सवाल देश बचाने का
कृष्ण किशोर पांडेय
बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ईवीएम (Electronic Voting Machine) के साथ किसी साजिश के तहत छेड़छाड़ करने का जो आरोप लगाया है वह वास्तव में गंभीर है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस ने भी इस तरह की आशंका जताई है। ईवीएम के साथ छेड़छाड़ के आरोप बीएमसी चुनाव के कुछ प्रत्याशियों ने भी लगाए हैं। नासिक के एक निर्दलीय उम्मीदवार ने तो अपनी शिकायत में यह बताया कि उसने खुद अपना, अपने पूरे परिवार का और कुछ समर्थकों का वोट अपने पक्ष में डलवाया था लेकिन उसके नाम के सामने शून्य वोट दिखाया गया। इसी तरह नागपुर के एक प्रत्याशी ने यह दावा किया कि उनके क्षेत्र में मतदान के बाद कुल 31000 वोट डाले जाने की बात बताई गई थी लेकिन मतगणना के दौरान वहां कुल 32500 वोट मशीन में दर्ज हुए थे। ये सब मामूली आरोप नहीं हैं। इलेक्ट्रॉनिक मशीनें चाहे वोटिंग के लिए इस्तेमाल हो या पैसे के लेनदेन में या किसी और काम में तो कई बार यह देखा गया है कि उसमें गड़बड़ी की जा सकती है। बैंकों में कई जगह लेनदेन में गड़बड़ी, पेटीएम की प्रक्रिया में गड़बड़ी और इस तरह की और भी अनेक गड़बड़ी की चर्चा अक्सर होती रहती है। अब सवाल यह उठता है कि क्या ईवीएम में छेड़छाड़ करके मतदान की प्रक्रिया को प्रभावित किया जा सकता है? यदि ऐसा संभव है तो कोई भी चुनाव महज दिखावा बनकर रह जाएगा। जो इस मशीन में हेराफेरी करने का शातिर दिमाग रखता होगा वह किसी दूसरी पार्टी को या प्रत्याशी को जीतने नहीं दे सकता। अगर ऐसी साजिश संभव है तो वह इस देश की चुनाव प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को हिलाकर रख देने के लिए काफी है।
पता नहीं उत्तर प्रदेश चुनाव में धांधली किए जाने की शिकायतों की जांच होगी या नहीं यह सवाल भी बहुत महत्वपूर्ण इसलिए हो जाता है क्योंकि चुनाव आयोग इसमें कितनी दिलचस्पी दिखाएगा यह प्रश्न अपने आप में एक बड़ा प्रश्न है। लोकतंत्र की अपनी कुछ सीमाएं हैं। संविधान में बहुत कुछ साफ लिखा है लेकिन कुछ ऐसे नियम भी होते हैं जो परंपरा से विकसित होते हैं। उन परंपराओं का पालन करना या कराना सरकार पर निर्भर करता है। यदि खुद सरकार ही परंपराओं को तोड़ने और नियमों को ताक पर रखकर मनमाने फैसले करने में विश्वास करे तो वहां अदालत भी बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं होती। उत्तराखंड में और अरुणाचल प्रदेश में केंद्र की मोदी सरकार ने जिस तरह निर्वाचित सरकारों को गिराया उनके बारे में अदालत में अपनी टिप्पणी में यह कहा था कि केंद्र सरकार लोकतंत्र की हत्या कर रही है। इतना ही नहीं मोदी सरकार ने जब नोटबंदी का आदेश जारी किया था तो सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि केंद्र सरकार ने देश को हिलाकर रख दिया। लेकिन क्या केंद्र सरकार पर अदालत की टिप्पणियों का कोई असर हुआ? क्या केंद्र सरकार ने अपनी गलती मानी?
इसके विपरीत केंद्र सरकार अपने हर काम को सिर्फ सही साबित करने में ही नहीं लगी रही बल्कि हाल के चुनावों के दौरान पूरा प्रयास किया कि ऐसा माहौल बना दिया जाए जिससे साबित हो कि सरकार ने सब सही काम किया है। अगर उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार वोटों के माध्यम से हार जाती है तो यह कहने का मौका मिलेगा कि राज्य की जनता ने केंद्र सरकार द्वारा पूर्ववर्ती सरकार को अपदस्थ किए जाने की कार्रवाई का समर्थन किया है। उसी तरह भले ही उत्तर प्रदेश में 62 प्रतिशत लोगों ने भाजपा के खिलाफ वोट दिया हो लेकिन अधिक सीटें जीतकर मोदी सरकार यह दावा कर सकती है और कर भी रही है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने नोटबंदी का समर्थन किया है। कोई भी यह सुनने को तैयार नहीं होगा कि अगर चुनाव को नोटबंदी से जोड़कर देखा जाए तो 62 प्रतिशत मतदाताओं ने मोदी के खिलाफ वोट दिया है उसके बारे में क्या कहा जाएगा। जहां तक चुनाव आयोग या अदालतों का सवाल है तो उनकी भी अपनी सीमाएं हैं। एक तो सुनवाई में इतना वक्त लगता है कि जब तक फैसला सामने आता है तब तक बहुत कुछ बदल जाता है। हरियाणा से राज्यसभा के चुनाव में एक ऐसे प्रत्याशी को विजय घोषित किया गया जिसे वोट ही कम मिले थे लेकिन चुनाव प्रक्रिया के दौरान पेन की स्याही बदलने का काम किया गया और इस आधार पर कुछ विधायकों के दस्तखत की स्याही गलत पाई गई और वे सारे वोट अवैध करार दे दिए गए। गलत स्याही वाला पेन किसने लाकर रखा कैसे रखा गया और ऐसा गलत काम सभी अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी में हुआ यह ताज्जुब की बात है। एक बात तो स्पष्ट है कि हार रहे प्रत्याशी को जिताने और जीत रहे प्रत्याशी को हराने की साजिश की गई और वह साजिश सफल भी रही। यह मामला आज भी अदालत के विचाराधीन है और पता नहीं, कब तक फैसला आएगा।
