ही होटल में कमरा। ऐसे लोग हवाई जहाज और बुलेट ट्रेन में यात्रा नहीं कर सकेंगे और उनके बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला भी नहीं मिलेगा। कर्ज नहीं चुकाने वालों का पर्सनल आईडी नंबर ब्लॉक कर दिया गया। अब इस हालात में वे नागरिक सुविधाओं का लाभ भी नहीं उठा पा रहे हैं। कर्ज के बोझ के मामले में आज भारत की जितनी जीडीपी है, उससे आधे से ज़्यादा कर्ज है। अपनी आर्थिक सेहत दुरुस्त करने के लिये जब चीन ऐसे सख्त फैसले ले सकता है तो हम क्यों नहीं ले सकते हैं? बढ़ते एनपीए की समस्या को देखते हुए चीन की तरह भारत में भी ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
बैंकों का निजीकरण एनपीए का समाधान नहीं
बढ़ते बैंकिंग घोटालों के साथ बढ़ते एनपीए को लेकर यह कहा जा रहा है कि क्यों न इन बैंकों को भी निजी हाथों में सौंपकर सारा झंझट ही खत्म कर दिया जाए। यह ठीक है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में उद्योग मंडल ऐसोचैम का कहना है कि सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से कम कर देनी चाहिये ताकि ये बैंक भी निजी क्षेत्र के बैंकों की तरह जमाकर्त्ताओं के हितों को सुरक्षित रखते हुए अपने शेयरधारकों के प्रति पूर्ण जवाबदेही बरत सकें। सरकार के लिए करदाताओं के पैसे से इन बैंकों को संकट से उबारते रहने की भी एक सीमा है। लेकिन निजीकरण इस समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो सकता। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि गांवों और छोटे कस्बों तक अपनी पहुंच बढ़ाना निजी बैंकों के लिये लाभकारी नहीं होता। ऐसे में देश की बड़ी आबादी बैंकिंग सिस्टम से कटने के साथ सरकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित हो जाएगी। आज मनरेगा की मज़दूरी से लेकर लगभग सारी सब्सिडी सीधे लोगों के खाते में जा रही है। यह काम सरकारी बैंकों के ज़रिये ही संभव है। निजी बैंक तो न्यूनतम जमा राशि भी इतनी ज्यादा मांगते हैं कि निम्न वर्ग के लोग उनमें खाता ही नहीं खुलवा सकते। ऐसे में सरकारी बैंकों को सुधारने की कोशिश होनी चाहिए। उनके प्रबंधन का ढांचा बदला जाना चाहिए और नियमन तंत्र को दुरुस्त किया जाना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि बैंकिंग घोटाले केवल भारत में ही होते हैं। दुनिया के लगभग हर देश में ऐसे फ्रॉड होते हैं। बैंकों में इस तरह की गड़बड़ियों पर पूरी तरह रोक लगाना तो संभव नहीं है, लेकिन इनकी पुनरावृत्ति को कम जरूर किया जा सकता है। आमतौर पर फर्जीवाड़े को तभी अंजाम दिया जाता है, जब विविध परिपत्रों में निर्देशित नियमों की अवहेलना की जाती है। बढ़ते जा रहे बैंकिंग घोटालों और फर्जीवाड़ों पर लगाम लगाने के लिए बैंककर्मियों को प्रशिक्षण देने की जरूरत है। बैंकिंग व्यवस्था में धोखाधड़ी के डेटाबेस को मजबूत करने से भी लाभ हो सकता है, क्योंकि धोखाधड़ी का पता लगाने में डेटाबेस की अहम भूमिका होती है। बैंकों द्वारा संबंधित सूचनाओं को आपस में साझा करने से जोखिम को कम किया जा सकता है।