मोदी सरकार के तीन साल : तीन धमाके, तीन सवाल
कृष्ण किशोर पांडेय
केंद्र की मोदी सरकार ने अपने तीन साल पूरे कर लिए हैं। इन तीन सालों के कामकाज का निष्पक्ष और तथ्यात्मक विश्लेषण आज इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके आधार पर ही भविष्य के बारे में सोचने की संभावना बनेगी। तीन साल पूरा होने के अवसर पर भाजपा और आरएसएस ने देशभर में जश्न मनाने का एक लंबा-चौड़ा कार्यक्रम बना रखा था। बताया जा रहा था कि देश के छोटे-बड़े 900 स्थानों पर इसका जश्न मनाया जाएगा। गनीमत है कि जश्न मनाने का यह कार्यक्रम बिना बताए या तो बीच में ही छोड़ दिया गया या स्थगित कर दिया गया। जश्न मनाने की घोषणा के साथ ही विपक्ष की ओर से यह आवाज उठने लगी थी कि जश्न आखिर किस बात का मनाया जाएगा। सीमा पर जवान शहीद हो रहे हैं, देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, नक्सलियों का उत्पात अलग से बढ़ रहा है तो आखिर किस खुशी में जश्न मनाया जाएगा।
बहरहाल, तीन साल में जो उपलब्धियां प्राप्त हुईं उनको लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा नेताओं तथा स्वयं पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा आश्वासनों से जोड़कर देखा जाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले तीन वर्षों की मोदी सरकार के कार्यकाल में भाजपा ने राजनीतिक मोर्चे पर भारी सफलता प्राप्त की है। थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव तो होते रहते हैं। लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीनों के अंदर कई राज्यों में भाजपा सरकार बनाने में सफल रही। इसके बाद दिल्ली विधानसभा और बिहार विधानसभा के चुनाव में उसकी हार जरूर हुई। लेकिन फिर असम विधानसभा में जीत हासिल कर अपनी ताकत दिखाई। सबसे बड़ी सफलता उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उसे मिली। जाहिर है, कम समय में लगातार राजनीतिक सफलता मिलने से मोदी की लोकप्रियता भी बढ़ी और पार्टी में भी नई ताकत का संचार हुआ। इसके बाद इस सरकार ने नए-नए काम शुरू करके नए भारत के निर्माण की ओर कदम बढ़ाया क्योंकि मोदी कई बार यह दावा कर चुके थे कि पिछले 70 वर्षों में इस देश में कुछ नहीं हुआ। उनका आशय यह था कि कुछ ऐसे काम करके दिखाएं कि लोग मानने को मजबूर हो जाएं कि वाकई बहुत बड़ा काम हुआ। इसलिए जो काम हुए उन पर एक नजर डालना यहां जरूरी होगा।
गंगा को साफ करने की घोषणा जोर-शोर से की गई थी, लेकिन अभी तक ठीक से इस काम की शुरूआत भी नहीं हुई है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत गांव-गांव में शौचालयों के निर्माण का काम शुरू किया गया। बताते हैं कि जितने शौचालय बनाए गए उनमें से 60 प्रतिशत में पानी की व्यवस्था ही नहीं है। उज्जवला योजना के तहत सबको एलपीजी सिलेंडर मुहैया कराने की योजना बनी लेकिन गरीब तबका और दूर दराज के इलाकों में अभी भी योजना अधूरी ही है। कहने का मतलब यह कि इस तरह की छोटी-छोटी कई योजनाएं बनाई गईं लेकिन लोगों को जिस चीज की जरूरत थी वह उन्हें नहीं मिली। यह ठीक वैसा ही हुआ जैसे किसी प्यासे व्यक्ति को ओस चाटकर प्यास बुझाने को कहा जाए। आर्थिक क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है। लोकसभा चुनाव के पहले स्वयं मोदी ने हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोजगार मुहैया करने की बात कही थी। लेकिन इस दिशा में कोई उपलब्धि हासिल नहीं हुई। पिछले तीन साल में देश की विदेश नीति की उलझनें भी साफ दिखाई दे रही है। हालांकि नीतिगत निर्णय घोषित तौर पर कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जिससे विदेश नीति पटरी से उतरती दिखाई दे। लेकिन प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे रहा है कि पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में पहले जैसी मिठास नहीं रही।
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मोदी सरकार के तीन साल में तीन बड़े धमाके हुए जिनका असर वर्तमान में भी है और भविष्य में भी होना निश्चित है। पहला धमाका था नोटबंदी का। दूसरा पशुओं की खरीद-बिक्री पर रोक लगाने का और तीसरा किसानों के कर्ज माफ करने के वायदे से मुकरने का। इनमें से हर धमाके का अलग-अलग असर साफ दिखाई दे रहा है। नोटबंदी का सबसे बड़ा असर तो यह हुआ कि करीब-करीब ढाई लाख लोगों का रोजगार छिन गया। छोटे कारोबारी बुरी तरह से प्रभावित हुए। कैश की कमी से अर्थव्यवस्था के हर हिस्से पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अब तो सरकारी आंकड़ों में माना जा रहा है कि राष्ट्रीय उत्पादन वृद्धि की दर एक प्रतिशत नीचे गिर गई और फिलहाल उसके संभलने के आसार भी नहीं हैं। अमेरिका की एक पत्रिका फॉरेन अफेयर्स ने मोदी सरकार का नोटबंदी का फैसला भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास की सबसे बड़ी गलती बताया है। इस सिलसिले में उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी इस कदम को एक बहुत बड़ा कुप्रबंधन का नाम दिया था। अर्थव्यवस्था में एक तरह से मंदी का दौर आ रहा है। अब तो सरकार यहां तक कह रही है कि 125 करोड़ लोगों के देश में सबको रोजगार देना संभव ही नहीं है। सरकार बहाने चाहे जो भी बना ले लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर अर्थव्यवस्था में यही रूख बना रहा तो देश में बेरोजगारों की एक बड़ी फौज खड़ी हो जाएगी। आर्थिक संकट अपराध बढ़ाता है और कानून व्यवस्था की समस्या पैदा करता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर इतना बड़ा धमाका क्यों किया गया। उस समय इसके तीन उद्देश्य बताए गए थे- कालेधन को बाहर निकालना, आतंकवाद पर अंकुश लगाना और जाली नोटों का प्रचलन बंद करना। लोग पूछते हैं कि क्या ये तीनों उद्देश्य पूरे हुए? कितना कालाधन वापस आया यह भी सरकार बताने को तैयार नहीं है।
जहां तक दूसरे धमाके की बात है, उसमें तो अब सरकार को खुद अपनी गलती महसूस होने लगी है और अदालत ने भी उसे नोटिस जारी किया है। सरकार ने आदेश जारी कर दिया कि पशुओं की खरीद-बिक्री पर रोक लगाई जाए ताकि पशु बूचड़खाने तक नहीं पहुंचे। इसका लोगों ने जो सीधा अर्थ लगाया वह यह था कि सरकार लोगों के खान-पान की आदतों में दखलंदाजी कर रही है और साथ-साथ राज्य सरकारों के अधिकारों में भी कटौती कर रही है। केरल, मेघालय और मिजोरम की सरकारों ने तो इस आदेश को मानने से ही इनकार कर दिया। मेघालय में भाजपा के कई नेताओं ने पार्टी से इस्तीफा तक दे दिया क्योंकि उस राज्य में गोमांस खाना एक आम जरूरत है। यहां भी वही सवाल उठता है कि इतना बड़ा कदम उठाने