अभी हाल में गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनावों में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। परंपरा यही है कि ऐसे मौकों पर जिस दल को सबसे अधिक सीटें मिलती हैं उसे राज्यपाल पहले बुलाता है और सरकार गठन की संभावनाओं पर विचार करता है। इसके लिए विभिन्न दलों को समय भी दिया जाता है ताकि एक स्थायी सरकार बन सके। लेकिन इन दोनों राज्यों में जिस पार्टी को ज्यादा सीट नहीं मिली उसने खुलेआम विधायकों की खरीद फरोख्त का काम शुरू किया और राज्यपाल ने बड़ी पार्टी को मौका दिए बगैर आश्चर्यजनक जल्दीबाजी में सरकार का गठन करवा दिया। इसमें अदालत भी कुछ नहीं कर पाई और ना कुछ आगे किए जाने की संभावना है। सीधा अर्थ यह निकला कि विधायकों की खरीद फरोख्त करके सरकार बनाई जा सकती है, एक बनी हुई सरकार गिराई जा सकती है और खरीद फरोख्त को गैरकानूनी ना मानकर उसे उचित ठहराया जा सकता है। यहां सवाल यह उठता है कि क्या लोकतंत्र केंद्र सरकार द्वारा अपनाई जाने वाली इन अलोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सुरक्षित रखा जा सकता है?
पिछले ढाई वर्षों में केंद्र सरकार ने ऐसे अनेक कदम उठाए हैं जिनपर अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो लगता है कि धीरे-धीरे हमारा लोकतंत्र एक गंभीर खतरे का शिकार होता जा रहा है। अगर अदालत के आदेश से किसी राज्य की सरकार को जबरदस्ती भंग करने की प्रक्रिया को अवैध ठहराया जाता है तो उससे राष्ट्रपति की गरिमा को भी ठेस पहुंचती है। लोकतंत्र के लिए यह भी एक लज्जाजनक स्थिति है। आज विचार करने का मुद्दा यह है कि जिस केंद्र सरकार से तमाम लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर अमल करने और कराने की उम्मीद की जाती थी वही उन्हें तोड़ने पर अमादा हो तो परिणाम क्या होगा? देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा रही है। जेएनयू के कुछ छात्रों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा इसलिए चलाया गया क्योंकि उन्होंने केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना की। गुजरात के नौजवान नेता हार्दिक पटेल को छह महीने के लिए अपने राज्य से ही निष्कासित होना पड़ा क्योंकि उसने केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना की। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा जो एक शहीद की बेटी है की आलोचना इस बात के लिए की गई कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को उचित ठहरा रही थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में कुछ छात्रों पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि वे छात्र भी इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे।
स्थित बिलकुल साफ है कि राजनीतिक दलों में भी ऐसे दलों की संख्या ज्यादा है जो संविधान में वर्णित आदर्शों के पक्ष में है। कुछ ऐसे आदर्श जो इस देश की विशाल अट्टालिका की नींव बनते आ रहे हैं। इन बुनियादी आदर्शों को देश की जनता ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही स्वीकार कर लिया था। आजादी के बाद से अब तक उन सिद्धांतों पर अमल होता रहा। आज अगर जानबूझकर उन आदर्शों को तोड़ने की कोशिश की जाती है तो सिर्फ लोकतंत्र पर ही नहीं, देश की एकता और अखंडता पर भी खतरा मंडराने लगेगा। ये बुनियादी आदर्श धर्म निरपेक्षता, सामाजिक सौहार्द और समरसता, समाजवाद, स्वतंत्र विदेश नीति और प्रशासन में सबकी सहभागिता। देश के राजनीतिक दलों में राष्ट्रीय स्तर और क्षेत्रीय स्तर के भी लगभग सभी दल इन आदर्शों को मानते हैं लेकिन भाजपा इन सभी आदर्शों को बदलने की बात करती है। इसलिए राजनीतिक दलों के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि वे गहराई से वर्तमान स्थिति पर विचार करें। उनके सामने चुनौती स्पष्ट है। केंद्र की वर्तमान सरकार सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं और सभी आदर्शों तथा परंपराओं के सामने चुनौती खड़ी कर रही है। साफ इशारा यह है किया तो पूरा देश भगवा नीतियों को स्वीकार करे या फिर अपने अस्तित्व की रक्षा करने को तैयार हो जाए। भाजपा और उसकी सरकारें किसी भी हद तक जाने को तैयार दिख रही हैं।
बहरहाल, देश के सामने आज जो चुनौतियां मुंह बाए खड़ी है वे साफ तौर से कह रही है कि यदि देश को बचाना है तो राजनीतिक दलों और व्यक्तियों को स्वार्थ से ऊपर उठकर देश बचाओ की एक सूत्री नीति को अपनाना होगा और उसके लिए प्रभावकारी रणनीति भी तैयार करनी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)