कांग्रेस ही भाजपा का एकमात्र विकल्प-2
कार्य संस्कृति और आर्थिक नीति में है सत्ता की चाबी
बब्बन सिंह
2019 के चुनावों के लिए कांग्रेस को एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना होगा। पहला मोर्चा कांग्रेस के अंदर की कार्य-संस्कृति में आमूल-चूल बदलाव लाना और सहयोगी दलों के साथ एक समान विचारधारा के स्तर पर वैचारिक गठबंधन कायम करने का होगा और दूसरा, एक नई गांव-किसान पर आधारित आर्थिक नीतियों की जरूरत। कांग्रेस की संस्कृति में बुनियादी बदलाव एक कठिन मोर्चा है लेकिन इससे पार पाए बिना दूसरे मोर्चे को खोलना मरने के समान होगा। अगर राहुल इसके लिए रणनीति बना पाते हैं और उस पर काम कर पाते हैं तो उनके सामने दूसरे मोर्चे की लड़ाई बेहद सामान्य हो जाएगी। ज्ञात हो कि बाहर के लोगों से लड़ना हमेशा आसान होता है पर घर के अंदर के जमात से लड़ाई हमेशा कठिन होती है। इसी तरह घर से अलग-अलग निकले घायल लोगों से लड़ना तो और कठिन होता है। फ़िलहाल तो कांग्रेस के अंदर ही सोनिया गांधी के जमाने के लोग राहुल को वो मदद नहीं करेंगे जो उनके नौजवान सहयोगी करने के लिए तैयार हैं। ऐसे लोगों के सहयोग के लिए राहुल को बहुत-कुछ दांव पर लगाना होगा। एक बार पुराने साथियों का नए साथियों के साथ मेल हो जाए तो अगले चुनाव की वैतरणी आसान हो जाएगी।
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इसी तरह बहुपक्षीय मुकाबले वाले कई राज्यों में गठबंधन के संभावित सहयोगी दल के संचालक कांग्रेस से ही निकले लोग हैं। इनमें से कई कांग्रेस से खासे नाराज हैं। इनके साथ वैचारिक समानता के बावजूद व्यक्तिगत मतभेद की खाई बड़ी गहरी है। ममता बनर्जी और शरद पवार इनमें प्रमुख हैं जिनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं बहुत अधिक हैं। इससे पार पाने के लिए राहुल गांधी को अपनी व्यवहार कुशलता और ऊर्जा की जरूरत होगी। हो सकता है कि किसी समय सोनिया गांधी की तरह हाथ में आई बाजी फिसलती हुई भी नजर आए। राहुल गांधी को अपने नेतृत्व के प्रारंभिक दिनों में इस मुश्किल लड़ाई से न केवल दो-चार होना है बल्कि इसे बड़ी सिद्दत से लड़ना होगा। कहने में ये जितना आसान दिखता है यथार्थ में ये उतना ही कठिन है। हमारी नजर में राहुल इसके लिए प्रयास कर सकते हैं और बहुत उम्मीद है कि पिछले अनुभवों से सीख लेकर इतिहास के इस मोड़ पर वे कामयाब भी हो जाएं।
इसी तरह कांग्रेस को भाजपा से चुनावी मोर्चे पर उसके अंदाज में जवाब देना सीखना होगा। विगत कुछ महीनों में कांग्रेस इसमें कामयाब होकर निकली है। भाजपा समर्थक लोगों के तेवर थोड़े ठंडे हुए हैं और मुख्यधारा तथा सोशल मीडिया पर कांग्रेस की बात भी अब होने लगी है। लोकतंत्र में किसी राजनीतिक दल के लिए चुनाव के लिए एक साल का समय बहुत कम होता है और कांग्रेस जैसी 100 साल से भी पुरानी और थकी पार्टी के लिए ये समय और भी कम है। फिर भी किसी दल या युद्ध की परिस्थिति को बदलने में उसके नेता की भूमिका अहम होती है। राज्यों की राजनीति में इस तरह के कारनामों का लंबा इतिहास है। 1983 में एनटी रामाराव ने एक साल पूर्व गठित पार्टी तेलुगु देशम के बैनर तले ही कांग्रेस को करारी हार दी थी। लेकिन ऐसे मामले में नेता का आत्मविश्वास बहुत अहम होता है। वैसे भी भारत आस्था और विश्वासों का देश है। इसलिए अगर राहुल अपनी आलोचनाओं को दरकिनार कर अपने आत्मविश्वास को सुदृढ़ बना लें तो कुछ भी असंभव नहीं।