की जरूरत क्या थी। यह कदम ठीक वैसा ही साबित हुआ जैसे किसी स्थिर पानी में एक बड़ा पत्थर फेंक दिया गया हो। जहां तक गोहत्या का सवाल है तो वैसे भी देश के 24 राज्यों में इसपर प्रतिबंध लगा हुआ है। पांच राज्यो में प्रतिबंध नहीं है फिर भी वहां इसकी खुली छूट नहीं है। बाकी भैंस, ऊंट, भेड़, बकरी आदि पशुओं की खरीद-बिक्री से ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस तरह जुड़ी हुई है कि इसके बंद हो जाने पर गांव वालों पर बहुत उल्टा असर पड़ेगा। आदेश जारी करने के पहले यह भी नहीं सोचा गया कि अगर खरीद-बिक्री बंद हो जाएं तो इतनी बड़ी संख्या में जो पशुओं की मौत होगी उसको फिर कैसे संभाला जाएगा। यह तो एक सिलसिला सदियों से बना हुआ है कि किसान गाय, भैंस, बैल आदि का तब तक इस्तेमाल करते हैं जब तक वे इसके लायक हों और जब वे अपनी उपयोगिता खो देते हैं तब उन्हें बेचा जाता है ताकि बूचड़खाने चलाने वाले उनका इस्तेमाल कर सकें। पशुओं से कई उद्योग जुड़े हैं। गनीमत है कि सरकार अपनी गलती समझ रही है और हो सकता है कि इसपर दोबारा विचार करे।
तीसरा धमाका देश के किसानों के लिए था। चुनावों के मौके पर कई बार यह आश्वासन दिया गया कि उनके कर्जे माफ कर दिए जाएंगे। किसानों को भरोसा इसलिए हुआ क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी किसानों के 70 हजार करोड़ के रुपये के कर्ज माफ किए थे। जाहिर है किसान अक्सर बाढ़, सूखा आदि समस्याओं से जूझता रहता है। कई बार वह बीज, सिंचाई, तथा अन्य संसाधनों पर पैसा खर्च करता है और वह सारा पैसा सूखे या बाढ़ की चपेट में बर्बाद हो जाता है। कई बार यह भी होता है कि फसल अगर अच्छी हो जाए तो उसका उचित मूल्य नहीं मिल पाता। फिर भी किसान किसी न किसी उम्मीद के सहारे अपना काम धंधा जारी रखता है। अगर वह कर्ज लेता है तो वह उसकी मजबूरी है। और सवाल यह भी उठता है कि जब उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में काम करने वालों को कर्जमाफी की सुविधा मिल सकती है तो किसानों को क्यों नहीं मिल सकती। अगर किसान कमजोर पड़ गए तो खेती-बाड़ी की स्थिति और खराब हो जाएगी। कृषि क्षेत्र को हमें उदारवादी दृष्टिकोण से देखना चाहिए। आज भी देश में 50 प्रतिशत से अधिक लोग रोजगार के लिए खेती पर निर्भर हैं। अनाज, दलहन, तिलहन ही नहीं बल्कि कपास, गन्ना जैसी अनेक चीजें हैं जिनकी आपूर्ति देश के अंदर ही हो जाती है। अगर इतनी बड़ी मात्रा में आयात करना पड़े तो देश की अर्थव्यवस्था पंगु हो जाएगी।
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मतलब यह कि कृषि क्षेत्र को उतना ही महत्वपूर्ण दर्जा दिया जाना चाहिए जितना उद्योग, वाणिज्य तथा अन्य सेवाओं को दिया जाता है। किसानों के कर्जे माफ करने के वायदे से तो सरकार मुकर ही गई, ऊपर से यह भी कह दिया कि अगर राज्य सरकारें ये कर्जे माफ करती है तो इसके लिए फंड का इंतजाम उन्हें खुद करना होगा। यह बात जले पर नमक छिड़कने वाली साबित होगी। साफ दिखाई दे रहा है कि किसानों में इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई है। मध्यप्रदेश में आंदोलन इतना उग्र हो गया कि पुलिस ने गोली चलाई और उसमें 6 किसान मारे गए। इतना ही नहीं, मध्यप्रदेश में 9 किसानों ने पिछले 9-10 दिनों में आत्महत्या की है। यह मामला यहीं रूकने वाला नहीं है। भारतीय किसान यूनियन और अन्य किसान संगठनों ने देशभर में आंदोलन चलाने का ऐलान किया है। जाहिर है जब इतने बड़े पैमाने पर आंदोलन होंगे तो हिंसा की आशंका भी बनी रहेगी। सही बात तो यह है कि किसानों के साथ वास्तव में भेदभाव हो रहा है। मध्यप्रदेश की ही बात ले लीजिए, शिवराज सरकार ने किसानों से कई दौर की बातचीत के बाद यह तय किया कि सरकार 8 रुपये प्रति किलो की दर से प्याज खरीदेगी। उसी शहर में खुदरा दर पर वह प्याज 20 रुपये प्रति किलो की दर से बिक रहा है। किसानों का कहना है कि 8 रुपये किलो की दर से बेचने पर उनकी लागत भी नहीं निकलती है। तो फिर ये आंदोलन क्यों न करे। एक ही देश में उद्योगपतियों और व्यापारियों के लिए अलग व्यवस्था की जाए और किसानों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाए यह कहां का न्याय है।
तात्पर्य यह है कि मोदी सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल में जो तीन बड़े धमाके हुए हैं उससे तीन सवाल पैदा होते हैं। पहला सवाल यह है कि भारत निर्माण का आखिर हमारा लक्ष्य क्या है? हम भारत को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? भारत निर्माण का एक अर्थ यह निकलता है कि जिन चीजों के लिए अभी तक हम दूसरों पर निर्भर थे उनका खुद निर्माण करें। हमारी आत्मनिर्भरता इस बात पर निर्भर है कि नए उद्योग धंधे विकसित हों। तो सवाल यह कि उद्योग धंधे कौन लगाएगा? पूंजी निवेश कौन करेगा? हमारी अपनी अर्थव्यवस्था में इतनी आंतरिक शक्ति होनी चाहिए कि हम अपनी पूंजी बनाएं और उसा निवेश करें तथा आत्मनिर्भर बनें। बाहर से पूंजी निवेश की आशा पिछले तीन साल से लगाए बैठे हैं। दुनिया के हर कोने में घूम-घूम कर हमने प्रयास किया कि लोग आएं और पूंजी लगाएं। लेकिन सफलता नहीं मिली। दूसरा सवाल ये उठता है कि कृषि क्षेत्र को मजबूत बनाने के लिए जितना प्रयास करना चाहिए क्या हम ईमानदारी से वह प्रयास कर रहे हैं? क्या भारत का विकास कृषि के विकास के बिना संभव है? एक तरफ तो कृषि क्षेत्र को आधुनिक संसाधन उपलब्ध कराने की बात की जाती है और दूसरी ओर उन किसानों को आर्थिक बोझ के तले इस तरह दबा दिया जाता है कि वे खुद अपने को संभाल न पाएं फिर औरों का भला कैसे करेंगे। कृषि क्षेत्र कम से कम बेरोजगारी की समस्या को किसी हद तक कम करने में मदद तो करता है। फिर उसकी ऐसी उपेक्षा क्यों? तीसरा सवाल और जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है वह यह है कि पशु बिक्री रोकने जैसी छोटी-छोटी बातों में क्या हम अपनी ऊर्जा नष्ट करते रहेंगे। अगर समाज में वैमनस्य बढ़ता रहा, जाति, धर्म, सप्रदाय, क्षेत्र आदि के नाम पर समाज बंटता रहा तो क्या हम विकास का सपना देख पाएंगे? अगर अपनी सीमाएं ही सुरक्षित नही रख पाएं, अगर देश में अमन चैन न हो, अगर नौजवान काम की तलाश में मारे-मारे फिरते रहें और अगर हमारे मजदूर काम न मिलने पर भूखे पेट सोने को मजबूर हो जाएं तो क्या भारत निर्माण का सपना पूरा होगा? तीन साल बीते हैं, अभी भी संभलने का वक्त है। अपनी गलतियों को समझकर उनमें सुधार करना बड़प्पन ही कहलाता है। फिलहाल तो तीन साल के कार्यकाल की समीक्षा से ऐसा नहीं लगता कि भविष्य उज्जवल होगा और अच्छे दिन कभी आएंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)