लेकिन उपरोक्त तमाम बातों से ज्यादा अहम कांग्रेस के लिए 2019 के संसदीय चुनाव में सत्ताधारी भाजपा के वर्तमान सामाजिक-आर्थिक नीतियों के बरक्स एक नई गांव-किसान पर आधारित आर्थिक नीतियों की जरूरत होगी। 2014 में लोगों ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस की सरकार को बाहर किया था। उसमें अन्ना आंदोलन की अहम भूमिका थी पर उसका लाभ लेने के लिए आप का कोई संगठन नहीं था। इसलिए शुरुआती दौर में उसकी सहयोगी रही भाजपा बाज़ी मार ले गई। हालांकि पिछले चुनाव में भी आर्थिक मंदी से उत्पन्न रोजगार मुद्दा था पर वो भ्रष्टाचार के शोर में दबा रहा। पर इस बार के चुनाव में खेती-किसानी और रोजगार अहम मुद्दा होने जा रहा है। कांग्रेस और राहुल गांधी लगातार किसानों व युवा में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या को उठा रहे हैं पर इसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा लोगों के सामने नहीं रखा गया है। कांग्रेस को ये बात समझनी होगी कि विकास के शहर व कॉर्पोरेट आधारित वर्तमान मॉडल में और अधिक रोजगार देने की क्षमता नहीं बची है।
आज हमारे पास बाजारवादी व्यवस्था की दो अनिवार्य शर्तें उपलब्ध नहीं है। यूरोपीय देशों के मॉडल पर काम करने वाले इस बात को नहीं समझ रहे कि हमारे पास उपनिवेश के रूप में कच्चे माल उपलब्ध कराने और निर्मित माल के बाज़ार के रूप में एशिया और अफ्रीका के देश उपलब्ध नहीं हैं। सदियों से भारत सहित ये तमाम देश यूरोपीय देशों और बहुत हद तक अमेरिका के आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण के आधार रहे। इसके विकल्प के रूप में लाई गई ग्लोबलाइजेशन अब वहां के विकास को बढ़ाने में सक्षम नहीं है। फलस्वरूप वहां के समाज और अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट हो रही है। हालांकि कृत्रिम तरीके से अमेरिका के विकास को वापस पटरी पर लाने की घोषणा हुई है पर ये सच्चाई से कोसों दूर है।
यूरोप तो अभी भी विकास की लड़ाई लड़ रहा है। जिस तरह पश्चिमी राष्ट्रों में पुनरुत्थानवादी ताकतें हावी हो रही हैं इससे अनुमान लगाने में चूक नहीं होनी चाहिए कि अब इसका कोई भविष्य नहीं। इसीलिए तमाम पश्चिमी देशों में ग्लोबलाइजेशन के खिलाफ मोर्चा खुल गया है और अमेरिका, ब्रिटेन समेत कई राष्ट्र इस रास्ते पर ही चलने से इनकार कर रहे हैं। इसी कारण वो समाज ट्रंप जैसे लंपट और आवारा नेताओं को पैदा कर रही है जो बहुत जल्द उनके तेजी से पतन का कारण बनने वाली हैं। यहां इस बात को भी जानना चाहिए कि पश्चिम के विकास मॉडल में जब विकास की निरंतरता बनाए रखने के लिए बाह्य उपनिवेश नहीं होते तो आतंरिक उपनिवेश की भूमिका सामने आती है। इसके तहत विकास की रफ़्तार अल्प विकसित या गरीब/वंचित तबके के शोषण पर निर्भर हो जाता है। 18वीं सदी में इंग्लैंड ने औद्योगिक क्रांति की रफ़्तार बढ़ाने के लिए अपने गांव-किसान की अर्थव्यवस्था को नाश किया था। ऐसे ही 20वीं सदी में सोवियत संघ में विकास को गति देने के लिए तानाशाह स्टालिन ने अपने यहां विद्यमान किसानों का बंदूक की नोक पर विनाश किया था और सामूहिक खेती की नींव डाली थी।
ग्लोबलाइजेशन के बाद अपने देश में भी गांवों और खेती को पूंजीवादी बाज़ार व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक तरह से आंतरिक उपनिवेश बना कर रखा गया है। हाल के किसान आंदोलनों से ये बात साफ तौर पर सामने आई है कि गांव और खेती-किसानी पर आधारित तबके के विकास को लगभग कैसे रोक दिया गया है और उन्हें वंचित, शोषित और कंगाल कर दिया गया है (अतीत में इस मामले में कोई भेदभाव नहीं किया गया। तमाम जाति-धर्म के लोग इसके शिकार हुए हैं। यही कारण है कि बीते कई दशकों से गांव छोड़ शहर आने वालों की तादात लगातार बढ़ रही है। हालांकि विकास की रफ़्तार कम होने से अब शहर में भी अवसर नहीं बचे हैं)। अगर ऐसा नहीं किया गया होता तो बड़े उद्योगों और शहरों के विकास रूक गए होते। हालांकि आजादी के कुछ सालों बाद से ही इस तरह के षड्यंत्र आरंभ हो गए थे पर ये परवान चढ़ा 1991 के उदारीकरण के बाद। संयोग या दुर्भाग्य से इस काम को शुरू करने का श्रेय भी कांग्रेस पार्टी के ही हिस्से जाता है पर अब वक्त आ गया है कि वह बदलते माहौल में इस पाप से अपना पीछा छुड़ाए। यहां ध्यान देने की बात है कि भाजपा की अपनी कोई आर्थिक नीति नहीं है और ये इसके लिए कांग्रेस की पुरानी नीतियों पर ही निर्भर है। (जारी...)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी मत हैं।)